सौराठ में वर मेला 1820 में लगना शुरू हुआ. मैथिल ‘वर मेला’ शब्द को पसंद नहीं करते. वे इसे सभागाछी कहते हैं. यह सभागाछी मधुबनी जिला मुख्यालय से 6 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम रहिका प्रखंड में है. बरगद के पेड़ों से भरे बाईस बीघा जमीन वाले सभा क्षेत्र में माधवेश्वरनाथ महादेव मंदिर है. इतिहासकारों के अनुसार इसका निर्माण राजा माधव सिंह ने शुरू कराया था. लेकिन, वह इसे पूरा नहीं करा सके. निर्माणकाल में ही उनकी मृत्यु हो गयी. बाद में उनके पुत्र छत्र सिंह ने मंदिर को पूरा कराने के साथ ही जलाशय का निर्माण करवाया, धर्मशाला भी बनवाया. उस कालखंड में इस वर मेले की बड़ी ख्याति थी. मैथिल ब्राह्मण चाहे देश के किसी कोने में क्यों नहीं रहते हों, उक्त अवधि में संतान की शादी तय करने के लिए यहां खिंचे चले आते थे. लाखों लोग जुटते थे. कहते हैं कि सवा लाख लोगों के जमा हो जाने पर यहां के एक विशेष पीपल वृक्ष के पत्ते कुम्हलाने-मुरझाने लगते थे. सवा लाख से कम संख्या हो जाने पर फिर पूर्ववत हो जाते थे. हालांकि, वह पेड़ अब सूख गया है. पंजीकार विश्वमोहन मिश्र के मुताबिक 1971 में यहां करीब डेढ़ लाख लोग आये थे. 1991 में करीब पचास हजार लोगों का जुटान हुआ था. अब तो संख्या सौ-दो सौ तक भी नहीं पहुंच पाती है. किसी-किसी साल एक भी शादी तय नहीं होती. इसकी वजह भी है. मै पिछले सल भी नहीं हुई थी और इस साल भी नहीं. यह नकारात्मकता कुछ हद तक कोरोना से भी प्रभावित थी. वैसे, इसकी खास वजह भी है. मैथिलों में भी कुल, मूल व गोत्र के महत्व अब गौण पड़ गये हैं. वर का व्यक्तिगत गुण,आचार-विचार व रोजगार प्रधान हो गये हैं. आधुनिकता की बयार है सो अलग. इस साल 27 जून 2021 से 7 जुलाई 2021 तक ग्यारह दिवसीय सौराठ मेला लगा जो औपचारिकताओं में ही सिमटा रहा.
महत्वपूर्ण बात यह भी कि राज्य सरकारके स्तर पर सौराठ सभा को कभी कोई खास महत्व नहीं मिला. नब्बे के दशक के पूर्व की कांग्रेस की सरकार हो या फिर उसके बाद की लालू-राबड़ी एवं नीतीश कुमार की सरकार, किसी ने भी इसकी गरिमा बचाये रखने की पहल नहीं की. सभागाछी में सभावासियों की सुविधा के लिए प्रशासन के स्तर पर कभी-कभार कुछ व्यवस्था जरूर हुई. पेयजल के लिए चापाकल, पंजीकारों की बैठकी, पोखर के किनारे चबूतरा आदि बनवाये गये. लेकिन, समुचित देखरेख के अभाव में सब जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पड़े हैं. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 2009 में घोषणा की थी कि सौराठ सभा की 22 बीघा जमीन पर पुरातत्व विश्वविद्यालय खुलेगा. वहां मिथिला पेंटिंग की पढ़ाई होगी. ये घोषणाएं अभी तक हवा में ही हैं. बहरहाल, सभागाछी का हाल यह है कि उसकी ढेर सारी जमीन अतिक्रमित हो गयी है, आसपास के लोगों द्वारा. कहा जाता है कि अतिक्रमणकारियों में ब्राह्मण समाज के लोग ही अधिक हैं. ऐसे में जब अपनों की सोच ऐसी हो तो सुधार की बात बेमानी लगती है. निरंतरता बनी रहेगी या नहीं, यह भविष्य के गर्भ में है, अस्तित्वविहीनता की ओर बढ़ रही सौराठ सभा की परंपरा को बनाये रखने के लिए कुछ सामाजिक संगठनों से जुड़े लोग आगे आये. पहचान खो रही मिथिलांचल की संस्कृति, रीति-रिवाज, प्रथा एवं परम्परा को बचाने के लिए जागरूकता अभियान चलाया. लेकिन, ये तमाम प्रयास मुकम्मल रूप में तभी कारगर होंगे जब मैथिलों की नयी पीढ़ी अपनी अनूठी संस्कृति की विशेषताओं को जानेगी, समझेगी और सांस्कृतिक धरोहरों की मिट रही पहचान को बनाये रखने के प्रति सजग, सचेत एवं तत्पर होगी. लेकिन, आधुनिकता में आकंठ डूबी यह पीढ़ी ऐसा कुछ करेगी, दूर-दूर तक इसकी कोई संभावना नहीं दिखती. इसलिए कि सभागाछी में पारम्परिक पोशाक धोती-कुत्र्ता, चादर एवं सिर पर पाग धारण कर ललाट पर चंदन-टीका लगा चादर बिछा कर बैठे वर का दर्शन शायद ही कभी होता है. जरूरत परंपरा और आधुनिकता में समन्वय स्थापित कर जन चेतना जागृत करने की है.