Category Archives: ऐतिहासिक

800 साल पुराना भगवान शिव का यह मंदिर, जानिए इसके रहस्मय चमत्कार…

DESK : पुरानी दिल्ली के चांदनी चौक स्थित श्री गौरी-शंकर मंदिर जहां श्रद्घालुओं की आस्था का केंद्र है, वहीं इतिहास के स्वर्णिम पन्नों में भी इसका अनूठा रहस्य मिलता है। यहां भगवान शिव का अर्द्घनारीश्वर रूप मिलता है।

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मान्यता है कि यहाँ मंदिर करीब 800 साल पुराना है। वर्ष 1761 में मराठा सैनिक आपा गंगाधर ने इस मंदिर के भवन का निर्माण कराया। इसके बाद इनके नाम का जिक्र आज भी मंदिर की छत पर मौजूद पिरामिड के निचले हिस्से में देखने को मिलता है।साल 1909 से मंदिर की देखभाल करने वाली प्रबंध समिति के अनुसार पांच पीपल के पेड़ के मध्य विराजे भगवान भोलेनाथ भक्तों की हर मुराद को पूरा करते हैं। मंदिर में भगवान शिव के अलावा मां पार्वती, गणेश और कार्तिकेय महाराज की प्रतिमाएं विराजमान हैं।

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मराठा सैनिक आपा गंगाधर के बाद मंदिर का पुनर्निर्माण सेठ जयपुरा ने 1959 में कराया था। बताया जाता है कि मराठा सैनिक युद्ध में घायल होकर इस मंदिर में पहुंचे थे। यहां उन्होंने भगवान भोलेनाथ की प्रार्थना की थी।

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मंदिर से जुड़े जानकारों का दावा है कि भारत के इतिहास में शैव संप्रदाय की काफी भूमिका है। ये मंदिर उसी संप्रदाय का प्रतीक है। मंदिर में पांच पीपल के पेड़ों के बीच मौजूद शिवलिंग सैकड़ों वर्ष पहले से मौजूद है, जिसके ऊपर रखे एक चांदी के बर्तन से जल की बूंद अभिषेक कर रही है।तो वही श्रावण मास में कांवड़ियों को भोलेनाथ के साथ उनके पूरे परिवार के पूजन का सौभाग्य लोगो मिलता है।

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गौरी और शिव की पूजा-अर्चना के लिए यहां सुबह 5 बजे से ही भक्तों की लंबी कतारें लगी होती हैं। सोमवार को भी यहां सुबह 5 बजे से शिवलिंग और गौरी शंकर का पूजन शुरू हो जाएगा। पूरे श्रावण मास यहां भक्तों की हजारों की तादाद में भीड़ देखने को मिलती है। ये पुरानी दिल्ली के सबसे चर्चित और प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है।

बिना नींव के खड़ा है, शिव जी का ये अद्भुत मंदिर,जिसकी ऊँचाई 200 फुट से भी अधिक : जानिए रोचक तथ्य

DESK : तमिलनाडु के तंजावुर में स्थित बृहदेश्वर मंदिर अपने आप में एक अद्भुत और रहस्यमयी संरचना है। चोल साम्राज्य के ‘द ग्रेट लिविंग टेंपल्स’ में से एक भगवान शिव को समर्पित बृहदीश्वर मंदिर को महान चोल शासक राजराज चोल प्रथम ने बनवाया था। इसे पेरिया कोविल, राजराजेश्वर मंदिर या राजराजेश्वरम के नाम से भी जाना जाता है। द्रविड़ वास्तुकला का बेहतरीन उदाहरण है बृहदीश्वर मंदिर जो कि भारत के कुछ विशाल मंदिरों में से एक है।

कांचीपुरम स्थित पल्लव राजसिम्हा मंदिर को देखकर राजराज चोल के मन में भगवान शिव के लिए एक विशालकाय मंदिर के निर्माण की इच्छा जागृत हुई। इसके बाद सम्राट ने सन् 1002 में इस मंदिर की नींव रखी गई। आश्चर्य की बात है कि आज से हजारों साल पहले इतना विशाल मंदिर मात्र 5-6 सालों में बनकर तैयार हो गया था। मंदिर में उत्कीर्णित लेखों से यह प्रमाण मिलता है कि राजराज चोल ने अपने जीवन के 19वें साल (सन् 1004) में इस मंदिर का निर्माण शुरू करवाया और सम्राट के 25वें साल (सन् 1010) के 275वें दिन इस मंदिर का निर्माण समाप्त हुआ।

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वैसे तो भारत के सभी मंदिरों की वास्तुकला अपने आप में सर्वश्रेष्ठ है। लेकिन बृहदीश्वर मंदिर की वास्तुकला न केवल विज्ञान और ज्यामिति के नियमों का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है, बल्कि इसकी संरचना कई रहस्य भी उत्पन्न करती है। मंदिर का निर्माण द्रविड़ वास्तुशैली के आधार पर हुआ है।

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इस मंदिर के निर्माण में ‘ग्रेनाइट’ के चौकोर पत्थर के ब्लॉक्स को (आकार में घटते क्रम में) एक-दूसरे के ऊपर इस प्रकार जमाया गया कि वो आपस में फँसे रहें। इसे साधारण भाषा में ‘पजल टेक्निक (Puzzle Technique) कहा गया। मंदिर का मुख्य भाग (जो श्रीविमान कहलाता है) लगभग 216 फुट (66 मीटर) ऊँचा है। इसका मतलब हुआ कि पत्थर के ब्लॉक 216 फुट तक जमाए गए। ध्यान रखें कि यह सभी पत्थर मात्र एक-दूसरे के ऊपर रखे गए हैं न कि इन्हें किसी सीमेंट जैसे पदार्थ से (जैसा कि आजकल होता है) आपस में जोड़ा गया है। बृहदीश्वर मंदिर की सबसे खास बात यह है कि इसे बिना नींव के बनाया गया है।

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बृहदीश्वर मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। मंदिर के गर्भगृह में शिवलिंग स्थापित है जो 8.7 मीटर ऊँचा है। इसके अलावा मंदिर में गणेश, सूर्य, दुर्गा, हरिहर, भगवान शिव के अर्धनारीश्वर स्वरूप और अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियाँ हैं।

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मंदिर में श्रीविमान के अलावा अर्धमंडप, मुखमंडप, महामंडप और नंदीमंडप है। मंदिर परिसर में दो गोपुरम भी हैं। नंदीमंडप में भगवान शिव की सवारी नंदी की प्रतिमा है। इस प्रतिमा की खास बात यह है इसे भी एक ही पत्थर से बनाया गया है और यह लगभग 25 टन वजनी है।

इस मंदिर से जुड़े कुछ रोचक तथ्य भी हैं। पहली बात तो यह है कि मंदिर के 50 किमी के दायरे में भी ग्रेनाइट उपलब्ध नहीं है तो इतनी मात्रा में ग्रेनाइट जहाँ से भी लाया गया होगा, निश्चित रूप से उस प्रक्रिया में खर्च हुई मेहनत और लागत की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।

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बृहदीश्वर मंदिर के श्रीविमान के ऊपर स्थित ‘कुंभम्’ किसी आश्चर्य से कम नहीं है। आश्चर्य इसलिए कि कुंभम् भी एक ही पत्थर से निर्मित है और उसका वजन है 81 टन अर्थात 81,000 किग्रा। अंदाजा लगाइए कि इतना वजनी पत्थर लगभग 200 फुट की ऊँचाई तक पहुँचा कैसे?

इसके लिए भी एक 6 किमी लंबा ‘रैम्प’ (जैसा कि नीचे फोटो में दिखाया गया है) बनाया गया था जिसकी सहायता से हजारों हाथी और घोड़ों ने कुंभम् को श्रीविमान के ऊपर स्थापित किया था। इस कुंभम् के ऊपर भी एक स्वर्ण कलश स्थापित किया गया है।

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तंजावुर स्थित बृहदीश्वर मंदिर तक पहुँचना बड़ा ही आसान है। सबसे नजदीकी हवाई अड्डा तिरुचिरापल्ली है, जो मंदिर से लगभग 60 किमी की दूरी पर है। इसके अलावा ट्रेन से पहुँचना सबसे आसान है, क्योंकि तंजावुर रेलवे स्टेशन से बृहदीश्वर मंदिर की दूरी मात्र 1.9 किमी है। तंजावुर में दो बस स्टैन्ड हैं- एक पुराना और एक नया। पुराने बस स्टैन्ड से मंदिर की दूरी 1 किमी है और नए बस स्टैन्ड से लगभग 5 किमी। त्रिची के सेंट्रल बस स्टैन्ड से भी बृहदीश्वर मंदिर जा सकते हैं, जिसकी दूरी मंदिर से लगभग 60 किमी है।

BSF ने नाकाम की पाकिस्तान की साजिश, सीमा में घुस रहे… फायरिंग कर खदेड़ा…

desk : पाकिस्तान अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहा है और भारत विरोधी गतिविधियों को जारी रखे हुए है। इसके चलते पाकिस्तान ड्रोन की तरफ से हथियार और नशीले पदार्थ भारत भेज रहा है। बीती रात भी जिला गुरदासपुर के दोरांगला इलाके में पाकिस्तान की तरफ से ड्रोन भेजा गया।

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शुक्रवार और शनिवार की रात को पाकिस्तान ड्रोन लगभग 400 मीटर तक भारतीय इलाके में दाखिल हो गया। ड्रोन की आवाज सुनते ही सरहद पर तैनात बी.एस.एफ. के जवानों की तरफ से पांच राउंड फायरिंग की गई, जिसके साथ ड्रोन वापस भाग गया। आज सुबह सीमा सुरक्षा बल और पुलिस के जवानों की तरफ से सर्च अभियान चलाया गया है, जिस दौरान अभी तक कोई संदिग्ध चीज बरामद नहीं हुई।

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समर्पण और निष्ठा के साथ देश की सेवा करने वाले प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद,13 वर्ष की उम्र में विवाह के बाद देश की सेवा में उतरे…

डॉ राजेन्द्र प्रसाद : भारत के प्रथम राष्ट्रपति एवं महान भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थे।जिनका जन्म 3 दिसम्बर 1884 को बिहार के तत्कालीन सारण जिले (अब सीवान) के जीरादेई नामक गाँव में हुआ था। उनके पिता महादेव सहाय संस्कृत एवं फारसी के विद्वान थे एवं उनकी माता कमलेश्वरी देवी एक धर्मपरायण महिला थीं

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डॉ राजेन्द्र प्रसाद की शिक्षा दीक्षा
पाँच वर्ष की उम्र में ही राजेन्द्र बाबू ने एक मौलवी साहब से फारसी में शिक्षा शुरू किया। उसके बाद वे अपनी प्रारंभिक शिक्षा के लिए छपरा के जिला स्कूल गए। वहीं 18 वर्ष की उम्र में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा दी। प्रवेश परीक्षा में उन्हें प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था। सन् 1902 में उन्होंने कोलकाता के प्रसिद्ध प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। उनकी प्रतिभा ने गोपाल कृष्ण गोखले तथा बिहार-विभूति अनुग्रह नारायण सिन्हा जैसे विद्वानों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। 1915 में उन्होंने स्वर्ण पद के साथ विधि परास्नातक (एलएलएम) की परीक्षा पास की और बाद में लॉ के क्षेत्र में ही उन्होंने डॉक्ट्रेट की उपाधि भी हासिल की। राजेन्द्र बाबू कानून की अपनी पढाई का अभ्यास भागलपुर, बिहार में किया करते थे।

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राजेन्द्र बाबू का विवाह
डॉ राजेन्द्र प्रसाद का उस समय की परिपाटी के अनुसार बाल्यकाल में ही, लगभग 13 वर्ष की उम्र में, राजवंशी देवी से हो गया। विवाह के बाद भी उन्होंने अपनी पढाई जारी रखी उनका वैवाहिक जीवन बहुत सुखी रहा और उससे उनके अध्ययन अथवा अन्य कार्यों में कोई रुकावट नहीं पड़ी।

स्वतंत्रता सेनानी के रूप में
स्वतंत्रता सेनानी के रूप में डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने अपना कैरियर एक पदार्पण वक़ील के रूप शुरुआत किया। वह गान्धीजी के साथ एक तथ्य अन्वेषण समूह भेजे जाते थे साथ ही वह ‘सर्चलाईट’ और ‘देश’ जैसी पत्रिकाओं में बहुत से लेख लिखे थे और इन अखबारों के लिए अक्सर वे धन जुटाने का काम भी करते थे।

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राष्ट्रीय कांग्रेस का सफर
नेताजी सुभाषचंद्र बोस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने पर कांग्रेस अध्यक्ष का पदभार उन्होंने एक बार पुन: 1939 में सँभाला था।1934 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मुंबई अधिवेशन में अध्यक्ष चुने गये थे। वे भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के प्रमुख नेताओं में से थे और उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में प्रमुख भूमिका निभाई। उन्होंने भारतीय संविधान के निर्माण में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया था। राष्ट्रपति होने के अतिरिक्त उन्होंने भारत के पहले मंत्रिमंडल में 1946 एवं 1947 मेें कृषि और खाद्यमंत्री का दायित्व भी निभाया था। सम्मान से उन्हें प्रायः ‘राजेन्द्र बाबू’ कहकर पुकारा जाता है।

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भारतीय संविधान ने योगदान
भारत के स्वतन्त्र होने के बाद संविधान लागू होने पर उन्होंने देश के पहले राष्ट्रपति का पदभार सँभाला। राष्ट्रपति के तौर पर उन्होंने कभी भी अपने संवैधानिक अधिकारों में प्रधानमंत्री या कांग्रेस को दखलअंदाजी का मौका नहीं दिया और हमेशा स्वतन्त्र रूप से कार्य करते रहे.12 वर्षों तक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करने के पश्चात उन्होंने 1962 में अपने अवकाश की घोषणा की।

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भारत रत्न
सन 1962 में अवकाश प्राप्त करने पर राष्ट्र ने उन्हें भारत रत्‍न की सर्वश्रेष्ठ उपाधि से सम्मानित किया। यह उस भूमिपुत्र के लिये कृतज्ञता का प्रतीक था जिसने अपनी आत्मा की आवाज़ सुनकर आधी शताब्दी तक अपनी मातृभूमि की सेवा की थी।

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निधन
अपने जीवन के आख़िरी महीने बिताने के लिये उन्होंने पटना के निकट सदाकत आश्रम चुना। यहाँ पर 28 फ़रवरी 1963 में उनके जीवन की कहानी समाप्त हुई। यह कहानी थी श्रेष्ठ भारतीय मूल्यों और परम्परा की चट्टान सदृश्य आदर्शों की। हम सभी को इन पर गर्व है और ये सदा राष्ट्र को प्रेरणा देते रहेंगे। राजेन्द्र बाबू की वेशभूषा बड़ी सरल थी। उनके चेहरे मोहरे को देखकर पता ही नहीं लगता था कि वे इतने प्रतिभासम्पन्न और उच्च व्यक्तित्ववाले सज्जन हैं। देखने में वे सामान्य किसान जैसे लगते थे।

जब पहली बार आज़ाद हिंदुस्तान में पूर्व राजा-महाराजाओं को मिलने वाले वित्तीय लाभ,1971 में संविधान में संशोधन करके इसे बंद करवा दिया गया था.कांग्रेस के दो-फाड़ के बाद इंदिरा सर्वेसर्वा हो गयीं

जन्मदिवस पर विशेष
जब राजाओं का प्रिवी पर्स बंद करके इंदिरा गांधी ने प्रजा को अपनी तरफ कर लिया था. 1970 में इंदिरा गांधी की समाजवादी सोच से उपजे इस फैसले ने राजा और प्रजा के बीच अंतर कम कर दिया था. आज हम ज़िक्र कर रहे हैं साल 1970 का. वह साल जब पहली बार आज़ाद हिंदुस्तान में पूर्व राजा-महाराजाओं को मिलने वाले वित्तीय लाभ, जिन्हें अंग्रेजी में ‘प्रिवी पर्सेस’ कहते हैं, पर संसद में बहस हुई थी और अंततः 1971 में संविधान में संशोधन करके इसे बंद करवा दिया गया था. आजादी के पहले हिंदुस्तान में लगभग 500 से ऊपर छोटी बड़ी रियासतें थीं. ये सभी संधि द्वारा ब्रिटिश हिंदुस्तान की सरकार के अधीन थीं. इन रियासतों के रक्षा और विदेश मामले ब्रिटिश सरकार देखती थी. इन रियासतों में पड़ने वाला कुल इलाका भारतीय उपमहाद्वीप के क्षेत्रफ़ल का तिहाई था. देश की 28 फीसदी आबादी इनमें रहती थी. इनके शासकों को क्षेत्रीय-स्वायत्तता प्राप्त थी. जिसकी जितनी हैसियत, उसको उतना भत्ता ब्रिटिश सरकार देती थी. यानी, ये नाममात्र के राजा थे, इनके राज्यों की सत्ता अंग्रेज सरकार के अाधीन थी, इनको बस बंधी-बंधाई रकम मिल जाती थी.

आगे, इंडिया इंडिपेंडेंस एक्ट, 1935 के तहत जब देश आज़ाद हुआ तो लार्ड माउंटबेटन ने इन रियासतों का हिंदुस्तान या पाकिस्तान में विलय करने का सुझाव दिया, जिसे अधिकतर राजाओं ने कुछ शर्तों के साथ स्वीकार कर लिया. बाद में सरकार ने उन तमाम शर्तों को ख़ारिज कर दिया, बस ‘प्रिवी पर्स’ को जारी रखा. इसके तहत उनका ख़ज़ाना, महल और किले उनके ही अधिकार में रह गए थे. यही नहीं, उन्हें केंद्रीय कर और आयात शुल्क भी नहीं देना पड़ता था. यानी, अब ये कर (टैक्स) ले तो नहीं पाते थे पर न देने की छूट भी मिली हुई थी. कुल मिलाकर, इनकी शान-ओ-शौक़त बरकरार थी. इंदिरा गांधी समाजवाद की तरफ़ झुक गई थीं. इसमें कुछ तो उनके सलाहकारों की भूमिका थी और कुछ उनकी अपनी सोच की. इंदिरा के सलाहकार पीएन हक्सर का मानना था कि जिस देश में इतनी ग़रीबी हो वहां राजाओं को मिलने वाली ये सुविधाएं तर्कसंगत नहीं लगतीं. लोगों को उनके विचार सही लगे. लगने भी थे क्योंकि जनता को कभी राजशाही मंजूर नहीं थी.

‘प्रिवी पर्स’ को बंद करने की शुरुआत 1967 में हो गयी थी. तब गृह मंत्री वाईबी चव्हाण को पूर्व राजाओं से इस विषय में बातचीत कर आम राय बनाने का ज़िम्मा दिया गया था. ध्रांगधरा के पूर्व महाराजा सर मयूरध्वजसिंह जी मेघराज जी (तीसरे) बाकी राजाओं की तरफ से बातचीत कर रहे थे. दोनों के बीच कई बैठकें हुईं पर कोई नतीजा नहीं निकला. आख़िर इतनी आसानी मानने वाला था? कहां जाता है कि तब इंदिरा गांधी पार्टी के भीतर अपने वर्चस्व की लडाई लड़ रही थीं, इसलिए उन्होंने इस मुद्दे पर कोई तुरंत कार्रवाई नहीं की. ज़ाहिर है एक साथ सारे मोर्चों पर लड़ना समझदारी नहीं होती. कांग्रेस के दो-फाड़ के बाद इंदिरा सर्वेसर्वा हो गयीं. उनके पास पार्टी का आंख मूंद समर्थन था. वीवी गिरी उनकी कृपा से राष्ट्रपति बन चुके थे. उन्होंने इस लड़ाई का मोर्चा खोल दिया. सरकार और राजाओं के बीच भयंकर तनातनी हो गयी. कोई नतीजा निकलता न देख, जामनगर (गुजरात) के राजा ने एक नया प्रस्ताव दे दिया.

जामनगर के राजा को जनता आज भी ‘जामसाहेब’ कहकर बुलाती है. उन्होंने, दिल्ली सरकार को पत्र लिखकर दोनों पक्षों की जिद पर अड़े रहने की आलोचना की और लिखा कि सरकार अगर ‘प्रिवी पर्स’ बंद करना चाहती है, तो बेशक करे. इसके बदले सभी राजाओं को एकमुश्त 25 साल के ‘प्रिवी पर्स’ बराबर तय राशि दे दी जाए. इसमें 25 फीसदी अभी नकद मिले और 25 फीसदी सरकारी प्रतिभूतियों (बांड्स) की शक्ल में जिन्हें 25 साल बाद नकद में बदला जा सके, और बचा 50 फीसदी पैसा तो उसे राजाओं द्वारा संचालित पब्लिक चैरिटी ट्रस्टों में दे दिया जाए. शर्त यह रहे कि वे सभी ट्रस्ट, इस राशि का इस्तेमाल राज्यों में खेल, पिछड़ी जातियों में शिक्षा के प्रसार और ख़त्म होते वन्य जीवन के संरक्षण में करें. कॉरपोरेट जगत में इसे ‘गोल्डन शेकहैंड’ कहते हैं.
जब यह चिट्ठी इंदिरा गांधी को मिली, तो उन्होंने वाईबी चव्हाण को इस पर ‘रचनात्मक कार्यों में छिपी असली मंशा’ नोट लिखकर भेज दिया. लिहाज़ा, चव्हाण ने कोई कदम नहीं उठाया. बात जस की तस रही और उन्होंने संसद में ‘प्रिवी पर्स’ ख़त्म करने के बाबत संवैधानिक संशोधन करने के लिए बिल पेश कर दिया.

लोक सभा में तो इसे बहुमत से पारित कर दिया गया पर राज्यसभा में यह बिल एक वोट से गिर गया. इसके बाद राष्ट्रपति वीवी गिरी सरकार की सहायता को आगे आये और उनके आदेशानुसार सभी राजाओं और महाराजों की मान्यता रद्द कर दी गयी. राजा और प्रजा का अंतर कम हो गया. सब के सब राजा-महाराजा कोर्ट पहुंच गए. सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति के आदेश पर रोक लगा दी. यह इंदिरा गांधी की सत्ता को दूसरी चुनौती थी. इसके पहले बैंकों के राष्ट्रीयकरण पर भी कोर्ट और सरकार आमने-सामने हो गए थे.
जनता की भावना इस मुद्दे पर कांग्रेस के साथ थी. हवा इंदिरा गांधी के अनुकूल थी. उन्होंने सरकार भंग करके चुनावों की घोषणा कर दी. इंदिरा भारी बहुमत से चुनाव जीतकर सत्ता में लौटीं और फिर संविधान में 26 वां संशोधन करके ‘प्रिवी पर्स’ को हमेशा के लिए बंद कर दिया.https://www.facebook.com/photo?fbid=289849183150664&set=pcb.289849246483991

इतिहास के पन्नों से (आज रानी लक्ष्मीबाई का जन्म दिवस है) –

इतिहास के पन्नों से (आज रानी लक्ष्मीबाई का जन्म दिवस है) –
वर्ष 1857 में अंग्रेज़ साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ बग़ावत का बिगुल बजाने वालों में झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाता है. अब रानी लक्ष्मी बाई का एक पत्र मिला है जिसमें उस दिन की परिस्थितियाँ बयान की गई हैं जब दामोदर राव को गोद लिया गया था. हालाँकि रानी लक्ष्मी बाई ने 1851 में एक पुत्र को जन्म दिया था लेकिन कुछ ही महीने बाद उसका देहांत हो गया था जिससे राजा गंगाधर राव की रिसायत को हड़पे जाने के बादल मंडराने लगे थे. इस पत्र से पता चलता है कि रानी लक्ष्मी बाई ने भरपूर सफ़ाई देने की कोशिश की थी कि अंग्रेज़ संधियों में दत्तक पुत्र को मान्यता दी गई थी और भारतीय प्रथाओं और शास्त्रों के अनुसार दत्तक पुत्र को भी वास्तविक पुत्र के समान ही दर्जा हासिल है, जिस तरह से पुत्र पिता को अंतिम समय में जल पिलाता है, उसी तरह दत्तक पुत्र भी जल पिला सकता है.

रानी लक्ष्मी बाई ने इस पत्र में यह दलील दी थी कि उनके पति राजा गंगाधर राव ने अंतिम साँस लेने से पहले आनंद राव नामक एक लड़के को गोद लेने की रस्म पूरी कर ली थी और उस लड़के को दामोदर राव गंगाधर नाम दिया गया. रानी लक्ष्मी बाई का यह पत्र लार्ड डलहौज़ी की हड़प नीति के संदर्भ में बहुत महत्वपूर्ण है. रानी लक्ष्मी बाई का यह पत्र ब्रिटिश संग्रहालय में पाया गया है. इसे खोजने वाली हैं लंदन के मशहूर विक्टोरिया ऐंड एलबर्ट म्यूज़ियम में रिसर्च क्यूरेटर दीपिका अहलावत जो भारतीय कला और संस्कृति पर शोध से जुड़ी हुई हैं. दीपिका अहलावत बताती हैं कि वो तो अपने शोध के सिलसिले में ब्रिटिश लाइब्रेरी में कुछ खोज रही थीं कि अचानक रानी लक्ष्मी बाई की ये चिट्ठी हाथ लग गई. फिर तो भारी प्रयास करके इस चिट्ठी को हासिल किया गया और इसे विक्टोरिया ऐंड एलबर्ट म्यूज़ियम में महाराजा नामक प्रदर्शनी में प्रदर्शित भी किया गया है. रानी लक्ष्मी बाई की यह चिट्ठी फ़ारसी और उर्दू में मिश्रित रूप से लिखी हुई है. साथ ही कुछ अन्य भाषाओं के शब्द भी इस्तेमाल किए गए हैं

दीपिका अहलावत ने इस चिट्ठी का अनुवाद अंग्रेज़ी में करने की कोशिश की जिसमें उनकी मदद की फ़रीबा थॉम्पसन ने. चिट्ठी का हिंदी रूपांतरण हमने यहाँ पेश करने की कोशिश की है…”अंग्रेज़ सरकार, जो राव राम चंद और उनके उत्तराधिकारियों की झाँसी सरकार का स्थायित्व बनाए रखना चाहती है, जो सरकार विधाता के आशीर्वाद से अस्तित्व में है, वो इस बात पर सहमत है कि कुलीन लोगों का नाम और रिसायत बरक़रार रखा जाए. इसीलिए जैसाकि पहले भी कहा जा चुका है, संधि के अंतर्गत किसी रियासत के अस्तित्व और निरंतरता की व्यवस्था की गई थी. वो व्यवस्था ये है कि अगर किसी शासक का कोई पुत्र ना हो तो दत्तक पुत्र उत्तराधिकारी माना जाएगा, और भारत में ये एक प्रथा भी है कि अगर कोई पुत्र नहीं होता है तो दत्तक पुत्र भी अंतिम समय में जल पिला सकता है, उसका यह कार्य रक्त पुत्र की ही तरह समझा जाएगा, ऐसा ही शास्त्रों में भी लिखा है.

इसलिए शिवराम ने 19 नवंबर 1853 को रात के समय दीवान लाहौरी मल… और लाला फ़तेह चंद नामक अधिकारियों को तलब किया और कहा कि बीमारी में किसी की भी दी हुई दवा कोई असर नहीं दिखा रही है. इसलिए उनका नाम और रियासत बरक़रार रहे, इसलिए शास्त्री से कहा जाए कि वह वे राजा के गोत्र से ही एक ऐसा लड़का तलाश करें जो गोद लेने के लिए उपयुक्त हो. आदेशानुसार राम चंदर बाबा साहिब शास्त्री को भी बुलाया गया. साथ ही गोत्र के कुछ लड़के भी बुलाए गए जिनमें बासु देव का पुत्र आनंद राव भी और उसे गोद लेने के लिए उपयुक्त होने पर सहमति बनी. शिवराम ने गोद लेने की रस्म पूरी करने के लिए शास्त्री को आदेश दिया और सुबह की बेला में पुरोहित राव ने मंत्रोच्चारण करके रस्म पूरी की. आनंद राव के पिता बासुदेव ने शिवराम के हाथों पर जल छिड़का और शास्त्रों के अनुसार अन्य रस्में पूरी कीं और गोद लिए गए बच्चे का नाम दामोदर राव गंगाधर रखा.”
किन्तु इस पत्र का कोई प्रभाव नहीं पड़ा और झांसी को अंग्रेज़ों ने हस्तगत कर लिया और इसके बाद जो हुआ वो एक इतिहास है. रानी लक्ष्मीबाई के अदम्य शौर्य को सबने देखा.https://www.facebook.com/photo/?fbid=289855746483341&set=a.151259460342971
साभार – बीबीसी हिंदी

कवियत्री सुभद्रा चौहान लिखती हैं, सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी, बूढे भारत में भी आई फिर से नई जवानी थी.

1857 के क्रांति और वीरांगना लक्ष्मी बाई की बात करते हुए कवियत्री सुभद्रा चौहान लिखती हैं, सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी, बूढे भारत में भी आई फिर से नई जवानी थी. कवियों के मतानुसार, सुभद्रा कुमारी चौहान यहां पर बूढ़े भारत कहकर अंतिम मुगलिया सम्राट बहादुर शाह जफर की ओर इशारा कर रही हैं. क्योंकि वह अशक्त हो चले थे, लेकिन क्रांतिकारियों के कहने पर अंग्रेजों के विरुद्ध ललकार भरी थी. भले ही इतिहास क्रांति का केंद्र बहादुर शाह जफर को माने, लेकिन दिल्ली से बहुत दूर, गंगा नदी के तट पर गंगापुत्र भीष्म के ही समान एक और बूढ़ा अंग्रेजों की ओर नंगी तलवार लेकर दौड़ पड़ा था. घावों से भरे शरीर वाला वह 80 वर्षीय राजपूत जब जंगलों में युद्ध करता तो ऐसा लगता कि साक्षात भैरव ने तांडव मचा दिया है. वीर कुंवर सिंह का जन्म 13 नवंबर 1777 को बिहार के भोजपुर जिले के जगदीशपुर गांव में हुआ था. इनके पिता बाबू साहबजादा सिंह प्रसिद्ध शासक भोज के वंशजों में से थे. उनकी मां पंचरत्न कुंवर थीं. उनके छोटे भाई अमर सिंह, दयालु सिंह और राजपति सिंह एवं इसी खानदान के बाबू उदवंत सिंह, उमराव सिंह तथा गजराज सिंह नामी जागीरदार रहे. बिहार का यह राजपूताना परिवार लंबे समय से अपनी स्वतंत्रता बचाकर रखा हुआ था. दादा-पिता भाई के बाद वीर कुंवर सिंह के हाथों जगदीशपुर रियासत की रक्षा थी.

1857 में जब मेरठ, कानपुर, लखनऊ, इलाहाबाद, झांसी और दिल्ली में भी आग भड़क उठी थी. इस हाल में वीर कुंवर सिंह ने अपने सेनापति मैकु सिंह एवं भारतीय सैनिकों का नेतृत्व किया. वह युद्ध करते हुए आगे बढ़ रहे थे और रास्तें में अंग्रेज सैनिकों सिर बिछाते चल रहे थे. 27 अप्रैल, 1857 को दानापुर के सिपाहियों और अन्य साथियों के साथ उन्होंने आरा पर कब्जा जमा लिया. इसके बाद अंग्रेजों की कई कोशिशों के बाद भी भोजपुर लंबे समय तक स्वतंत्र रहा. अंग्रेजी फौज आरा पर हमले के लिए आगे बढ़ी तो बीबीगंज और बिहियां के जंगलों में घमासान लड़ाई हुई. कुंवर सिंह भी छापामार युद्ध में प्रवीण थे. अंग्रेजों को यहां भी मुंह की खानी पड़ी और कुंअर सिंह जगदीशपुर की ओर बढ़ गए. लेकिन अंग्रेजों ने आरा पर आखिर कब्जा कर ही लिया. अब उन्होंने जगदीशपुर पर आक्रमण कर दिया. कुंअर सिंह को वहां से निकलना पड़ा. अंग्रेस सैनिक लगातार उनके पीछे थे. इस तरह वे बांदी, रीवा, आजमगढ़, बनारस, बलिया, गाजीपुर, गोरखपुर में अंग्रेजों को धूल चटाते रहे. भोजपुर और यूपी की सीमा पर पहुंचकर एक रोज वह गंगा पार कर रहे थे, इसी दौरान अंग्रेजों की गोली उनकी बांह में लग गई. कुंअर सिंह ने तुरंत अपना हाथ काटकर गंगा में समर्पित कर दिया.

80 साल का यह बूढ़ा भैरव इच्छामृत्यु पाए भीष्म पितामह की तरह लड़ता रहा. कु्ंअर सिंह ने एक बार फिर हिम्मत जुटाई और जगदीशपुर स्थिति अपने किले को एक बार फिर अंग्रेजों से मुक्त करा लिया. रणबांकुरे ने जगदीशपुर किले से अंग्रेजों का ‘यूनियन जैक नाम का झंडा उतार कर ही दम लिया. 26 अप्रैल 1858 को कुंअर सिंह इस धरा विदा हुए. उनके रणकौशल को शत-शत नमन.
सुनने में आया है कि आरा-पटना निर्माणाधीन फोर लेन सड़क से पटना से आरा जाते समय कायमनगर के नदी के किनारे बाबू वीर कुंवर की 30 फीट की ऊंची कांसे की चमकती तलवार का निर्माण किया गया है जिसे कायम नगर बजार मे निर्माणाधीन विजय संतभ पर लगाया जाएगा.https://www.facebook.com/photo?fbid=283722617096654&set=pcb.283722657096650
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भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नायकों में से नेता लाला लाजपत राय का जीवन आज भी युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है.

पुण्यतिथि पर विशेष –
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नायकों में से एक और लाल, बाल, पाल की तिकड़ी के मशहूर नेता लाला लाजपत राय का जीवन आज भी युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है. उन्होंने न सिर्फ आजादी की लड़ाई के दौरान नेतृत्व किया बल्कि अपने जीवन उदाहरणों से उस आदर्श को स्थापित करने में सफलता पाई, जिसकी कल्पना एक आदर्श राजनेता में की जाती है. लाला लाजपत राय का जन्म 28 जनवरी, 1865 को पंजाब के मोगा में एक साधारण परिवार में हुआ था. उनके पिता लाला राधाकृष्ण एक अध्यापक रहे. इसका प्रभाव लाजपत राय पर भी पड़ा. शुरूआती दिनों से ही वे एक मेधावी छात्र रहे और अपनी स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद वकालत की ओर रुख कर लिया. वे एक बेहतरीन वकील बने और कुछ समय तक वकालत भी की, लेकिन जल्दी ही उनका मन इस काम से उचट गया. अंग्रेजों की न्याय व्यवस्था के प्रति उनके मन में रोष पैदा हो गया. उन्होंने उस व्यवस्था को छोड़कर बैंकिंग का रूख किया,उन्होंने अपनी आजीविका चलाने के लिए बैंकिंग का नवाचार किया. उस समय तक भारत में बैंक कोई बहुत अधिक लोकप्रिय नहीं थे, लेकिन उन्होंने इसे चुनौती की तरह लिया और पंजाब नेशनल बैंक तथा लक्ष्मी बीमा कंपनी की स्थापना की. दूसरी तरफ वे लगातार कांग्रेस के माध्यम से अंग्रेजों की खिलाफत करते रहे. अपनी निर्भिकता और गरम स्वभाव के कारण इन्हें पंजाब केसरी के उपाधी से नवाजा गया. बाल गंगाधर तिलक के बाद वे उन शुरूआती नेताओं में से थे, जिन्होंने पूर्ण स्वराज की मांग की. पंजाब में वे सबसे लोकप्रिय नेता बन कर उभरे.
आजादी के प्रखर सेनानी होने के साथ ही लाला जी का झुकाव भारत में तेजी से फैल रहे आर्य समाज आंदोलन की तरफ भी था

इसका परिणाम हुआ कि उन्होंने जल्दी ही महर्षि दयानंद सरस्वती के साथ मिलकर इस आंदोलन का आगे बढ़ाने का काम ​हाथ में ले लिया. आर्य समाज भारतीय हिंदू समाज में फैली कूरीतियों और धार्मिक अंधविश्वासों पर प्रहार करता था और वेदों की ओर लौटने का आवाहन करता था. लाला जी ने उस वक्त लोकप्रिय जनमानस के विरूद्ध खड़े होने का साहस किया. ये उस दौर की बात है जब आर्य समाजियों को धर्मविरोधी समझा जाता ​था, लेकिन लाला जी ने इसकी कतई परवाह नहीं की. जल्दी ही उनके प्रयासों से आर्य समाज पंजाब में लोकप्रिय हो गया. उन्होंने दूसरा और ज्यादा महत्वपूर्ण कार्य भारतीय शिक्षा के क्षेत्र में कि​या. अभी तक भारत में पारम्परिक शिक्षा का ही बोलबाला था​. जिसमें शिक्षा का माध्यम संस्कृत और उर्दू ​थे. ज्यादातर लोग उस शिक्षा से वंचित थे जो यूरोपीय शैली या अंग्रेजी व्यवस्था पर आधारित थी. आर्य समाज ने इस दिशा में दयानंद एंग्लो वैदिक विद्यालयों को प्रारंभ किया, जिसके प्रसार और प्रचार के लिए लाला जी ने हरसंभव प्रयास किए. आगे चलकर पंजाब अपने बेहतरीन डीएवी स्कूल्स के लिए जाना गया. इसमें लाला लाजपत राय का योगदान अविस्मरणीय रहा.

शिक्षा के क्षेत्र में उनकी दूसरी महत्वपूर्ण उपलब्धि लाहौर का डीएवी कॉलेज रहा. उन्होंने इस कॉलेज के तब के भारत के बेहतरीन शिक्षा के केन्द्र में तब्दील कर दिया. यह कॉलेज उन युवाओं के लिए तो वरदान साबित हुआ, जिन्होंने असहयोग आंदोलन के दौरान अंग्रेजों द्वारा संचालित कॉलेजों को धता बता दिया था. डीएवी कॉलेज ने उनमें से अधिकांश की शिक्षा की व्यवस्था कीकेन्द्र में तब्दील कर दिया. यह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ना लाला जी के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी. 1888 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन  केन्द्र में तब्दील कर दिया. यह इलाहाबाद में हुआ और यह पहला अवसर था जब लाला लाजपत राय को इस संगठन से जुड़ने का अवसर मिला. अपने शुरूआती दिनों में ही उन्होंने एक उत्साही कार्यकर्ता के तौर पर कांग्रेस में पहचान बनानी शुरू कर दी. धीरे—धीरे वे कांग्रेस के पंजाब प्रांत के सर्वमान्य प्रतिनिधि मान लिए गए. 1906 में उनको कांग्रेस ने गोपालकृष्ण के साथ गए शिष्टमंडल का सदस्य बनाया. संगठन में उनके बढ़ते कद का यह परिचायक बनी. कांग्रेस में उनके विचारों के कारण उठापटक प्रारंभ हुई. वे बाल गंगाधर तिलक और विपिनचंद्र पाल के अलावा तीसरे नेता थे, जो कांग्रेस को अंग्रेजों की पिछलग्गू संस्था की भूमिका से ऊपर उठाना चाहते थे.

कांग्रेस में अंग्रेज सरकार की खिलाफत की वजह से वे ब्रिटिश सरकार की नजरों में अखरने लग गए. ब्रिटिशर्स चाहते थे कि उन्हें कांग्रेस से अलग कर दिया जाए, लेकिन उनका कद और लोकप्रियता देखते हुए, यह करना आसान नहीं था. 1907 में लाला लाजपत राय के नेतृत्व में किसानों ने अंग्रेज ​सरकार के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया. अंग्रेज सरकार ऐसे ही मौके के तलाश में थी और उन्होंने लालाजी को न सिर्फ गिरफ्तार किया, बल्कि उन्हें देश निकाला देते हुए बर्मा के मांडले जेल में कैद कर दिया गया, लेकिन सरकार का यह दांव उल्टा पड़ गया और लोग सड़कों पर उतर आए. दबाव में अंग्रेज सरकार को फैसला वापस लेना पड़ा और लाला जी एक बार फिर अपने लोगों के बीच वापस आए. 1907 आते—आते लाला जी के विचारों से कांग्रेस का एक धड़ा पूरी तरह असहमत दिखने लगा था. लाला जी को उस गरम दल का हिस्सा माना जाने लगा था, जो अंग्रेज सरकार से लड़कर पूर्ण स्वराज लेना चाहती थी. इस पूर्ण स्वराज को अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम और प्रथम विश्व युद्ध से बल मिला और लाला जी भारत में एनीबेसेंट के साथ होमरूल के मुख्य वक्ता बन कर सामने आए. जलिया वाला बाग कांड ने उनमें अंग्रेज सरकार के खिलाफ और ज्यादा असंतोष भर दिया. इसी बीच कांग्रेस में महात्मा गांधी का प्रादुर्भाव हो चुका था और अंतरराष्ट्रीय पटल पर गांधी स्थापित हो चुके थे. 1920 में गांधी द्वारा चलाए गए असहयोग आंदोलन में उन्होंने बढ़—चढ़ कर हिस्सा लिया. उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन तबियत बिगड़ जाने पर उन्हें रिहा कर दिया गया. इसी बीच उनके संबंध लगातार कांग्रेस से बिगड़ते रहे और 1924 में उन्होंने कांग्रेस छोड़कर स्वराज पार्टी में शामिल हुए और केन्द्रिय असेम्बली के सदस्य चुने गये. यहां भी जल्दी ही उनका मन उचट गया और उन्होंने नेशलिस्ट पार्टी का गठन किया और एक बार फिर असेम्बली का हिस्सा बने.

भारत की आजादी की लड़ाई एक बड़ा वाकया उस वक्त घटित हुआ, जब भारतीयों से बात करने आए साइमन कमीशन का विरोध का फैसला गांधी द्वारा लिया गया. साइमन कमीशन जहां भी गया, वहां साइमन गो बैक के नारे बुलंद हुए. 30 अक्टूबर 1928 को जब कमीशन लाहौर पहुंचा, तो लाला लाजपत राय के नेतृत्व में एक दल शांतिपूर्वक साइमन गो बैक के नारे लगाता हुआ अपना विरोध दर्ज करवा रहा था. तभी अंग्रेज पुलिस ने उन पर लाठीचार्ज कर दिया और एक युवा अंग्रेज अफसर ने लालाजी के सर पर जोरदार प्रहार किया. लाला जी का कथन था— मेरे शरीर पर पड़ी एक—एक लाठी ब्रिटिश साम्राज्य के ताबूत में कील का काम करेगी.
सिर पर लगी हुई चोट ने लाला लाजपत राय का प्राणान्त कर दिया. उनकी मृत्यु से पूरा देश भड़क उठा. इसी क्रोध के परिणामस्वरूप भगतसिंह, शिवराम राजगुरु और सुखदेव ने अंग्रेज पुलिस अधिकारी सांडर्स की हत्या की और फांसी के फंदे से झूल गए. लाला लाजपत राय भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उन सेनानियों में से एक रहे जिन्होंने अपना सबकुछ देश को दे दिया. उनका जीवन ढेर सारे कष्टों और संघर्ष की महागाथा ​है, जिसे आने वाली पीढ़ीया युगों तक कहती— सुनती रहेंगी

क्रांतिकारी भगत सिंह को फांसी हुई पर उसको नहीं हुई. वो आजादी के बाद तक जिंदा रहा. पर देश ने क्या किया उसके साथ?

भारत के एक क्रांतिकारी ने अंग्रेजों के साथ जंग की. भगत सिंह के साथ मिलकर लड़ा. भगत सिंह को फांसी हुई पर उसको नहीं हुई. वो आजादी के बाद तक जिंदा रहा. पर देश ने क्या किया उसके साथ? जो किया वो रोंगटे खड़े करता है.
स्वतंत्रता संग्राम में एक घटना थी जिसने भारतीय इतिहास में वीरता का नया अध्याय लिखा. ये घटना थी दिल्ली की नेशनल असेम्बली में भगत सिंह का बम फेंकना. बम फेंकते वक़्त भगत सिंह ने कहा था: ‘अगर बहरों को सुनाना हो तो आवाज़ ज़ोरदार करनी होगी’. इस घटना में एक और क्रान्तिकारी था जिसने भगत सिंह के साथ ही गिरफ़्तारी दी थी. वो क्रान्तिकारी थे बटुकेश्वर दत्त. भगत सिंह पर कई केस थे. उनको तो फांसी की सजा सुना दी गयी, लेकिन बटुकेश्वर दत्त इतने खुशकिस्मत नहीं थे उनको अभी बहुत कुछ झेलना था. अंग्रेजी सरकार ने उनको उम्रकैद की सज़ा सुना दी और अंडमान-निकोबार की जेल में भेज दिया, जिसे कालापानी की सज़ा भी कहा जाता है .कालापानी की सजा के दौरान ही उन्हें टीबी हो गया था जिससे वे मरते-मरते बचे. जेल में जब उन्हें पता चला कि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी की सज़ा सुनाई गई है तो वो काफी निराश हुए. उनकी निराशा इस बात को लेकर नहीं थी कि उनके तीनों साथी अपनी आखिरी सांसें गिन रहे हैं. उन्हें दुःख था तो सिर्फ इस बात का कि उनको फांसी क्यों नहीं दी गई.

देश आज़ाद होने के बाद बटुकेश्वर दत्त भी रिहा कर दिए गए. लेकिन दत्त को जीते जी भारत ने भुला दिया. इस बात का खुलासा नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित किताब “बटुकेश्वर दत्त, भगत सिंह के सहयोगी” में किया गया है. नवम्बर 1947 में उन्होंने अंजलि नाम की लड़की से शादी की. अब उनके सामने कमाने और घर चलाने की समस्या आ गई. बटुकेश्वर दत्त ने एक सिगरेट कंपनी में एजेंट की नौकरी कर ली. बाद में बिस्कुट बनाने का एक छोटा कारखाना भी खोला, लेकिन नुकसान होने की वजह से इसे बंद कर देना पड़ा.
सोचने में बड़ा अजीब लगता है कि भारत का सबसे बड़ा क्रांतिकारी देश की आजादी के बाद यूं भटक रहा था. भारत में उनकी उपेक्षा का एक किस्सा और है. अनिल वर्मा बताते हैं कि एक बार पटना में बसों के लिए परमिट मिल रहे थे. इसके लिए दत्त ने भी आवेदन किया. परमिट के लिए जब वो पटना के कमिश्नर से मिलने गए तो कमिश्नर ने उनसे स्वतंत्रता सेनानी होने का प्रमाण पत्र लाने को कहा. बटुकेश्वर दत्त के लिए ये दिल तोड़ने वाली बात थी.

बाद में राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद को जब ये पता चला तो कमिश्नर ने बटुकेश्वर दत्त से माफ़ी मांग ली. हालांकि फिर देश में बटुकेश्वर का सम्मान हुआ तो पचास के दशक में उन्हें चार महीने के लिए विधान परिषद् का सदस्य मनोनीत किया गया. पर इससे क्या होने वाला था. राजनीति की चकाचौंध से परे थे वो लोग. अपनी जिंदगी की जद्दोजहद में लगे बटुकेश्वर दत्त 1964 में बीमार पड़ गए. उन्हें गंभीर हालत में पटना के सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया. उनको इस हालत में देखकर उनके मित्र चमनलाल आज़ाद ने एक लेख में लिखाः “क्या दत्त जैसे क्रांतिकारी को भारत में जन्म लेना चाहिए, परमात्मा ने इतने महान शूरवीर को हमारे देश में जन्म देकर भारी गलती की है. खेद की बात है कि जिस व्यक्ति ने देश को स्वतंत्र कराने के लिए प्राणों की बाजी लगा दी और जो फांसी से बाल-बाल बच गया, वह आज नितांत दयनीय स्थिति में अस्पताल में पड़ा एड़ियां रगड़ रहा है और उसे कोई पूछने वाला नहीं है.” अखबारों में इस लेख के छपने के बाद, सत्ता में बैठे लोगों के कानों पर जूं रेंगी. पंजाब सरकार उनकी मदद के लिए सामने आई. बिहार सरकार भी हरकत में आई, लेकिन तब तक बटुकेश्वर की हालत काफी बिगड़ चुकी थी. उन्हें 22 नवंबर 1964 को उन्हें दिल्ली लाया गया.
“मैं सपने में भी नहीं सोच सकता था कि उस दिल्ली में मैंने जहां बम डाला था, वहां एक अपाहिज की तरह स्ट्रेचर पर लादा जाऊंगा.”
पहले उन्हें सफदरजंग अस्पताल में भर्ती किया गया. फिर वहां से एम्स ले जाया गया. जांच में पता चला कि उन्हें कैंसर है और बस कुछ ही दिन उनके पास बचे हैं. बीमारी के वक़्त भी वे अपने साथियों भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को याद करके अक्सर रो पड़ते थे.
फिर जब भगत सिंह की मां विद्यावती जी अस्पताल में दत्त से उनके आखिरी पलों में मिलने आईं तो उन्होंने अपनी अंतिम इच्छा जताते हुए कहा कि उनका दाह संस्कार भी उनके मित्र भगत सिंह की समाधि के बगल में किया जाए. 20 जुलाई 1965 की रात एक बजकर पचास मिनट पर भारत के इस महान सपूत ने दुनिया को अलविदा कह दिया. उनका अंतिम संस्कार उनकी इच्छा के ही अनुसार भारत-पाक सीमा के करीब हुसैनीवाला में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की समाधि के पास किया गया. भगत सिंह की मां तब भी उनके साथ थीं. श्रीमती विरेन्द्र कौर संधू के अनुसार 1968 में जब भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव के समाधि-तीर्थ का उद्घाटन किया गया तो इस 86 वर्षीया वीर मां ने उनकी समाधि पर फूल चढ़ाने से पहले श्री बटुकेश्वर दत्त की समाधि पर फूलों का हार चढ़ाया था. बटुकेश्वर दत्त की यही इच्छा तो थी कि मुझे भगतसिंह से अलग न किया जाए.

आज भारत चीन युद्ध में अपना सर्वोच्च बलिदान देने वाले #परमवीर_चक्र_विजेता_मेजर_शैतान_सिंह_भाटी का शहीद दिवस है

आज भारत चीन युद्ध में अपना सर्वोच्च बलिदान देने वाले #परमवीर_चक्र_विजेता_मेजर_शैतान_सिंह_भाटी का शहीद दिवस है।
जोधपुर में जन्मे मेजर शैतान सिंह को भारत-चीन युद्ध के समय हेडक्वार्टर से आदेश मिला था कि वो चाहे तो अपनी टुकड़ी के साथ लद्दाख के रेजांग ला स्थित पोस्ट छोड़कर पीछे हट जाएं क्योंकि उस पोस्ट पर हमला करने हजारो सैनिको की चीनी बटालियन आ रही थी।अंतिम निर्णय मेजर पर छोड़ दिया गया।

किन्तु मेजर शैतानसिंह ने #कुमायूं_रेजिमेंट के अपने एक सौ बीस सैनिको और मामूली गोला बारूद के साथ वहीँ डटकर मुकाबला करने का निर्णय लिया।और अपने से कई गुना चीनी सैनिको को मारकर आज ही के दिन वीरगति को प्राप्त हुए।उनके टुकड़ी के एक सौ तेईस हरियाणा के वीर अहीर जवानो में से 09 को छोड़कर बाकि सभी शहीद हुए।जिनकी याद में #हरियाणा और #लद्दाख में #स्मारक बने हुए हैं।सर्वोच्च बलिदान के लिए आपको मरणोपरांत #परमवीर_चक्र से सम्मानित किया गया।
अमर शहीद मेजर शैतान सिंह भाटी जी को शत शत नमन।