#राजस्थान_के_लोक_देवता #पाबूजी_राठौड़ जिन्होंने आधे फेरे धरती पर और आधे फेरे स्वर्ग में लिए ।
पाबूजी राठौड़ का जन्म वि.स. 1313 को कोलू मढ़ में हुआ था, पिता का नाम धाँधलजी राठौड़ था । देवल चारणी के पास एक केसर कालवी नामक घोड़ी थी । पाबूजी राठौड़ ने उनकें पास से ‘केसर कालवी’ को इस शर्त पर ले आये थे कि जब भी उस पर संकट आएगा वे सब कुछ छोड़कर उसकी रक्षा करने के लिए आयेंगे देवल चारणी ने पाबूजी को बताया कि जब भी मुझ पर व मेरे पशु धन पर संकट आएगा तभी यह घोड़ी हिन् हिनाएगी इसके हिन् हिनाते ही आप मेरे ऊपर संकट समझकर मेरी रक्षा के लिए आ जाना । पाबूजी महाराज ने रक्षा करने का वचन दिया ।
एक बार पाबूजी महाराज अमरकोट के सोढा राणा सूरजमल के यहाँ ठहरे हुए थे सोढ़ी राजकुमारी ने जब उस बांके वीर पाबूजी को देखा तो उसके मन में उनसे शादी करने की इच्छा उत्पन्न हुई तथा अपनी सहेलियों के माध्यम से उसने यह प्रस्ताव अपनी माँ के समक्ष रखा ।
पाबूजी के समक्ष जब यह प्रस्ताव रखा गया तो उन्होंने राजकुमारी को जबाब भेजा कि ‘मेरा सिर तो बिका हुआ है, विधवा बनना है तो विवाह करना । लेकिन उस वीर ललना का प्रत्युतर था ‘जिसके शरीर पर रहने वाला सिर उसका खुद का नहीं ,वह अमर है उसकी पत्नी को विधवा नहीं बनना पड़ता ! विधवा तो उसको बनना पड़ता है जो पति का साथ छोड़ देती है । और पाबूजी राठोड़ व् सोढ़ी राजकुमारी का विवाह तय हो गया । पाबूजी राठोड़ की बारात अमरकोट पहुँची, और विवाह के फेरो के लिए संवरी ( मंडप ) में पहुँचे ।
पाबूजी महाराज ने दो फेरे लिए और जिस समय तीसरा फेरा चल रहा था, ठीक उसी समय केसर कालवी घोड़ी हिन् हिना उठी, चारणी पर संकट आ गया था ।
देवल चारणी ने जींदराव खिंची को केसर कालवी घोड़ी देने से मना कर दिया था ! इसी नाराजगी के कारण उस दिन मौका देखकर जिन्दराव खिंची ने चारणी की गायों को घेर लिया था । संकट के संकेत “घोड़ी की हिन्-हिनाहट” को सुनते ही वीर पाबूजी विवाह के फेरों को बीच में ही छोड़कर गठ्जोड़े को काट कर ! देवल चारणी को दिए वचन की रक्षा के लिए, देवल चारणी के संकट को दूर करने चल पड़े । ब्राह्मण कहता ही रह गया कि अभी तीन ही फेरे हुए है चौथा फेरा अभी बाकी है, पर कर्तव्य मार्ग के उस वीर पाबूजी राठोड़ को तो केवल कर्तव्य की पुकार सुनाई दे रही थी, जिसे सुनकर वह चल दिया । सुहागरात की इंद्र धनुषीय शय्या के लोभ को ठोकर मार कर ।
रंगारंग के मादक अवसर पर निमंत्रण भरे इशारों की उपेक्षा कर, कंकंण डोरों को बिना खोले ही चल दिए । और वो क्रोधित नारदजी के वीणा के तार की तरह झनझनाता हुआ !
भागीरथ के हठ की तरह बल खाता हुआ, उत्तेजित भीष्म की प्रतिज्ञा के समान कठोर होकर केसर कालवी घोड़ी पर सवार होकर वह जिंदराव खिंची से जा भिडे । देवल चरणी की गायें छुडवाकर अपने वचन का पालन किया ! किन्तु पाबूजी महाराज वहाँ पर वीर-गति को प्राप्त हो गये इधर सोढ़ी राजकुमारी भी हाथ में नारियल लेकर अपने स्वर्गस्थ पति के साथ शेष फेरे पूरे करने के लिए अग्नि स्नान करके स्वर्ग पलायन कर गई । !! इण ओसर परणी नहीं , अजको जुंझ्यो आय ! सखी सजावो साजसह,सुरगां परणू जाय !!
देवल माँ भी एक शक्ति थी जिसने अन्याय के विरुद्त लड़ने के लिए पाबूजी को प्रेरित किया था ।
उनके पास जो केसर कालवी घोड़ी थी वो माताजी की जान थी और उसे जिंदराव खिसी के आग्रह करने पर भी माना कर दिया था ।
जिसके कारण वो माताजी से दुश्मनी कर बैठा और बदला लेने के लिए ही गायो को घेरा था ।
और वो ही केसर कालवी घोड़ी पाबूजी राठोड़ द्वारा प्रशंसा करते ही उन्हें सुप्रत कर दी थी ।