NDA गठबंधन यानी की मोदी की टीम में जाने के बाद नीतीश कुमार को पहला झटका लगा है. नीतीश बाबू को ये झटका पटना की हाई कोर्ट ने दिया है. दरअसल मामला बिहार में सरकारी नौकरी और Educational Institute में दाखिले पर दिए रहे आरक्षण को लेकर है. पटना हाईकोर्ट ने 65 प्रतिशत आरक्षण को समानता विरोधी बताकर रद्द कर दिया है।
आपको बता दें कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की महागठबंधन सरकार ने जाति आधारित सर्वे की रिपोर्ट के आधार पर ओबीसी, दलित और आदिवासियों का आरक्षण बढ़ाकर 65 परसेंट कर दिया गया था। आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्ण को मिलने वाले 10 प्रतिशत आरक्षण को मिलाकर बिहार में नौकरी और दाखिले का कोटा बढ़कर 75 प्रतिशत पर पहुंच गया था। जिसके बाद कई संगठनों ने हाईकोर्ट में बिहार आरक्षण कानून को चुनौती दी थी। जिस पर सुनवाई के बाद हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस की अगुवाई वाली दो जजों की बेंच ने बिहार आरक्षण कानून को संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 के खिलाफ बताते हुए रद्द कर दिया है।
मुख्यमंत्री नीतीश की पुरानी कैबिनेट ने बिहार के जाति आधारित सर्वे की रिपोर्ट के आधार पर 7 नवंबर को कोटा बढ़ाने का फैसला लेकर विधानसभा में विधेयक पेश किया था। इसके जरिए ओबीसी आरक्षण 12 प्रतिशत से बढ़ाकर 18 प्रतिशत किया गया, ईबीसी का कोटा 18 फीसदी से बढ़ाकर 25 फीसदी कर दिया गया, एससी का आरक्षण 16 परसेंट से बढ़ाकर 20 परसेंट और एसटी का आरक्षण 1 परसेंट से बढ़ाकर 2 परसेंट करने का प्रस्ताव था। विधानसभा से यह विधेयक 9 नवंबर को पास हो गया। 21 नवंबर को राज्यपाल की मंजूरी के बाद इस विधेयक ने कानून का रूप ले लिया और यह पूरे राज्य में लागू हो गया।
इस कानून को आरक्षण विरोधी संगठन यूथ फॉर इक्वैलिटी ने हाईकोर्ट में चुनौती दी थी। सुप्रीम कोर्ट के द्वारा आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक ना देने के फैसले को आधार बनाकर बिहार आरक्षण कानून को चैलेंज किया गया था। पटना हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस की बेंच ने बिहार के नए आरक्षण कानून को संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 का उल्लंघन बताते हुए इसे रद्द कर दिया है। इसके बाद माना जा रहा है कि राज्य सरकार हाईकोर्ट के फैसले को हाईकोर्ट की बड़ी बेंच या सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे सकती है।
नीतीश कुमार महागठबंधन में रहते हुए और एनडीए में लौटने के बाद भी लगातार बिहार आरक्षण कानून को संविधान की नौवीं अनुसूची में डालने की मांग केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार से कर रहे थे। इस अनुसूची में डाले गए कानून की आम तौर पर न्यायिक समीक्षा नहीं होती और उसे कोई अदालत में चुनौती नहीं दे पाता है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने नौवीं अनुसूची में किसी कानून को डालने को भी अपने समीक्षा के दायरे में बता रखा है। बिहार के आरक्षण कानून को नौवीं अनुसूची में नहीं डाला गया है इसलिए इस पर अदालती डंडा चल गया है । यानी मोदी 3.0 का हिस्सा होने के बावजूद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का मुंह मिठा होने की जगह कड़वा हो गया है।