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भारत के सर्वाधिक शक्तिशाली शासकों में से एक कृष्ण देवराय (1509-1529 ई.)विजयनगर साम्राज्‍य

भारत के सर्वाधिक शक्तिशाली शासकों में से एक कृष्ण देवराय (1509-1529 ई.)विजयनगर साम्राज्‍य

भारत के सर्वाधिक शक्तिशाली शासकों में से एक कृष्ण देवराय (1509-1529 ई.)विजयनगर साम्राज्य के राजा थे। राजा कृष्ण देवराय ने कब्जाई थी सत्ता,अरब सागर से लेकर बंगाल की खाड़ी तक फैला था ये विजयनगर साम्राज्य! तुलुव वंश से आने वाले कृष्ण देवराय को उस समय का सबसे शक्तिशाली राजा माना जाता था। इस वंश ने (1505-1570 ई.) तक विजयनगर साम्राज्य पर राज किया। विजयनगर का साम्राज्य राजा कृष्ण देवराय के कार्यकाल में भव्यता के शिखर पर पहुंच गया था। उन्होंने जो भी लड़ाइयां लड़ी,उन सभी में सफल रहे। उन्होंने ओडिशा के राजा को पराजित किया और विजयवाड़ा तथा राजमहेन्द्री को जोड़ा। इनकी ख्याति के कारण सम्राट कृष्ण देवराय को इतिहास के पन्नों में चित्रगुप्त मौर्य, पुष्यमित्र, चंद्रगुप्त विक्रमादित्य, स्कंदगुप्त, हर्षवर्धन और महाराजा भोज के सामान्तर माना जाता है। बाबर ने अपनी आत्मकथा में इन्हें भारत का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक कहा है।
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विजयनगर की राजधानी हम्पी में राजा कृष्ण देवराय का जन्म 16 फरवरी 1471 ई. को हुआ था। उनके पिता का नाम तुलुवा नरसा नायक और माता का नाम नागला देवी था। उस समय उनके पिता नरसा नायक सालुव वंश के एक सेनानायक थे। नरसा नायक ही सालुव वंश के दूसरे और अंतिम कम उम्र के शासक इम्माडि नरसिंह के संरक्षक थे। बाद में नरसा नायक ने शासक इम्माडि नरसिंह को रास्ते से हटाकर 1491 में विजयनगर की सत्ता हासिल कर ली।

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वर्ष 1509 में राजा बने कृष्ण देवराय, इनके पिता नरसा नायक की 1503 ई. में मृत्यु के बाद कृष्ण देवराय के बड़े भाई वीर नरसिंह सिंहासन पर बैठे। चालीस वर्ष की उम्र में अज्ञात बीमारी से वीर नरसिंह की भी मृत्यु हो गई। जिसके बाद 8 अगस्त 1509 ई. को कृष्ण देवराय का राजतिलक किया गया। विजयनगर साम्राज्य के संस्थापक हरिहर प्रथम बुक्काराय थे। उन्होंने सल्तनत की कमजोरी का फायदा उठाकर होयसल राज्य को हासिल कर लिया था। जिसके बाद हस्तिनावती यानि हम्पी को विजयनगर साम्राज्य की राजधानी बनाया।

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अरब सागर से लेकर बंगाल की खाड़ी तक फैला था साम्राज्
राजा कृष्णदेव राय कूटनीति में माहिर थे। उन्होंने अपनी बुद्धिमानी से आन्तरिक विद्रोहों को शांत कर बहमनी के राज्यों पर अधिकार हासिल किया था। कृष्ण देवराय ने राज संभालने के बाद अपने साम्राज्य का विस्तार अरब सागर से लेकर बंगाल की खाड़ी तक कर लिया था। जिसमें आज के कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, केरल, गोवा और ओडिशा प्रदेश आते हैं। महाराजा कृष्ण देवराय के राज्य की सीमाएं पूर्व में विशाखापट्टनम, पश्चिम में कोंकण और दक्षिण में भारतीय प्रायद्वीप के अंतिम छोर तक थीं। हिन्द महासागर में स्थित कुछ द्वीप भी उनके आधिपत्य में थे।

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हर क्षेत्र में निपुण थे कृष्णदेव राय:-राजा कृष्णदेव ने अपने शासनकाल में कला और साहित्य को भी खुब प्रोत्साहित किया था। वे तेलुगु साहित्य के महान विद्वान थे। कुमार व्यास का ‘कन्नड़-भारत’ कृष्ण देवराय को समर्पित है। उन्होंने तेलुगु के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘अमुक्त माल्यद’ या ‘विस्वुवितीय’ की रचना की। कृष्ण देवराय ने संस्कृत भाषा में एक नाटक ‘जाम्बवती कल्याण’ की भी रचना की थी। इसके अलावा संस्कृत में उन्होंने ‘परिणय’, ‘सकलकथासार– संग्रहम’, ‘मदारसाचरित्र’, ‘सत्यवधु– परिणय’ भी लिखा। इनके दरबार को तेलुगु के 8 महान विद्वान एवं कवियों (अष्टदिग्गज) ने सुशोभित किया। कहा जाता है कि इस काल में तेलुगु साहित्य अपनी पराकाष्ठा तक पहुंच गया था। कृष्णदेव के दरबार में ये कवि साहित्य सभा के आठ स्तंभ माने जाते थे। कृष्णदेव राय को आंध्र भोज भी कहा जाता है।

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राजा कृष्ण देवराय के दरबार के सबसे प्रमुख सलाहकार थे रामलिंगम यानि तेनालीराम। कृष्ण देवराय का अनुसरण करते हुए ही अकबर ने भी अपने नवरत्नों में बीरबल को रखा था। सम्राट कृष्णदेव राय घोड़ों के बहुत शौकीन थे। उन्होंने सीड़े मरकर नामक एक मुगल को चालीस हजार सिक्के देकर गोवा के पोंड़ा में मुगलों से घोड़े खरीदने के लिए भेजा, किन्तु उस मुगल ने विश्वासघात किया और पोंड़ा के मुगलों के साथ सिक्के और घोड़े लेकर आदिलशाह के राज्यक्षेत्र में भाग गया। दोनों राज्यों की चालीस साल पुरानी संधि के आधार पर दूसरे राज्य के अपराधी को संरक्षण देना संधि का उल्लंघन था, अत: सम्राट कृष्णदेव राय ने आदिलशाह को पत्र लिखकर बताया कि सीडेमरकर को धन सहित तुरंत विजयनगर साम्राज्य को सौंप दिया जाय, अन्यथा परिणाम भयानक होगा।

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आदिलशाह ने अहंकार के कारण उस मुगल अपराधी को विजय नगर भेजनेके बजाय सम्राट को पत्र लिखा कि काजी की सलाह के अनुसार सीड़े मरकर पैगम्बर के वेश का प्रतिनिधि और कानून का ज्ञाता है, अत: उसे विजयनगर को नहीं सौंपा जा सकता।
 इस हठवादिता के विरूद्व सम्राट कृष्णदेव राय ने 7,36,000 सैनिकों की विशाल सेना के साथ रायचूर पर धावा बोल दिया। कूटनीतिक तरीके से बरार, बीदर और गोलकुंडा के सुल्तानों को उन्होंने आदिलशाह के पक्ष में न बोलने के लिए भी तैयार कर लिया। इन सुल्तानों को पता था कि यदि हमने आदिलशाह की मदद की तो सम्राट कृष्णदेव के कोप से हमें भी जूझना पड़ेगा।

परिणामत: ये सभी आदिलशाह के सहयोग में नहीं खड़े हुए जबकि सभी हिन्दू राजाओं को उन्होंने कृष्णा नदी के तट पर एक जुट करके बीजापुर की आदिलशाही सेना पर आक्रमण कर दिया। भयभीत होकर आदिलशाह युद्व के मैदान से भाग गया तथा सम्राट कृष्णदेवराय की विजय हुयी। सम्राट कृष्णदेव राय की इस विजय को दक्षिण भारत की महत्वपूर्ण विजय कहा गया, जिसके बहुत दूरगामी परिणाम सामने आये, जो निम्नवत् हैं-

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1. आदिलशाह की शक्ति और सम्मान को चकनाचूर करके बीजापुर के उस अहंकार को उन्होंने तोड़ दिया, जिसमें वह दक्षिण भारत का सुल्तान बनने का स्वप्न अपनी आंखों में सजोए हुए था।

2. दक्षिण भारत के अन्य मुगल शासकों के दिल दहल गये और वे अपने जीवित रहने के लिए राह तलाशने लगे।

3. पुर्तगाली इतना भयभीत हो गये कि उन्हें लगा कि उनका व्यापार हिन्दुओं की सहायता के बिना संभव नहीं है।

4. भारतीयों में आत्मगौरव और स्वाभिमान का प्रबल जनज्वार खड़ा हो गया।सम्राट कृष्णदेव राय ने इस सफलता पर विजयनगर में शानदार उत्सव का आयोजन किया, जिसमें मुगल शासकों ने अपने दूत भेजे, जिनको सम्राट कृष्णदेव राय ने कड़ी फटकार लगाई। यहां तक कि आदिलशाह के दूत से उन्होंने कहा कि आदिलशाह स्वयं यहां आकर मेरे चरणों का चुम्बन करे और अपनी भूमि तथा किले हमें समर्पित करे तब हम उसे क्षमा कर सकते हैं। वीरता के साथ-साथ विजयनगर का साम्राज्य शासन व्यवस्था के आधार पर विश्व में अतुलनीय था। सुन्दर नगर रचना और सभी को शांतिपूर्वक जीवन यापन करने की सुविधा यहां की विशिष्टता में चार चांद लगाती थी। जाति और पूजा पद्वति के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं था। यहां पर राजा को धर्म, गौ एवं प्रजा का पालक माना जाता था। सम्राट कृष्णदेव राय की मान्यता थी कि शत्रुओं को शक्ति के आधार पर कुचल देना चाहिए और ऐसा ही उन्होंने व्यवहार में भी दिखाया।

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विजयनगर साम्राज्य के सद्गुणों की स्पष्ट झलक उनके दरबार के प्रसिद्व विद्वान तेनाली राम के अनेक दृष्टान्तों से मिलती है, जो आज भी भारत में बच्चों के अन्दर नीति और सद्गुणों के विकास के लिए सुनाये जाते हैं। सम्राट कृष्णदेवराय के शासन में कौटिल्य के अर्थशास्त्र को आर्थिक विकास का आधार माना गया था, जिसके फलस्वरूप वहां की कृषि ही जनता की आय का मुख्य साधन बन गयी थी। इनकी न्याय प्रियता पूरे भारत में प्रसिद्व थी। लगभग 10 लाख की सैन्य शक्ति, जिसमें 32 हजार घुड़सवार तथा एक छोटा तोप खाना और हाथी भी थे, वहां की सैनिक सुदृढ़ता को प्रकट करता था। विजयनगर साम्राज्य अपनी आदर्श हिन्दू जीवन शैली के लिए विश्व-विख्यात था। जहां के महाराजा कृष्णदेव राय वैष्णव होने के बावजूद भी जैन, बौद्व, शैव, लिंगायत जैसे भारतीय पंथों ही नहीं ईसाई, यहूदी और मुसलमानों जैसे अभारतीय पंथों को भी पूरी धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान करते थे। ऐसे सर्वव्यापी दृष्टिकोण का परिणाम था कि ई. 1336में स्थापित विजयनगर साम्राज्य हिन्दू और मुसलमान या ईसाईयों के पारस्परिक सौहार्द तथा समास और समन्वित हिन्दू जीवन शैली का परिचायक बना जबकि इससे दस वर्ष बाद अर्थात 1347 ई. में स्थापित बहमनी राज्य हिन्दुओं के प्रति कटुता, विद्वेष और बर्बरता का प्रतीक बना।

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पन्द्रहवीं शताब्दी में विजय नगर साम्राज्य का वर्णन करते हुए इटली के यात्री निकोलो कोंटी ने लिखा था कि यह राज्य भारत का सबसे शक्तिशाली राज्य है, इसके राजकोष में पिघला हुआ सोना गंढों में भर दिया जाता है तथा देश की सभी अमीर गरीब जातियों के लोग स्वर्ण आभूषण पहनते हैं। सोलहवीं शताब्दी में पुर्तगाली यात्री पेइज ने यहां की समृद्वि का वर्णन करते हुए लिखा था कि यहां के राजा के पास असंख्य सैनिको की शक्ति, प्रचुर मात्रा में हीरे जवाहरात, अन्न के भंडार तथा व्यापारिक क्षमता के साथ-साथ अतुलनीय कोष भी हैं। एक और पुर्तगाली यात्री न्यूनिज ने भी इसी बात की पुष्टि करते हुए लिखा है कि विजयनगर में विश्व की सर्वाधिक प्रसिद्व हीरे की खानें, यहां की समृद्वि को प्रकट करती हैं।

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सैनिक और आर्थिक ताकत के अतिरिक्त सम्राट कृष्णदेव राय उच्चकोटि के विद्वान भी थे। संस्कृत, कन्नड़, तेलगू तथा तमिल भाषाओं को प्रोत्साहन देने के साथ ही उन्होंने अपने साम्राज्य में कला और संस्कृति का पर्याप्त विकास किया। उन्होंने कृष्णा स्वामी, रामा स्वामी तथा विट्ठल स्वामी जैसे भव्य मंदिरों का निर्माण कराया तथा संत स्वामी विद्यारण्य की स्मृति में बने हम्पी मंदिर का विकास भी कराया। संत विद्यारण्य स्वामी साधारण संत नहीं थे। उन्होंने मां भुवनेश्वरी देवी के श्री चरणों में बैठ कर गहरी अनुभूति प्राप्त की थी तथा स्वामी भारतीकृष्ण तीर्थ जी महाराज के शिष्य के रूप में श्रृंगेरी मठ के शंकराचार्य के पद को सुशोभित किया था।

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विजयनगर साम्राज्य के इस कुशल योजनाकार ने 118 वर्ष की आयु में जब अपना जीवन त्याग दिया तो कर्नाटक की जनता ने पम्पा क्षेत्र (हम्पी) के विरूपाक्ष मंदिर में इस महान तपस्वी की भव्य प्रतिमा की स्थापना की, जो आज भी भक्तों के लिए पेरणा स्रोत है। विजयनगर साम्राज्य को विश्व में आदर्श हिन्दू राज्य के रूप में मानने के पीछे सम्राट कृष्णदेव राय का प्रेरणादायी व्यक्तित्व अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। कृष्ण देव राय के निधन के बाद ढहने लगा साम्राज्य:- कृष्ण देव राय ने अपने शासन काल में पश्चिमी देशों के साथ व्यापार को बढ़ावा दिया। उनके पुर्तगालियों के साथ अच्छे संबंध थे, जिनका व्यापार उन दिनों भारत के पश्चिमी तट पर व्यापारिक केंद्रों के रूप में स्थापित हो चुका था। वे न केवल एक महान योद्धा थे बल्कि वे कला के पारखी और अभिगम्यता के महान संरक्षक भी रहे। उन्होंने अपने व्यक्तित्व आकर्षण, दयालुता और आदर्श प्रशासन द्वारा लोगों की बहुत मदद की। विजयनगर साम्राज्य का पतन 1529 में कृष्ण देव राय की मृत्यु के साथ शुरू हुआ। यह साम्राज्य 1565 में पूरी तरह समाप्त हो गया जब आदिलशाही, निजामशाही, कुतुबशाही और बरीद शाही के संयुक्त प्रयासों द्वारा तालीकोटा में रामराय को पराजित किया गया।

लेखक: Prashant Pundir

लेखक: Prashant Pundir 🙏

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