भेदन की हर पीड़ा हर ली,धर कर अपने अधरों पर मुरली…!तृप्त हुआ यह तृषित बाँस हरजब भये मनोहर मुरलीधर…!!

भेदन की हर पीड़ा हर ली
धर कर अपने अधरों पर मुरली…!
तृप्त हुआ यह तृषित बाँस हर
जब भये मनोहर मुरलीधर…!!
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मुरलीधर गिरिधर, वंशीधर, चक्रधर… ऐसे सैकड़ों या हजारों नाम हो सकते हैं। उनमें से अधिकांश पर्यायवाची के भी पर्यायवाची हैं। ये सब नाम अकेल कृष्ण के हैं। कान्हा, छलिया, माखनचोर आदि भी उनके ही श्रीनामों में से हैं। कृष्ण के जीवन का अपना कृष्ण पक्ष भी है, शुक्ल पक्ष भी और इन दोनों के मध्य एक ललित पक्ष भी; क्रमशः तम, सत्व और रज की तरह। कृष्ण अपने शुक्ल पक्ष में नारायण, हृषीकेश, अच्युत, योगीश्वर हैं। कृष्ण अपने कृष्ण पक्ष में मध्वरि, मुरारि, रणछोड़, चक्रधर हैं। कृष्ण अपने ललित पक्ष में राधारमण, गोपीश्वर, नटवर, मोहन, माधव, कान्हा, छलिया, माखनचोर हैं। वे जितने दूर तक कृष्ण हैं, वे द्वारकाधीश हैं; वे जितने दूर तक कान्हा हैं, वे गोपाल हैं। कान्हा या कन्हैया नाम का मूल अर्थ नहीं पता। संस्कृत मूल का यह शब्द नहीं लगता। अन्य नामों के अर्थ अधिकांश को भी विदित हैं, परंतु इस नाम का कृष्ण के अतिरिक्त कोई और अर्थ विदित या निगमित नहीं हो पाता। कान्हा या कन्हैया शब्द कहीं कन्हाई भी हो जाता है। इनके अलग-अलग अर्थ बताए जाते हैं, जैसे… सुंदर बालक, नटखट किशोर, बाँका युवक, प्रिय व्यक्ति आदि। परंतु यह तो भाव हुआ, विशेषण की व्युत्पत्ति तो न हुई। वैसे तो गिरिधर, तुम्हारे गोवर्धन के साथ बचपन बोलता है। वंशीधर, तुम्हारी वंशी के साथ कैशोर्य डोलता है। और चक्रधर, तुम्हारे चक्र के साथ यौवन मचलता है। परंतु प्रौढ़पन का क्या…?
अगर ग्रंथ से जाने तो, गिरिधर बनने में तुम्हारी करुणा है, संरक्षकता है। वंशीधर बनने में तुम्हारा प्रेम है, सुंदर मधुरता है। चक्रधर बनने में तुम्हारी मैत्री है, शत्रुंजयता है।
इन तीनों में वह कहाँ है, जो स्थितप्रज्ञता है?
तुम्हीं कहते हो, स्थितप्रज्ञता तो तब है, जब कामनाएँ छूट जाएँ, मन अपने आप में तृप्त हो जाए। तब तुम्हारी भी कामना क्या बाधा न बनेगी। तुम्हारी साध भी तब साध्य में कुछ अवरोध न हो जाए। बोध यह भी जगता है कि जब तुम धरती पर आए होगे, अच्युत, निर्विकार बने, इतने समय जग में रह कर भी क्या स्थितप्रज्ञता बचाए रह पाए होगे? कुछ अभीप्सा, स्पृहा साथ न गई होगी, भक्तों की, अनुरक्तों की, अतृप्तों की, संतप्तों की। यौवन की तृषाएँ प्रौढ़पन में मानव की भी सिमट ही जाती हैं। और फिर मन यह सोच बैठता है कि जब महाभारत बीता होगा, या फिर उससे भी पहले जब गोकुल छूटा होगा, तुम द्वारका पहुँचे होगे… तब वहाँ तुम्हारे मधुर गीत क्या गंभीर गीता न बन गए होंगे। तुम्हारा वंशीनिनाद क्या अनहद-निनाद न बन गया होगा। अंततः तुम्हारा मक्खन-मिश्री का स्वाद भी क्या गंगाजल-तुलसीदल तक सीमित न हो गया होगा।
कृष्ण… युग बीत गए। नया युग के साथ नया मन अब विश्वास भी न करेगा शायद कि तुम कभी गिरिधर भी बने थे। वैज्ञानिक हुआ मन भीषण शस्त्रास्त्रों के युग में तुम्हारे चक्रधर होने भर से आश्वस्त भी न होगा। बहुत तार्किक हुआ अब यह नये युग का मन लेकिन फिर भी हमें ऐसा लगता है कि तुम्हारे वंशीधर रूप में कुछ माधुर्य पा ही लेगा, परंतु विभोर हो आबद्ध हो जाएगा, इसका तो यकीन नहीं। लेकिन अब मन बस यही चाहता है कि तुम और कुछ भी न धरो अपने अधरो पर, बस तुम धरो मेरा हाथ, तो बस वैसे ही जैसे कोई मित्र ले लेता है हाथ मित्र का मैत्री में, या फिर बूढ़े पकड़ लेते हैं हाथ, डगमग चलते बच्चे का, वात्सल्य में या फिर बच्चे ही पकड़ लेते हैं, बड़ों की उँगली, आश्वस्ति में। बिल्कुल अब वैसे थामो मेरा हाथ।
कहते हैं कृष्ण का जन्म जगत के लिए एक क्रांतिकारी घटना है। कृष्ण का ज्ञान हमारे लिए सबसे अधिक प्रासांगिक है। वे हमें न तो सांसारिक कार्यो में खोने देती है न ही हमे जगत से पूरी तरह से उदासीन होने देती है। कृष्ण इतने अपने से लगते है उनकी चर्चा मात्र से मन अपनी उदासी भूल जाता है। कृष्ण की चर्चा में एक रस है। युवा हो या वृद्ध… साधु हो या संसारी सभी के दिल मे कृष्ण के लिए एक कोना हमेशा आरक्षित मिलेगा। कृष्ण को किसी एक आयाम में बाधा नही जा सकता नही परिभाषित किया जा सकता है। जीवन के हर अवस्था मे वह पूर्ण मिले, बालक के रूप में वह सभी के प्यारे थे और सुंदर थे एक किशोर के रूप में बहु प्रतिभाशाली औऱ राधा के प्रिय थे। वयस्क में चतुर, बुद्धिमान वीरता से भरे थे, सच्चे मित्र, राजनीतिज्ञ एक महान शिक्षक और गुरु थे। कृष्ण उस सबके केंद्र में है, जो हर्षित और आकर्षक है।कृष्ण वह निराकार केंद्र है जो हर जगह है।कोई आकर्षण कही से भी उत्पन्न क्यो न हुआ हो वह कृष्ण से प्रगट है। ऋषियो ने कृष्ण को पूर्ण अवतार माना वही जगत ने पूर्ण पुरुष। देखा जाए तो कृष्ण का पूरा जीवन सघर्षो से भरा था सब कुछ विपरीत होने पर भी वह मुस्कुराते रहते थे, जिस कौसल और संयम के साथ कठिन परिस्थितियों को संभाला यह उनके संतुलन का प्रतीक है। कृष्ण के जीवन मे सुख भी था और दुख भी, राधा से बिछुड़ने की वेदना भी थाऔर कर्म के प्रति सजगता भी था। कृष्ण का पूरा जीवन एक संतुलन तो था। कृष्ण का हर चरित्रऔर हर रूप एक प्रेरणा ही तो है। वह द्वारकाधीश औऱ योगेश्वर दोनो है वह सांसारिक भी है औऱ योगी भी। कृष्ण हर उस व्यक्ति के लिए आदर्श प्रतीक है, जो अपनी क्षमता को विकसित करना चाहता है।

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