भारत-चीन युद्ध में भारतीय कम्युनिस्टों की भूमिका –
1962 के युद्ध में चीन से मिली पराजय आज भी प्रत्येक भारतीयों के सीने में चुभने वाली यादों को गहरा करता है। युद्ध में मिली हार के मर्म ने कितने भारतीयों को अब तक कितना रुलाया और मायूस किया है, इसका हिसाब नहीं लगाया जा सकता। भारत की हार केवल एक देश की ही राजनीतिक हार नहीं थी बल्कि इसमें आम भारतियों की भावना भी “दोस्ती” की आड़ में छला गया। चीन ने जब भारत पर आक्रमण किया तो उस समय टुकड़े में मिली आज़ादी और विभाजन के दर्द से भारत अभी सही से उबरा भी नहीं था। चीन द्वारा भारत पर दोस्ती का ढोंग रचकर युद्ध थोपा गया। सभी इस बात को मानते है कि देश के सुरक्षा के प्रति बेपरवाह नेहरु की ग़लतिया चीन युद्ध में मिली पराजय के प्रमुख कारण थे। युद्ध में हुई हार के बाद अपनी गलती स्वीकारते हुए नेहरु ने संसद में कहा था कि “हम आधुनिक दुनिया की सच्चाई से दूर हो गए थे और हम एक बनावटी माहौल में रह रहे थे, जिसे हमने ही तैयार किया था।” बाद में हार के कई कारण गिनाये गए। अनेक लोगों को संदेह के घेरे में पाया गया। लेफ्टिनेंट जनरल एंडरसन बुक्स तथा ब्रिगेडियर पीएस भगत के नेतृत्व में एक जाँच समिति भी बनायीं गयी जिसने चीन से हुए युद्ध से संबंधित दस्तावेजों तथा परिस्थितियों की जांच की। जांच रिपोर्ट प्रधानमंत्री नेहरू तथा उनके कुछ वरिष्ठ मंत्रियों को 1963 में ही सौंप दी गयी लेकिन आजतक उस रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया गया।
खैर, इस बात को सभी स्वीकार करते है कि चीन से हुए युद्ध में पराजय नेहरु की नीतियों और कुछ सुरक्षा से सबंधित लोगों के रणनीतिक चूक के कारण हुई लेकिन इन सबसे भी ज्यादा महत्वपूर्ण उस शर्मनाक पराजय की स्मृति में 1962 के गद्दारों को याद करना जरुरी है जो आज भी भारत के वजूद को मिटाने पर तुले हुए है। हार के कारणों पर चर्चा करते समय यह बात ध्यान में रखने की है कि देश में रहकर चीनियो के सहायता करनेवालें गद्दार वामपंथियों को भी हार के लिए कम कसूरवार नहीं ठहराया जाना चाहिए। युद्ध के दौरान जिस तरीके से वामपंथियों ने चीनियों का साथ दिया, वह न केवल शर्मनाक था बल्कि वामपंथियों ने देशद्रोहिता का सबसे घिनौना नमूना भी पेश किया था। पूरी दुनिया ने देखा कि किस प्रकार से, जिस थाली में खाकर वामपंथी बड़े हुए थे, उसे ही फोड़ने में अपनी पूरी ताकत लगा दी और दुश्मनों के साथ मिलकर अपने ही घर को लुटने को मजबूर किया। ऐसा पहली बार नहीं हुआ जब वामपंथीयों ने भारत के खिलाफ काम किया हो। आज़ादी के संघर्ष के दौरान भी देशद्रोही वामपंथियों ने अंग्रेजों का साथ दिया था। आज़ादी के संघर्ष के दौरान वामपंथियों की अंग्रेजों से यारी जगत प्रसिद्ध है। अंग्रेजों के जाने के बाद भी वामपंथियों का भारत विरोध थमा नहीं बल्कि वे लगातार भारत विरोधियों के हाथों में खेलते रहे। लम्बे संघर्ष और बलिदानों के पश्चात् भारत को मिली आज़ादी वामपंथियों को कभी रास नहीं आई। वे लगातार विदेशी कम्युनिस्टों के इशारे पर भारत को अस्थिर करने का प्रयास करते रहे। आज़ादी के पश्चात अनेक वर्षों तक वामपंथियों ने भारतीय संविधान की अवलेहना की। उसे स्वीकारने से इंकार किया।
आजाद भारत लगातार विदेशी षड़यंत्र का शिकार बना और आज़ादी मिलने के तुरंत बाद कई युद्ध झेलने को मजबूर हुआ। एक तरफ पाकिस्तान लगातार हमले पर हमले किये जा रहा था तो दूसरी तरफ चीन भी भारत को अपना शिकार बनाने के फ़िराक बनाने में जुटा था। पश्चिमी जीवनशैली जीवन जीनेवाले लेकिन वामपंथियों के विचारों से प्रभावित नेहरु “हिंदी-चीनी भाई भाई” के तराने गा रहे थे। इस हिंदी चीनी दोस्ती के स्वप्न देखने और चीन के प्रति अगाध प्रेम उमड़ने की नीति के मूल में भी वामपंथियों का ही दिमाग काम कर रहा था। लेकिन कौन जानता था कि भाईचारा की आड़ में भारत के वजूद को मिटाने का अभियान चल रहा है। 1962 का युद्ध हुआ और इस भारत-चीन युद्ध के दौरान भारतीय कम्युनिस्टों ने अपनी असली पहचान उजागर करते हुए चीन सरकार का समर्थन किया। वामपंथियों ने यह दावा किया कि “यह युद्ध नहीं बल्कि यह एक समाजवादी और एक पूंजीवादी राज्य के बीच का एक संघर्ष है।” कलकत्ता में आयोजित एक सार्वजनिक कार्यक्रम में बंगाल के सबसे ज्यादा समय तक मुख्यमंत्री रहे ज्योति बसु ने तब चीन का समर्थन करते हुए कहा था – “चीन कभी हमलावर हो ही नहीं सकता (China cannot be the aggressor)”। ज्योति बसु के समर्थन में तब लगभग सारे वामपंथी एक हो गए थे। सभी वामपंथियों का गिरोह इस युद्ध का तोहमत तत्कालीन भारत सरकार के नेतृत्व की कट्टरता और उत्तेजना के मत्थे मढ़ रहे थे।
कुछ वामपंथी थे जिन्होंने भारत सरकार का पक्ष लिया, उनमे एसए डांगे प्रमुख थे। लेकिन डांगे के नाम को छोड़ दें तो अधिकांश वामपंथियों ने चीन का समर्थन किया। ई एम एस नम्बुरिपाद (E.M.S. Namboodiripad), ज्योति बसु और हरकिशन सिंह सुरजीत के अलावा कुछ प्रमुख नाम जो चीन के समर्थन में नारे लगाने में जुटे थे उनमे बी टी रानादिवे (B. T. Ranadive) , पी. सुंदरय्या (P. Sundarayya), पीसी जोशी (P. C. Joshi), बसवापुन्नैया (Basavapunnaiah) सहित उस समय के अधिकांश बड़े वामपंथी नेता शामिल थे। बंगाल के वामपंथी तो भारत-चीन युद्ध के समय खबरिया चैनलों की तर्ज़ पर सारी सूचनाये इकठ्ठा करके भेदिये का काम कर रहे थे। युद्ध के समय वामपंथियों की चीन के समर्थन में किये देशद्रोही कार्य का कुछ दिनों पहले एक विदेशी खुफिया एजेंसी ने खुलासा भी किया था। इसी युद्ध के बाद भारतीय कम्युनिस्टों दो फ़ाड़ हो गये थे। युद्धमें मिली हार से बुरी तरह टूटने के बावजूद वामपंथी मोह में फंसे नेहरु ने इन देशद्रोहियों को फांसी पर लटकाने के वजाए सभी गद्दारों को जेल भेजने का काम किया। सभी जानते है कि 62 के युद्ध में मिली हार नेहरू को बर्दास्त नहीं हुआ और अंततः उनकी मौत की वजह बनी। दिनकर ने तब कहा था – “जो तटस्थ है, समय लिखेगा उनका भी अपराध”।
ये वामपंथी भले ही आज मुख्यधारा में शामिल होने का नाटक करते हो। राजनितिक दल बनाकर लोकसभा, विधानसभा का चुनाव लड़ने, भारतीय संविधान को मानने और भारत भक्त बनने के दावें करते हों, इनकी भारत के प्रति निष्ठा पर यकीन करना बड़ा मुश्किल लगता है। सोवियत संघ रूस के बिखरने से वामपंथ और वामपंथी मिटने के कगार पर है, क्योंकि आज न तो इन्हें वामपंथी देशों से दाना-पानी चलाने को पैसा मिल रहा है और न ही राजनीतिक समर्थन। फिर भी भारत विरोध के इनके इरादे कमजोर नहीं हुए है। आज के समय में ये जल-जंगल-जमीन की लडाई के नाम पर भारत के प्राकृतिक संसाधन पर कब्ज़ा ज़माने और भारत की लोकतान्त्रिक ढांचे को ख़त्म करने का लगातार षड्यंत्र रच रहे है। भारत विरोधी सारे संगठनों के गिरोह के तार उन्ही लोगो से जुड़े है जो आज़ादी से पहले अंग्रेजो का और आज़ादी के बाद भारत विरोधियों का साथ देते रहे है। इनके इरादे आज भी देश की सरकार को उखाड़कर, भारत की संस्कृति-सभ्यता को मटियामेट करने व भारत नाम के देश का अस्तित्व मिटने का ही है। मानवाधिकारों की लड़ाई लड़ने का ढोंग रचने वालें भारतीय वामपंथी आज भी नक्सलियों और माओवादियों के द्वारा जब निर्दोष लोग मारे जाते है, जब चीन अरूणाचल प्रदेश पर अपना दावा करता है, तब भी वे चुप ही रहते हैं।
वैसे समय में जब हम 1962 के युद्ध के जख्मों को याद कर रहे है, इन गद्दारों से जुड़े संगठनों की भूमिका को याद करना और उसे नयी पीढ़ी को बताना जरुरी है। आज चीन एकतंत्रीय तानाशाही के माध्यम से विश्व की महाशक्ति बनने का अपना सपना पूरा करने के लिए हर संभव प्रयास कर रहा है। इसके लिए वह सारे हथकंडे अपना सकता है जो उसने 1962 में आजमाया था। चीन द्वारा साम्राज्यवादी राजनीतिक और आर्थिक नीति अपनाने की वजह से आज भारत के संप्रभुता और सुरक्षा के समक्ष गंभीर खतरे उत्पन्न हो गए है। हमें चीन को लेकर एक समग्र नीति बनाने की आवश्यकता है।
साभार – अभिषेक रंजनhttps://www.facebook.com/photo/?fbid=284084177060498&set=pcb.284084207060495