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क्या आप जानते हैं ? पृथ्वीराज चौहान पर ऐतिहासिकता के दावे पर बनने वाली आगामी फिल्म पृथ्वीराज ऐतिहासिक मिथ्या पर आधारित है ?

पृथ्वीराज चौहान पर ऐतिहासिकता के दावे पर बनने वाली आगामी फिल्म पृथ्वीराज ऐतिहासिक मिथ्या पर आधारित है ? यह उसके टीजर पोस्टर से ही सिद्ध होता है। जिस संयोगिता का वर्णन “पृथ्वीराज रासो” के पहले और इसके अलावा किसी पुराने ग्रंथ में नहीं मिलता , उस संयोगिता का पृथ्वीराज फिल्म में लीड रोल कर रही हैं मानुषी छिल्लर । जहां एक और इतिहासकार पृथ्वीराज रासो के ऐतिहासिक ग्रंथ होने का खंडन करते हुए इसे 16 वीं और 17 वीं शताब्दी तक लिखा हुआ मानते हैं तो दूसरी ओर जयचंद गहरवार द्वारा मोहम्मद घोरी को निमंत्रण देने, राजपूतों की आपसी फूट,पृथ्वीराज चौहान के महत्वाकांक्षी होने पर ऐतिहासिकता न होने पर भी इसे मुख्यधारा में लाने वाले इतिहासकारों की एक लंबी लाइन है ।

अब जिस पृथ्वीराज रासो का लेखन ही 17 वीं शताब्दी तक हुआ है उस पर बेस्ड होकर हिंदूवादी और वामपंथियों ने अब तक इतना दुष्प्रचार किया कि संयोगिता को माता मानना और जयचंद को गहरवार को गद्दार बोलने में राजपूतों का योगदान भी कम नहीं है ,फिल्में तक इसी नैरेटिव में बन रही हैं। हिंदुत्ववादी भाजपा के कार्यकाल में अक्षय कुमार की छवि राष्ट्रवादी बनाने वाले हिंदुत्ववादियों का अक्षय कुमार को भी भरपूर समर्थन है। खैर क्षत्रीय समाज का इसी हिंदुत्व में समर्थन इतना अत्यधिक होने के बावजूद इनका मीडिया, अकादमिया और स्वयं के इतिहास पर नियंत्रण भी शून्य है ।

अब हिंदूवादी नैरेटिवो में फंसे इस समाज की मानसिक हालत ऐसी हो तो प्रतिकार की भी इनसे उम्मीद करना जायज नहीं , प्रतिकार होगा भी तो वही सड़कों में दलाल संगठनों द्वारा जिन्हें मीडिया अब तक खासा उग्रवादी साबित कर चुकी है । रॉयल जिन्होंने अपनी विरासत का गुमान है लेकिन अपने पूर्वजों के इतिहास पर हो रहे बंदरबांट से कोई मतलब नहीं व जिन्होंने अपने खुद के इतिहास पर (कुछ को छोड़) आज तक कार्य न किया।
केवल चौहानों के कितने प्रिंसली स्टेट रहे हैं ? जिन्हें दिखा दिखा कर आप अपनी पीठ थपथपा रहे हैं , दरअसल इन्हें कोई मतलब नहीं।
साभार — शिवेंद्र परिहार

कश्मीर के राजा हरिसिंह ने भरे दरबार में तत्कलीन भारत के होने वाले प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरु को थप्पड़ ?

कश्मीर के राजा हरिसिंह ने भरे दरबार में तत्कलीन भारत के होने वाले प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरु को थप्पड़ भी मारा था और कश्मीर की सरहद से बाहर फिकवा दिया था,हम लोगों में से बहुत ही कम जानते होंगे कि नेहरू पेशे से वकील था लेकिन किसी भी क्रांतिकारी का उसने केस नहीं लड़ा। बात उस समय की है जिस समय महाराजा हरिसिंह 1937 के दरमियान ही जम्मू कश्मीर में लोकतंत्र स्थापित करना चाहते थे लेकिन शेख अब्दुल्ला इसके विरोध में थे क्योंकि शेख अब्दुल्ला महाराजा हरिसिंह के प्रधानमंत्री थे और कश्मीर राज्य का नियम यह था कि जो प्रधानमंत्री होगा वही अगला राजा बनेगा लेकिन महाराजा हरि सिंह प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला के कुकृत्य से भलीभांति परिचित थे इसलिए कश्मीर के लोगों की भलाई के लिए वह 1937 में ही वहां लोकतंत्र स्थापित करना चाहते थे लेकिन शेख अब्दुल्ला ने बगावत कर दी और सिपाहियों को भड़काना शुरू कर दिया लेकिन राजा हरि सिंह ने समय रहते हुए उस विद्रोह को कुचल डाला और शेख अब्दुल्ला को देशद्रोह के केस में जेल के अंदर डाल दिया।
शेख अब्दुल्ला और जवाहरलाल नेहरू की दोस्ती प्रसिद्ध थी। जवाहरलाल नेहरू शेख अब्दुल्ला का केस लड़ने के लिए कश्मीर पहुंच जाते हैं, वह भी बिना इजाजत के राजा हरिसिंह द्वारा चलाई जा रही कैबिनेट में प्रवेश कर जाते हैं , महाराजा हरि सिंह के पूछे जाने पर की आप किसकी मंजूरी से यहाँ आये हो नेहरु ने बताया कि मैं भारत का भावी प्रधानमंत्री हूं। राजा हरिसिंह ने कहा चाहे आप कोई भी है, बगैर इजाजत के यहां नहीं आ सकते अच्छा रहेगा आप यहां से निकल जाएं। नेहरु ने जब राजा हरि सिंह के बातों को नहीं माना तो राजा हरिसिंह ने गुस्से में आकर नेहरु को भरे दरबार में जोरदार थप्पड़ जड़ दिया और कहा यह तुम्हारी कांग्रेस नहीं है या तुम्हारा ब्रिटिश राज नहीं है जो तुम चाहोगे वही होगा। तुम होने वाले प्रधानमंत्री हो सकते हो लेकिन मैं वर्तमान राजा हूं और उसी समय अपने सैनिकों को कहकर कश्मीर की सीमा से बाहर फेंकवा दिया।
कहते हैं फिर नेहरू ने दिल्ली में आकर शपथ ली कि वह 1 दिन शेख अब्दुल्ला को कश्मीर के सर्वोच्च पद पर बैठा कर ही रहेगा। इसीलिए बताते हैं कि भारत मे विलीनीकरण के समय कश्मीर को छोड़कर अन्य सभी रियासतों का जिम्मा सरदार पटेल को दिया गया और एकमात्र कश्मीर का जिम्मा भारत में मिलाने के लिए जवाहरलाल नेहरु ने लिया था। सरदार पटेल ने सभी रियासतों को मिलाया लेकिन नेहरू ने एक थप्पड़ के अपमान के लिए भारत के साथ गद्दारी की ओर शेख अब्दुल्ला को मुख्यमंत्री बनाया और 1955 में जब वहां की विधानसभा ने अपना प्रस्ताव पारित करके जवाहरलाल नेहरू को पत्र सौंपा कि हम भारत में सभी शर्तों के साथ कश्मीर का विलय करना चाहते हैं तो जवाहरलाल नेहरू ने कहा —- नहीं अभी वह परिस्थितियां नहीं आई है कि कश्मीर का पूर्ण रूप से भारत में विलय हो सके।
इस प्रकार उस पत्र को प्रधानमंत्री नेहरू ने इरादतन ठुकरा दिया था, और अपने अपमान का बदला लिया जिसका खामियाजा भारत आज तक भुगत रहा था !!
महाराजा हरि सिंह जी की जयंती पर उनको मेरा कोटि कोटि नमन
वन्देमातरम
जय माँ भवानी जय राजपुताना

प्राचीन गुर्जरात्रा (गुर्जरदेश) और आधुनिक गुजरात राज्य मे क्या अंतर है?

प्राचीन गुर्जरात्रा (गुर्जरदेश) और आधुनिक गुजरात राज्य मे क्या अंतर है?—
प्राचीन गुर्जरात्रा या असली गुजरात आज के दक्षिण पश्चिम राजस्थान में था,इसमें आज के राजस्थान के पाली,जालौर, भीनमाल, सिरोही, बाड़मेर का कुछ हिस्सा, कुछ हिस्सा जोधपुर व् कुछ हिस्सा मेवाड़ का सम्मिलित था, (इस प्राचीन प्रदेश का नामकरण 5 वी सदी के आसपास गुर्जरात्रा क्यों हुआ, औऱ कब से यह गौड़वाड़ कहलाने लगा, इसके विषय में अलग से पोस्ट करूँगा)। जो आज का गुजरात राज्य है वो उस समय तीन हिस्सों में अलग अलग विभाजित था,
1-आनर्त (आज के उत्तर गुजरात का इलाका)
2-सौराष्ट्र
3-लाट (आज का दक्षिण गुजरात)
भीनमाल प्राचीन गुर्जरात्रा की राजधानी थी, जिस पर हर्षवर्धन के समय चावड़ा राजपूत व्याघ्रमुख शासन करते थे। उस समय चावड़ा क्षत्रिय गुर्जरात्रा के शासक होने के कारण गुर्जरेश्वर कहलाते थे। सम्राट वत्सराज की गल्लका प्रशस्ति के अनुसार प्राचीन गुर्जरात्रा पर इसके कुछ समय बाद ही नागभट्ट प्रतिहार ने कब्जा कर लिया तथा इस गुर्जरात्रा प्रदेश के शासक बनने के कारण वो भी गुर्जरेश्वर कहलाए। लक्ष्मनवंशी रघुकुली क्षत्रिय नागभट्ट प्रतिहार ने चावड़ा क्षत्रियों से ही गुर्जरात्रा प्रदेश को जीता था।
चावड़ा वंश का शासन भीनमाल से समाप्त हो गया और उन्होंने प्राचीन आनर्त देश(आज के गुजरात का उत्तरी भाग को आनर्त देश कहा जाता था) में पाटन अन्हिलवाड़ को राजधानी बनाया तथा अपने प्राचीन राज्य गुर्जरात्रा की स्मृति में नए स्थापित राज्य का नाम भी गुर्जरात्रा रख दिया।
चावड़ा वंश को उनके लेखों में चापोतक्ट लिखा मिलता है ,इन्हें परमार राजपूतो की शाखा माना जाता है। अभी भी राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश में चावड़ा वंश की आबादी है, गुजरात मे तो चावड़ा राजपूतो की आज भी स्टेट हैं। इस प्रकार प्राचीन आनर्त देश ही बाद में गुर्जरात्रा या गुजरात राज्य के रूप में प्रसिद्ध हुआ, पर प्रारम्भ में इसमें पाटन, साबरकांठा, मेहसाणा, बनासकांठा आदि ही शामिल थे,
दसवीं सदी में अंतिम चावड़ा शासक सामंतसिंह के बाद उनके रिश्तेदार मूलराज सोलंकी इस गुर्जरात्रा प्रदेश के स्वामी बने, इस कारण मूलराज सोलंकी व उनके वंशज भी गुर्जरेश्वर या गुर्जरराज कहलाए।
कालांतर में अन्हिलवाड़ा के सोलंकी राजवंश ने लाट क्षेत्र (आज का दक्षिण गुजरात) को भी अपने अधीन कर लिया और आनर्त व लाट का संयुक्त क्षेत्र अब गुर्जरात अथवा गुजरात कहे जाने लगे।। ये सोलंकी राजपूत राजा भी इस नए गुजरात पर शासन करने के कारण ही गुरजेश्वर कहलाए। किन्तु सौराष्ट्र कच्छ का इलाका इस गुजरात से अलग ही रहा। कालांतर में गुजराती भाषा का प्रचार प्रसार सौराष्ट्र में भी हो गया और 1947 के बाद समान भाषा के नाम पर जिस गुजरात नामक प्रदेश का निर्माण हुआ उसमे सौराष्ट्र और कच्छ का इलाका भी जोड़ दिया गया।
इस प्रकार ही आधुनिक गुजरात राज्य अस्तित्व में आया जबकि असली या प्राचीन गुजरात राज्य आज के दक्षिण पश्चिम राजस्थान के हिस्से को कहा जाता था जो आज के गुजरात से बिल्कुल अलग था। जब आनर्त और लाट का संयुक्त हिस्सा नवीन गुजरात के रूप में प्रसिद्ध हो गया था तो प्राचीन गुर्जरात्रा प्रदेश का नाम भी समय के साथ बदलकर गौड़वाड़ हो गया, जो आज राजस्थान के पाली जालौर सिरोही के संयुक्त क्षेत्र को कहा जाता है। आधुनिक पशुपालक गुज्जर जाति की जनसंख्या न तो प्राचीन गुर्जरात्रा में है न ही आधुनिक गुजरात राज्य में इन गुज्जरों की कोई आबादी है।
न तो प्राचीन गुजरात में गुज्जर हैं न आधुनिक गुजरात में गुज्जर हैं!!! न प्रतिहारों की प्राचीनतम राजधानी भीनमाल और मंडोर में गुज्जर हैं।
न ही प्रतिहारों के सबसे विशाल राज्य की राजधानी कन्नौज में गूजरों की कोई आबादी है!! न ही आज गूजरों में कोई प्रतिहार परिहार वंश मिलता है, गुजरात और कन्नौज में तो कोई जानता ही नही कि गुज्जर जाति होती क्या है!!! फिर किस आधार पर ये प्रतिहार वंश और गुजरात पर दावा ठोकते हैं?? इसी प्रकार 18 वी सदी में गुजरात मे बड़ौदा पर शासन स्थापित करने वाले गायकवाड़ मराठा भी गुरजेश्वर कहलाए जाते हैं। गुरजेश्वर गुर्जराधिपति आदि उपाधियों का अर्थ है गुजरात प्रदेश के शासक न कि गुज्जर जाति के शासक, ये बात गुज्जर भाइयो को समझ लेनी चाहिए।
आमेर के कच्छवाह राजपूत शासक मल्यसी को भी गुजरात पर अधिकार करने के कारण एक जगह गुर्जरराज लिखा मिलता है।
महात्मा गांधी व मौहम्मद अली जिन्ना भी बॉम्बे की संस्था ‘गुर्जर सभा’ के सदस्य थे क्योंकि दोनो गुजराती थे। दक्षिण अफ्रीका से लौटने पर आयोजित समारोह में जिन्ना ने मोहनदास करमचंद गांधी को सभी गुर्जरों का गौरव बताया था। यहां गुर्जर जातिसूचक नही स्थानसूचक है।
क्या आप महात्मा गांधी व जिन्ना को भी गुज्जर कहोगे? इसी प्रकार “गुर्जर गौड़ ब्राह्मण अर्थात गुर्जरात्रा प्रदेश से आए गौड़ ब्राह्मण न कि गुज्जर जाति के गौड़ ब्राह्मण” इसी प्रकार गुर्जर सुथार या गुर्जर बनिये भी मिलते हैं जो स्थानसूचक हैं न कि जातिसूचक। इसी प्रकार प्राचीन गुर्जरात्रा या आधुनिक गुर्जरात्रा के शासक क्षत्रिय राजवंश चावड़ा, प्रतिहार, सोलंकी गुर्जरेश्वर या गुर्जरराज कहलाए ,वो स्थानसूचक है न कि जातिसूचक।
इनका उत्तर भारत के राजस्थान, वेस्ट यूपी, पंजाब, जम्मू कश्मीर ,चंबल क्षेत्र की परम्परागत पशुपालक व बाद में कृषक बनी गुज्जर जाति से कोई सम्बन्ध नही है।। कृपया वामपंथी इतिहाकारो के बहकावे में आकर सदियों से हम सबके पुरखो द्वारा स्थापित किया गया सौहार्द ,प्रेम व भाईचारा समाप्त न करें

“मरण नै मेडतिया अर राज करण नै जौधा “ “मरण नै दुदा अर जान(बारात) में उदा ”

आततायी अकबर से चित्तौड़गढ़ के दुर्ग की रक्षार्थ हुए शाके के नायक एवं राव दूदा की भक्ति परंपरा को आगे बढ़ाने वाले एकनिष्ठ कृष्ण भक्त जयमल जी मेड़तिया की #जयंती पर सादर वंदन
“मरण नै मेडतिया अर राज करण नै जौधा “
“मरण नै दुदा अर जान(बारात) में उदा ”
उपरोक्त कहावतों में मेडतिया राठोडों को आत्मोत्सर्ग में अग्रगण्य तथा युद्ध कौशल में प्रवीण मानते हुए मृत्यु को वरण करने के लिए आतुर कहा गया है मेडतिया राठोडों ने शौर्य और बलिदान के एक से एक कीर्तिमान स्थापित किए है और इनमे राव जयमल का नाम सर्वाधिक प्रसिद्ध है | कर्नल जेम्स टोड की राजस्थान के प्रत्येक राज्य में “थर्मोपल्ली” जैसे युद्ध और “लियोनिदास” जैसे योधा होनी की बात स्वीकार करते हुए इन सब में श्रेष्ठ दिखलाई पड़ता है | जिस जोधपुर के मालदेव से जयमल को लगभग २२ युद्ध लड़ने पड़े वह सैनिक शक्ति में जयमल से १० गुना अधिक था और उसका दूसरा विरोधी अकबर एशिया का सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति था |अबुल फजल,हर्बर्ट,सर टामस रो, के पादरी तथा बर्नियर जैसे प्रसिद्ध लेखकों ने जयमल के कृतित्व की अत्यन्त ही प्रसंशा की है | जर्मन विद्वान काउंटनोआर ने अकबर पर जो पुस्तक लिखी उसमे जयमल को “Lion of Chittor” कहा |
राव जयमल का जन्म आश्विन शुक्ला ११ वि.स.१५६४ १७ सितम्बर १५०७ शुक्रवार के दिन हुआ था | सन १५४४ में जयमल ३६ वर्ष की आयु अपने पिता राव विरमदेव की मृत्यु के बाद मेड़ता की गद्दी संभाली | पिता के साथ अनेक विपदाओं व युद्धों में सक्रीय भाग लेने के कारण जयमल में बड़ी-बड़ी सेनाओं का सामना करने की सूझ थी उसका व्यक्तित्व निखर चुका था और जयमल मेडतिया राठोडों में सर्वश्रेष्ठ योद्धा बना | मेड़ता के प्रति जोधपुर के शासक मालदेव के वैमनस्य को भांपते हुए जयमल ने अपने सीमित साधनों के अनुरूप सैन्य तैयारी कर ली | जोधपुर पर पुनः कब्जा करने के बाद राव मालदेव ने कुछ वर्ष अपना प्रशासन सुसंगठित करने बाद संवत १६१० में एक विशाल सेना के साथ मेड़ता पर हमला कर दिया | अपनी छोटीसी सेना से जयमल मालदेव को पराजित नही कर सकता था अतः उसने बीकानेर के राव कल्याणमल को सहायता के लिए ७००० सैनिकों के साथ बुला लिया | लेकिन फ़िर भी जयमल अपने सजातीय बंधुओं के साथ युद्ध कर और रक्त पात नही चाहता था इसलिय उसने राव मालदेव के साथ संधि की कोशिश भी की, लेकिन जिद्दी मालदेव ने एक ना सुनी और मेड़ता पर आक्रमण कर दिया | पूर्णतया सचेत वीर जयमल ने अपनी छोटी सी सेना के सहारे जोधपुर की विशाल सेना को भयंकर टक्कर देकर पीछे हटने को मजबूर कर दिया स्वयम मालदेव को युद्ध से खिसकना पड़ा | युद्ध समाप्ति के बाद जयमल ने मालदेव से छीने “निशान” मालदेव को राठौड़ वंश का सिरमौर मान उसकी प्रतिष्ठा का ध्यान रखते हुए वापस लौटा दिए |
मालदेव पर विजय के बाद जयमल ने मेड़ता में अनेक सुंदर महलों का निर्माण कराया और क्षेत्र के विकास के कार्य किए | लेकिन इस विजय ने जोधपुर-मेड़ता के बीच विरोध की खायी को और गहरा दिया | और बदले की आग में झुलसते मालदेव ने मौका देख हमला कर २७ जनवरी १५५७ को मेड़ता पर अधिकार कर लिया उस समय जयमल की सेना हाजी खां के साथ युद्ध में क्षत-विक्षत थी और उसके खास-खास योधा बीकानेर,मेवाड़ और शेखावाटी की और गए हुए थे इसी गुप्त सुचना का फायदा मालदेव ने जयमल को परास्त करने में उठाया | मेड़ता पर अधिकार कर मालदेव ने मेड़ता के सभी महलों को तोड़ कर नष्ट कर दिए और वहां मूलों की खेती करवाई | आधा मेड़ता अपने पास रखते हुए आधा मेड़ता मालदेव ने जयमल के भाई जगमाल जो मालदेव के पक्ष में था को दे दिया | मेड़ता छूटने के बाद जयमल मेवाड़ चला गया जहाँ महाराणा उदय सिंह ने उसे बदनोर की जागीर प्रदान की | लेकिन वहां भी मालदेव ने अचानक हमला किया और जयमल द्वारा शोर्य पूर्वक सामना करने के बावजूद मालदेव की विशाल सेना निर्णायक हुयी और जयमल को बदनोर भी छोड़ना पड़ा | अनेक वर्षों तक अपनी छोटी सी सेना के साथ जोधपुर की विशाल सेना मुकाबला करते हुए जयमल समझ चुका था कि बिना किसी शक्तिशाली समर्थक के वह मालदेव से पीछा नही छुडा सकता | और इसी हेतु मजबूर होकर उसने अकबर से संपर्क किया जो अपने पिता हुमायूँ के साथ मालदेव द्वारा किए विश्वासघात कि वजह से खिन्न था और अकबर राजस्थान के उस समय के सर्वाधिक शक्तिशाली शासक मालदेव को हराना भी जरुरी समझता था |

जयमल ने अकबर की सेना सहायता से पुनः मेड़ता पर कब्जा कर लिया | वि.स.१६१९ में मालदेव के निधन के बाद जयमल को लगा की अब उसकी समस्याए समाप्त हो गई | लेकिन अकबर की सेना से बागी हुए सैफुद्दीन को जयमल द्वारा आश्रय देने के कारण जयमल की अकबर से फ़िर दुश्मनी हो गई | और अकबर ने एक विशाल सेना मेड़ता पर हमले के लिए रवाना कर दी | अनगिनत युद्धों में अनेक प्रकार की क्षति और अनगिनत घर उजड़ चुके थे और जयमल जनता जनता को और उजड़ देना नही चाहता था इसी बात को मध्यनजर रखते हुए जयमल ने अकबर के मनसबदार हुसैनकुली खां को मेड़ता शान्ति पूर्वक सौंप कर परिवार सहित बदनोर चला गया | और अकबर के मनसबदार हुसैनकुली खां ने अकबर की इच्छानुसार मेड़ता का राज्य जयमल के भाई जगमाल को सौंप दिया |
अकबर द्वारा चित्तोड़ पर आक्रमण का समाचार सुन जयमल चित्तोड़ पहुँच गया | २६ अक्टूबर १५६७ को अकबर चित्तोड़ के पास नगरी नामक गांव पहुँच गया | जिसकी सूचना महाराणा उदय सिंह को मिल चुकी थी और युद्ध परिषद् की राय के बाद चित्तोड़ के महाराणा उदय सिंह ने वीर जयमल को ८००० सैनिकों के साथ चित्तोड़ दुर्ग की रक्षा का जिम्मा दे स्वयम दक्षिणी पहाडों में चले गए | विकट योद्धों के अनुभवी जयमल ने खाद्य पदार्थो व शस्त्रों का संग्रह कर युद्ध की तैयारी प्रारंभ कर दी | उधर अकबर ने चित्तोड़ की सामरिक महत्व की जानकारिया इक्कठा कर अपनी रणनीति तैयार कर चित्तोड़ दुर्ग को विशाल सेना के साथ घेर लिया और दुर्ग के पहाड़ में निचे सुरंगे खोदी जाने लगी ताकि उनमे बारूद भरकर विस्फोट कर दुर्ग के परकोटे उड़ाए जा सकें,दोनों और से भयंकर गोलाबारी शुरू हुई तोपों की मार और सुरंगे फटने से दुर्ग में पड़ती दरारों को जयमल रात्रि के समय फ़िर मरम्मत करा ठीक करा देते |
अनेक महीनों के भयंकर युद्ध के बाद भी कोई परिणाम नही निकला | चित्तोड़ के रक्षकों ने मुग़ल सेना के इतने सैनिकों और सुरंगे खोदने वालो मजदूरों को मारा कि लाशों के अम्बार लग गए | बादशाह ने किले के निचे सुरंगे खोद कर मिट्टी निकालने वाले मजदूरों को एक-एक मिट्टी की टोकरी के बदले एक-एक स्वर्ण मुद्राए दी ताकि कार्य चालू रहे | अबुलफजल ने लिखा कि इस युद्ध में मिट्टी की कीमत भी स्वर्ण के सामान हो गई थी | बादशाह अकबर जयमल के पराकर्म से भयभीत व आशंकित भी थे सो उसने राजा टोडरमल के जरिय जयमल को संदेश भेजा कि आप राणा और चित्तोड़ के लिए क्यों अपने प्राण व्यर्थ गवां रहे हो,चित्तोड़ दुर्ग पर मेरा कब्जा करा दो मै तुम्हे तुम्हारा पैत्रिक राज्य मेड़ता और बहुत सारा प्रदेश भेंट कर दूंगा | लेकिन जयमल ने अकबर का प्रस्ताव साफ ठुकरा दिया कि मै राणा और चित्तोड़ के साथ विश्वासघात नही कर सकता और मेरे जीवित रहते आप किले में प्रवेश नही कर सकते |

जयमल ने टोडरमल के साथ जो संदेश भेजा जो कवित रूप में इस तरह प्रचलित है
है गढ़ म्हारो म्है धणी,असुर फ़िर किम आण |
कुंच्यां जे चित्रकोट री दिधी मोहिं दीवाण ||
जयमल लिखे जबाब यूँ सुनिए अकबर शाह |
आण फिरै गढ़ उपरा पडियो धड पातशाह |
एक रात्रि को अकबर ने देखा कि किले कि दीवार पर हाथ में मशाल लिए जिरह वस्त्र पहने एक सामंत दीवार मरम्मत का कार्य देख रहा है और अकबर ने अपनी संग्राम नामक बन्दूक से गोली दाग दी जो उस सामंत के पैर में लगी वो सामंत कोई और नही ख़ुद जयमल मेडतिया ही था | थोडी ही देर में किले से अग्नि कि ज्वालाये दिखने लगी ये ज्वालाये जौहर की थी | जयमल की जांघ में गोली लगने से उसका चलना दूभर हो गया था उसके घायल होने से किले में हा हा कार मच गया अतः साथी सरदारों के सुझाव पर जौहर और शाका का निर्णय लिया गया ,जौहर क्रिया संपन्न होने के बाद घायल जयमल कल्ला राठौड़ के कंधे पर बैठकर चल पड़ा रणचंडी का आव्हान करने | जयमल के दोनों हाथो की तलवारों बिजली के सामान चमकते हुए शत्रुओं का संहार किया उसके शौर्य को देख कर अकबर भी आश्चर्यचकित था | इस प्रकार यह वीर चित्तोड़ की रक्षा करते हुए दुर्ग की हनुमान पोल व भैरव पोल के बीच लड़ते हुए वीर गति को प्राप्त हुवा जहाँ उसकी याद में स्मारक बना हुआ है |
इस युद्ध में वीर जयमल और पत्ता सिसोदिया की वीरता ने अकबर के हृदय पर ऐसी अमित छाप छोड़ी कि अकबर ने दोनों वीरों की हाथी पर सवार पत्थर की विशाल मूर्तियाँ बनाई | जिनका कई विदेश पर्यटकों ने अपने लेखो में उल्लेख किया है | यह भी प्रसिद्ध है कि अकबर द्वारा स्थापित इन दोनों की मूर्तियों पर निम्न दोहा अंकित था |
जयमल बड़ता जीवणे, पत्तो बाएं पास |
हिंदू चढिया हथियाँ चढियो जस आकास ||
हिंदू,मुस्लमान,अंग्रेज,फ्रांसिस,जर्मन,पुर्तगाली आदि अनेक इतिहासकारों ने जयमल के अनुपम शौर्य का वर्णन किया है ।।

अद्य धारा सदाधारा सदालम्बा सरस्वती। पण्डिता मण्डिताः सर्वे भोजराजे भुवि स्थिते॥

राजा भोज परमार जिनसे बडा राजपूत क्षत्रिय राजा पिछले एक हजार वर्षो में नहीं हुआ । राजा भोज का जन्म मध्य प्रदेश के मालवा राज्य की एतिहासिक नगरी उज्जैन में हुआ । उनके पिता का नाम सिंधुराज था । राजा भोज बचपन से ही विद्वान थे उन्होंने महज 8 वर्ष की उम्र में संपूर्ण वेद पुराण का ज्ञान प्राप्त कर लिया था । राजा भोज जब 15 वर्ष के थे तब उन्हें मालवा का राजा बनाया गया राजा भोज जब सिंहासन पर बैठे तब उन्होंने पुरे देश का मानचित्र देखा और यह भी देखा की देश 57 भागों में बंटा हुआ था उस समय राजा भोज ने अंखड भारत को एक करने का बिडा उठाया राजा भोज ने भारतवर्ष के सभी राजाओं को संदेश भेजा की सभी देशवासियों को एक हो कर देश को बचाना ही होग तब कई राजाओं ने राजा भोज का विरोध किया तब राजा भोज ने देश धर्म की रक्षा के लिए तलवार उठाई और तब जन्म हुआ इतिहास के सबसे बडे योद्धा राजा भोज । राजा भोज ने अपने जीवन में हिंदुत्व की रक्षा के लिए 5 हजार से भी ज्यादा युध्द लडे आज तक किसी ने इतने युद्ध नहीं लडे ।
राजा भोज ने सन् 1000 ई. से 1055 ई. तक राज्य किया। इनकी विद्वता के कारण जनमानस में एक कहावत प्रचलित हुई कहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तैली…..
राजा भोज बहुत बड़े वीर, प्रतापी, पंडित और गुणग्राही थे। इन्होंने अनेक देशों पर विजय प्राप्त की थी और कई विषयों के अनेक ग्रंथों का निर्माण किया था। ये बहुत अच्छे कवि, दार्शनिक और ज्योतिषी थे। सरस्वतीकंठाभरण, शृंगारमंजरी, चंपूरामायण, चारुचर्या, तत्वप्रकाश, व्यवहारसमुच्चय आदि अनेक ग्रंथ इनके लिखे हुए बतलाए जाते हैं। इनकी सभा सदा बड़े बड़े पंडितों से सुशोभित रहती थी।
जब भोज जीवित थे तो कहा जाता था-
अद्य धारा सदाधारा सदालम्बा सरस्वती।
पण्डिता मण्डिताः सर्वे भोजराजे भुवि स्थिते॥
(आज जब भोजराज धरती पर स्थित हैं तो धारा नगरी सदाधारा (अच्छे आधार वाली) है; सरस्वती को सदा आलम्ब मिला हुआ है; सभी पंडित आदृत हैं।)
जब उनका देहान्त हुआ तो कहा गया –
अद्य धारा निराधारा निरालंबा सरस्वती।
पण्डिताः खण्डिताः: सर्वे भोजराजे दिवं गते ॥
(आज भोजराज के दिवंगत हो जाने से धारा नगरी निराधार हो गयी है ; सरस्वती बिना आलम्ब की हो गयी हैं और सभी पंडित खंडित हैं।)
नोट: राजा भोज ने कभी किसी बेकसूर को नही मारा वे हर युद्ध से पहले उस राज्य के राजा को संदेश भेजते थे की मे देश को एक करना चाहता हूँ जो विरोध करता उस से ही युद्ध लडते थे ।
राजा भोज के कुछ प्रसिद्ध युद्ध ।
https://www.facebook.com/KshatriyaEkYoddha/photos/a.832438300295227/1668464410025941/
1 भोज चरित्र के अनुसार राजा भोज ने चालूक्य राज्य के कल्याणी राजा को युद्ध में मारा क्योंकि वो देश को एक करने के राजा भोज के अभियान का विरोधी था ।
2 धुआरा प्रंसति के अनुसार राजा भोज ने कलचूरी राजा गंगयादेव को हराया
3 उदयपुर प्रसति के अनुसार महाराजा भोज ने उडीसा के राजा इंद्र दत्त को हराया जो कि उडीसा के सबसे ताकतवर राजा थे उन्हें भी महाराजा भोज ने हराया ।
4 धुआरा प्रसति के अनुसार राजा भोज ने लता नगर के कीर्ती राजा को हराया था
5 राजा भोज ने महाराष्ट्र के कोकंण मुंबई सहित अनेक राजाओं को हराया ।
6 कन्नौज शहर से प्राप्त हुए दस्तावेजों के अनुसार राजा भोज ने संपूर्ण उत्तर भारत बिहार सभी राज्य को हराया था
7 ग्वालियर में स्थित सांस बहू लिपि के अनुसार ग्वालियर के राजा कीर्तीराज को हराया था ।
8 राजा भोज से राजपूताना के चौहान राजा ने भी युद्ध लडा पर वो राजा भोज से हारे गये इसी तरह राजा भोज ने पुरे राजपूताने पर राज्य किया ।
9 राजा भोज ने चित्रकूट के किले को जीता और चित्रकूट की रक्षा की ।
10 राजा भोज ने मोहम्मद गजनवी की सेना से युद्ध लडा और भारत के कई राजाओं की सहायता की गजनवी से लडते हुए ।
राजा भोज ने थांनेश्वर , हांसी नगर , कोटा को मुस्लिम राजाओं की गुलामी से छुडाया और हिन्दू शासन की स्थापना की ।
कहते हैं कि विश्ववंदनीय महाराजा भोज माँ सरस्वती के वरदपुत्र थे! उनकी तपोभूमि धारा नगरी में उनकी तपस्या और साधना से प्रसन्न हो कर माँ सरस्वती ने स्वयं प्रकट हो कर दर्शन दिए। माँ से साक्षात्कार के पश्चात उसी दिव्य स्वरूप को माँ वाग्देवी की प्रतिमा के रूप में अवतरित कर भोजशाला में स्थापित करवाया।राजा भोज ने धार, माण्डव तथा उज्जैन में सरस्वतीकण्ठभरण नामक भवन बनवाये थे। भोज के समय ही मनोहर वाग्देवी की प्रतिमा संवत् १०९१ (ई. सन् १०३४) में बनवाई गई थी। गुलामी के दिनों में इस मूर्ति को अंग्रेज शासक लंदन ले गए। यह आज भी वहां के संग्रहालय में बंदी है। राजा भोज के राज्य मालवा में उनके होते हुए कोई भी विदेशी कदम नही रख पाया वहीं राजा भोज ने सम्राट बन ने के बाद पुरे देश को सुरक्षित कर महान राज्य की स्थापना की राजा भोज का साम्राज्य अरब से लेकर म्यांमार जम्मू कश्मीर से लेकर श्रीलंका तक था राजा भोज बहुत महान राजा थे । राजा भोज द्वारा बसाए गये एतिहासिक शहर – भोपाल जो पहले भोजपाल था , धार , भोजपुर सहित 84 नगरों की स्थापना राजा भोज ने की । राजा भोज द्वारा निर्मित देश का सबसे बडा तालाब भोजताल जो मध्य प्रदेश के भोपाल ( भोजपाल ) में स्थित है इस तालाब के पानी से ही भोपाल अपनी प्यास बुझाता है ।
राजा भोज द्वारा निर्मित मंदिर – विश्व का सर्वश्रेष्ठ मंदिर माँ सरस्वती मंदिर भोजशाला जहाँ की सरस्वती माँ की प्रतिमा लंदन म्यूजियम में कैद है , वही सोमनाथ मंदिर , उज्जैन महाकाल मंदिर , विश्व का सबसे बडा ज्योतिरलिंग भोजेशवर मंदिर मध्य प्रदेश के भोजपुर में स्थित 18 फीट का भव्य लिंग , केदारनाथ मंदिर रामेश्वरम महादेव मन्दिर चित्तोड़ मे समधिएश्वर महादेव मंदिर सहित 10 लाख से ज्यादा मंदिरों का निर्माण मालवा नरेश भारत सम्राट महाराजा भोज ने करवाये ।
ऐसे महान महाराजा भोज को हमारा प्रणाम ।
अभियंता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं एवं बधाई..
अपनी जीवनकाल में महाराज भोज जी ने 15 से अधिक पुस्तकें #स्थापत्यकला पे लिखी।

रायबरेली तथा उन्नाव के बड़े हिस्से में सन 1857 ई. में भारत के स्वतन्त्रता प्राप्ति संग्राम और क्रांति की जो मशाल जली थी, उसके नायक थे राणा बेनीमाधव बख्श सिंह

रायबरेली तथा उन्नाव के बड़े हिस्से में सन 1857 ई. में भारत के स्वतन्त्रता प्राप्ति संग्राम और क्रांति की जो मशाल जली थी, उसके नायक थे राणा बेनीमाधव बख्श सिंह जिन्होने अंग्रेजी साम्राज्य के दंभ को चकनाचूर कर दिया था. तमाम घेराबंदी के बाद भी अंग्रेज सैनिक राणा बेनीमाधव सिंह बैस तक नहीं पहुंच सके, उस जमाने की संपन्न और ताकतवर रियासत शंकरपुर के शासक राणा बेनीमाधव सिंह बैस प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अगली कतार के प्रमुख नेता और महान संगठनकर्ता थे. राणा बेनीमाधव का समाज के सभी वर्गो पर असर था. व्यापक जनसमर्थन के सहारे ही अवध के ह्दयस्थल में उन्होने अंग्रेजों के खिलाफ जो गुरिल्ला जंग छेड़ी थी, उसकी काट तलाशने के अंग्रेजों को न जाने कितना जतन करना पड़ा था. आखिरी सांस तक राणा लड़ते रहे और उन्होने अंग्रेजों के सामने कभी हथियार नहीं डाले. राणा बेनीमाधव सिंह बैस के अधीन रायबरेली सन 1857 ई. से सन 1858 ई. तक 18 माह तक आजाद रहा और लखनऊ की स्वाधीनता में भी उनके सैनिको की विशिष्ट भूमिका रही.
उनकी वीरता से बेगम हजरतमहल भी इतनी प्रभावित थीं कि उनको दिलेरजंग की उपाधि प्रदान की थी, रायबरेली की जनक्रांति 10 जून सन 1857 ई. को राणा बेणीमाधव के नेतृत्व में शुरू हुई पर रायबरेली के अभियान के पूर्व 30 मई सन 1857 ई. को राणा लखनऊ में अंग्रेजी सेना के छक्के छुड़ाने के लिए 15,000 हजार जांबाज सैनिकों के साथ पहुंचे थे, इसी जंग में वह दिलेरजंग बने थे. राणा ने शंकरपुर के अलावा कई जगहों पर भारी फौज के साथ अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी और उनके छक्के छुडा़ए. राणा के भाई जोमराज सिंह बैस भी अपने 700 सैनिकों के साथ आजादी की जंग में शहीद हुए, राणा बेनीमाधव सिंह बैस आजादी के महान क्रान्तिकारी नायकों के लगातार संपर्क रहे और जब उनकी ताकत कमजोर मानी जा रही थी तो जून सन 1858 ई. में उन्होने बैसवारा में 10,000 हजार पैदल और घुड़सवार सेना फिर से संगठित कर ली थी. अंग्रेजी दस्तावेज बताते हैं कि सन 1858 ई. के मध्य में वह कानपुर पर भारी खतरा बन गए थे और उनके समर्थकों की संख्या 85,000 हजार तक पहुंच गयी थी. 24 नवंबर सन 1858 ई. को राणा बहादुरी से लड़े पर अंग्रेज भारी पड़े.
अवध के दिलेर बागियों में दिसंबर सन 1858 तक राणा बेनीमाधव बख्श सिंह, ठाकुर नरपत सिंह और ठाकुर गुलाब सिंह लड़ते रहे, 17 दिसंबर सन 1858 ई. को भीरा गोविंदपुर में राणा बेनीमाधव सिंह बैस और अंग्रेजों के बीच जोरदार मुकाबला हुआ, इस लड़ाई में राणा काफी घायल हो गए थे पर उनका घोड़ा सज्जा उनको हिफाजत से मन्हेरू गांव के पास जंगलों में ले गया और उनकी रात भर रखवाली करता रहा, राणा बेहोश थे, सुबह राणा के मित्र और मन्हेरू के जागीरदार लालचंद ने संयोग से ही घायल राणा को देखा तो उनको अपने घर लाए और उनकी सेवा की पर इसकी खबर अंग्रेजों तक पहुंच गयी. लालचंद की मदद से अंग्रेज राणा की खोज करना चाहते थे, उनको जागीर तक का प्रलोभन दिया गया पर लालचंद के आगे कुछ नहीं चली. अंग्रेज सिपाही उनको पकड़ कर ब्रिगेडियर इवली के पास ले गए और भारी यातना दी, पर लालचंद ने कहा – “मुझसे ज्यादा देश को राणा की जरूरत है, मैं प्राण दे दूंगा पर राणा का पता नहीं बताऊंगा.”
लालचंद ने राणा के लिए खुद को बलिदान कर दिया, यही नहीं लालचंद के दोनो पुत्र ठाकुर प्रसाद और गोविंद नारायण राणा के बलिदानी जत्थे में पहले ही शामिल हो गए थे. जब लालचंद की गिरफ्तारी की खबर मिली तो उनकी पत्नी रामा देवी ने खुद को कटार मार कर शहीद कर लिया, राणा को बचाने के लिए इस परिवार ने जो बलिदान दिया उसकी आज भी मिसाल दी जाती है और राणा बेनी माधव बख्श सिंह के साथ हमेशा लालचंद को भी याद किया जाता है. हर साल 26 दिसंबर को लालचंद बलिदान दिवस मनाया जाता है.
रायबरेली के बाद राणा गोमती पार कर फैजाबाद पहुंचे जहां कनर्ल हंट ने उनका रास्ता रोकना चाहा पर वह मारा गया, इसके बाद बहराइच के आसपास राणा गुरिल्ला पद्दति से अंग्रेजों को छकाते रहे, राणा बेनीमाधव बख्श सिंह को अंग्रेजों ने काफी खोजा और उनको तमाम प्रलोभन देकर माफी मांगने को कहा पर राणा ने इंकार कर दिया और आजादी की बलिबेदी पर शहीद होना बेहतर समझा. राणा के नेतृत्व में रायबरेली के बहादुर सैनिको ने जंग जारी रखी. कहा जाता है कि आखिरी समय में राणा के साथ कुल 250 लोग बचे थेे,
जिनके सामने राणा ने अपनी सारी धन दौलत रख कर कहा कि जो भी जाना चाहे मनचाहा धन लेकर लौट जाये और जो वीरतापूर्वक मरना चाहे मेरे साथ रहे, पर दो लोगों को छोड़ कर बाकी सब जंग में आखिर तक रहे, भले ही इस जंग में राणा का परिवार तबाह हो गया और तंगहाली में जीता रहा पर आखिरी सांस तक राणा बेनीमाधव सिंह बैस ने जंग लडी. उनके पास अंग्रेजों की तुलना में हथियार नाममात्र के थे पर देश की आजादी की जज्बा उनमें था और इसी मनोबल के सहारे वे लड़ते रहे. राणा बेनीमाधव बख्श सिंह के आखिरी दिनो के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती है.
अद्भुत सेनानायक राणा बेनीमाधव बख्श सिंह बैस को उनकी 217वीं जयंती पर शत-शत नमन

भेदन की हर पीड़ा हर ली,धर कर अपने अधरों पर मुरली…!तृप्त हुआ यह तृषित बाँस हरजब भये मनोहर मुरलीधर…!!

भेदन की हर पीड़ा हर ली
धर कर अपने अधरों पर मुरली…!
तृप्त हुआ यह तृषित बाँस हर
जब भये मनोहर मुरलीधर…!!
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मुरलीधर गिरिधर, वंशीधर, चक्रधर… ऐसे सैकड़ों या हजारों नाम हो सकते हैं। उनमें से अधिकांश पर्यायवाची के भी पर्यायवाची हैं। ये सब नाम अकेल कृष्ण के हैं। कान्हा, छलिया, माखनचोर आदि भी उनके ही श्रीनामों में से हैं। कृष्ण के जीवन का अपना कृष्ण पक्ष भी है, शुक्ल पक्ष भी और इन दोनों के मध्य एक ललित पक्ष भी; क्रमशः तम, सत्व और रज की तरह। कृष्ण अपने शुक्ल पक्ष में नारायण, हृषीकेश, अच्युत, योगीश्वर हैं। कृष्ण अपने कृष्ण पक्ष में मध्वरि, मुरारि, रणछोड़, चक्रधर हैं। कृष्ण अपने ललित पक्ष में राधारमण, गोपीश्वर, नटवर, मोहन, माधव, कान्हा, छलिया, माखनचोर हैं। वे जितने दूर तक कृष्ण हैं, वे द्वारकाधीश हैं; वे जितने दूर तक कान्हा हैं, वे गोपाल हैं। कान्हा या कन्हैया नाम का मूल अर्थ नहीं पता। संस्कृत मूल का यह शब्द नहीं लगता। अन्य नामों के अर्थ अधिकांश को भी विदित हैं, परंतु इस नाम का कृष्ण के अतिरिक्त कोई और अर्थ विदित या निगमित नहीं हो पाता। कान्हा या कन्हैया शब्द कहीं कन्हाई भी हो जाता है। इनके अलग-अलग अर्थ बताए जाते हैं, जैसे… सुंदर बालक, नटखट किशोर, बाँका युवक, प्रिय व्यक्ति आदि। परंतु यह तो भाव हुआ, विशेषण की व्युत्पत्ति तो न हुई। वैसे तो गिरिधर, तुम्हारे गोवर्धन के साथ बचपन बोलता है। वंशीधर, तुम्हारी वंशी के साथ कैशोर्य डोलता है। और चक्रधर, तुम्हारे चक्र के साथ यौवन मचलता है। परंतु प्रौढ़पन का क्या…?
अगर ग्रंथ से जाने तो, गिरिधर बनने में तुम्हारी करुणा है, संरक्षकता है। वंशीधर बनने में तुम्हारा प्रेम है, सुंदर मधुरता है। चक्रधर बनने में तुम्हारी मैत्री है, शत्रुंजयता है।
इन तीनों में वह कहाँ है, जो स्थितप्रज्ञता है?
तुम्हीं कहते हो, स्थितप्रज्ञता तो तब है, जब कामनाएँ छूट जाएँ, मन अपने आप में तृप्त हो जाए। तब तुम्हारी भी कामना क्या बाधा न बनेगी। तुम्हारी साध भी तब साध्य में कुछ अवरोध न हो जाए। बोध यह भी जगता है कि जब तुम धरती पर आए होगे, अच्युत, निर्विकार बने, इतने समय जग में रह कर भी क्या स्थितप्रज्ञता बचाए रह पाए होगे? कुछ अभीप्सा, स्पृहा साथ न गई होगी, भक्तों की, अनुरक्तों की, अतृप्तों की, संतप्तों की। यौवन की तृषाएँ प्रौढ़पन में मानव की भी सिमट ही जाती हैं। और फिर मन यह सोच बैठता है कि जब महाभारत बीता होगा, या फिर उससे भी पहले जब गोकुल छूटा होगा, तुम द्वारका पहुँचे होगे… तब वहाँ तुम्हारे मधुर गीत क्या गंभीर गीता न बन गए होंगे। तुम्हारा वंशीनिनाद क्या अनहद-निनाद न बन गया होगा। अंततः तुम्हारा मक्खन-मिश्री का स्वाद भी क्या गंगाजल-तुलसीदल तक सीमित न हो गया होगा।
कृष्ण… युग बीत गए। नया युग के साथ नया मन अब विश्वास भी न करेगा शायद कि तुम कभी गिरिधर भी बने थे। वैज्ञानिक हुआ मन भीषण शस्त्रास्त्रों के युग में तुम्हारे चक्रधर होने भर से आश्वस्त भी न होगा। बहुत तार्किक हुआ अब यह नये युग का मन लेकिन फिर भी हमें ऐसा लगता है कि तुम्हारे वंशीधर रूप में कुछ माधुर्य पा ही लेगा, परंतु विभोर हो आबद्ध हो जाएगा, इसका तो यकीन नहीं। लेकिन अब मन बस यही चाहता है कि तुम और कुछ भी न धरो अपने अधरो पर, बस तुम धरो मेरा हाथ, तो बस वैसे ही जैसे कोई मित्र ले लेता है हाथ मित्र का मैत्री में, या फिर बूढ़े पकड़ लेते हैं हाथ, डगमग चलते बच्चे का, वात्सल्य में या फिर बच्चे ही पकड़ लेते हैं, बड़ों की उँगली, आश्वस्ति में। बिल्कुल अब वैसे थामो मेरा हाथ।
कहते हैं कृष्ण का जन्म जगत के लिए एक क्रांतिकारी घटना है। कृष्ण का ज्ञान हमारे लिए सबसे अधिक प्रासांगिक है। वे हमें न तो सांसारिक कार्यो में खोने देती है न ही हमे जगत से पूरी तरह से उदासीन होने देती है। कृष्ण इतने अपने से लगते है उनकी चर्चा मात्र से मन अपनी उदासी भूल जाता है। कृष्ण की चर्चा में एक रस है। युवा हो या वृद्ध… साधु हो या संसारी सभी के दिल मे कृष्ण के लिए एक कोना हमेशा आरक्षित मिलेगा। कृष्ण को किसी एक आयाम में बाधा नही जा सकता नही परिभाषित किया जा सकता है। जीवन के हर अवस्था मे वह पूर्ण मिले, बालक के रूप में वह सभी के प्यारे थे और सुंदर थे एक किशोर के रूप में बहु प्रतिभाशाली औऱ राधा के प्रिय थे। वयस्क में चतुर, बुद्धिमान वीरता से भरे थे, सच्चे मित्र, राजनीतिज्ञ एक महान शिक्षक और गुरु थे। कृष्ण उस सबके केंद्र में है, जो हर्षित और आकर्षक है।कृष्ण वह निराकार केंद्र है जो हर जगह है।कोई आकर्षण कही से भी उत्पन्न क्यो न हुआ हो वह कृष्ण से प्रगट है। ऋषियो ने कृष्ण को पूर्ण अवतार माना वही जगत ने पूर्ण पुरुष। देखा जाए तो कृष्ण का पूरा जीवन सघर्षो से भरा था सब कुछ विपरीत होने पर भी वह मुस्कुराते रहते थे, जिस कौसल और संयम के साथ कठिन परिस्थितियों को संभाला यह उनके संतुलन का प्रतीक है। कृष्ण के जीवन मे सुख भी था और दुख भी, राधा से बिछुड़ने की वेदना भी थाऔर कर्म के प्रति सजगता भी था। कृष्ण का पूरा जीवन एक संतुलन तो था। कृष्ण का हर चरित्रऔर हर रूप एक प्रेरणा ही तो है। वह द्वारकाधीश औऱ योगेश्वर दोनो है वह सांसारिक भी है औऱ योगी भी। कृष्ण हर उस व्यक्ति के लिए आदर्श प्रतीक है, जो अपनी क्षमता को विकसित करना चाहता है।

वीरों की दहाड़ होगी क्षत्रियों की ललकार होगी,आ रहा हैं वक्त जब फिर क्षत्रियों की भरमार होगी।

वीरों की दहाड़ होगी क्षत्रियों की ललकार होगी,
आ रहा हैं वक्त जब फिर क्षत्रियों की भरमार होगी।
लत क्षत्रियों की लगी हैं, तो नशा अब सरे आम होगा,
हर लम्हा मेरे जीवन का सिर्फ, क्षत्रिय के नाम होगा।
हमसे उम्मीद मत रखना की हम कुछ और लिखेंगे,
हम क्षत्रिय हैं साहब, जब भी लिखेंगे जय मां भवानी,
जय राजपूताना, जय श्री राम लिखेंगे।
जब उठेगी क्षत्रियों की तलवार, कोहराम ही मच जाएगा,
इतिहास की तुम चिंता ना करो, पूरा भुगोल ही बदल जाएगा।
जब जब उठेगी ऊंगली क्षत्रिय पे, खून मेरा खौलेगा,
जब जब धङकेगा हृदय मेरा, जय भवानी बोलेगा ॥
खून अपना गरम हैं, क्योंकि क्षत्रिय अपना धर्म हैं।
जो क्षत्रिय मां भवानी और महाराणा प्रताप का नहीं, वह किसी काम का नहीं।
चीर कर बहा दो लहू दुश्मन के सीने का,
यही तो मजा हैं, क्षत्रिय होकर जीने का।
कट्टर क्षत्रिय शेर हूँ, बड़ा ही दिलेर हूँ,
प्यार दिखायेगा तो जान वार दूंगा, गद्दारी दिखायेगा तो चीरफाड दूंगा।
मुश्किल में हैं क्षत्रिय, अब जल्लाद बनना होगा,
तुझे महाराणा प्रताप और मुझे राम बनना ही होगा।
डरते वो लोग हैं, जो मरने के बाद भी जमीन में मुंह छुपा लेते हैं,
अरे हम तो क्षत्रिय हैं, जो मरने के बाद भी आग से खेल जाते हैं।
अगर हुआ मेरे धर्म पर घात तो मैं प्रतिघात करूँगा,
मैं क्षत्रिय हूँ, क्षत्रियों की ही बात करूँगा। जय श्री राम
जलते हैं तो जलने दो, बुझना मेरा काम नही,
जलाकर राख न कर दु, तो क्षत्रिय मेरा नाम नही।
चीर के बहा दो लहू, दुश्मन के सीने का,
यही तो अंदाज हैं, क्षत्रियों के जीने का।
“घमंड की बीमारी” शराब जैसी हैं साहब,
खुद को छोड़कर सबको पता चलता हैं कि इसको चढ़ गयी हैं।
धूल चटा दो गिद्धों को, जो घर में घुसकर घात करें,
और जीभ काट लो उन कुत्तों की जो क्षत्रिय के खिलाफ बात करें।
क्षत्रिय होना भाग्य हैं, पर कट्टर क्षत्रिय होना सौभाग्य हैं।
तुम जितना मुझसे टकराओगे, मैं उतना कट्टर क्षत्रिय बनता जाऊंगा ।।
।। जय मां भवानी।।
।। जय राजपुताना।।

#जय_राजपूताना #तालिबान का #अफगानिस्तान पर कब्जा !!

ये लाइन भारत में पढ़ने वाले उन लोगो के लिए एक सीख है जो हर बात पर भारत के क्षत्रिय राजाओं को मन भर गालियां देते है उन्हे बुरा भला कहते है,उन्हें अंग्रेजो का गुलाम,मुगलों का गुलाम,तुर्की का गुलाम पता नही क्या क्या !
और कहते हैं उन्होंने केवल गुलामी की हमारे लिए क्या किया !! उनके लिए प्रत्यक्ष उदाहरण है तालिबानी कब्जे के बाद लोगो का अफगानिस्तान छोड़कर भागना !! इसको देखो और महसूस करो की तुम हिंदू थे हिंदू ही हो अभी भी इससे भी क्रूर आतंक झेलकर !
वो कभी इन लोकतंत्र के राजाओं की पॉलिसी की “जान बची तो लाखों पाए” पढ़ाकर भागे नही, उन्होंने अपने क्षत्रिय धर्म के अनुसार प्रजा पुत्र समान होती है और उनकी रक्षा हमारा धर्म है चाहे जैसी भी परिस्थिति हो सामना करे न की छोड़कर भागे !! वे सहते रहे,लड़ते रहे, कटते रहे पर आपको बचाए रखा !!
उनकी जनसंख्या 1% के नीचे पहुंच गई पर तब भी बाहुल्य थे आज भी हैं,उन्होंने इसकी परवाह नही की !! आज बच्चो के बचाने के लिए लोग कानून खरीद लेते है लेकिन उन्होंने आपके लिए अपने उन बच्चो का भी बलिदान दिया जिनकी उम्र हसने खेलने की थी !!
इतनी तबाही झेली की 18 वर्ष तक के बच्चे तो गिनने को भी नही मिल रहे थे पर संघर्ष जारी था किसके लिए,कुछ लोग कह देंगे अपने लिए अपने। बीबी व बच्चो के लिए तो अगर ऐसा होता तो वे उनको जौहर और युद्ध के लिए तैयार ना करते तुम्हे बेचकर खुद को सुरक्षित कर लिए होते और तुम कुछ उखाड़ भी न पाते !! आजकल के बच्चे मुगलों और अंग्रेजों का इतिहास पढ़ कर अपने ही देश के राजाओं का मजाक उड़ाते है उन्हे बुरा भला कहते है जबकि ये उन्ही की देन है की आज आप नाम में गर्व से फलाना ढिकाना लिखते हो सब उन्ही की देन है ।
नही तो आज कलमा पढ़ रहे होते !!
आजादी के 75 साल बाद भी आज तुम जिन नेताओं की गुलामी करते हो उन्होंने भारत में इतना ही विकाश किया है
भारत की आधी इकोनॉमी उन राजाओं के दान किए हुए किलो के टूरिज्म और उनके बनाए गढ़ों से आती है !!
वो दिन दूर नही है जब आप सब अफगानिस्तान की तरह देश छोड़कर भागोगे और आपके आसपास फिर उन्ही के वंशज लड़ते दिखाई देंगे जिनको आज तुम गाली देते हो …… और कहते हो की ये बहुत लड़ाकू होते है लड़ते झगड़ते है छोटी छोटी बातों पर जान से मारने को दौड़ते है इनके अलावा किसी की चलने नही पाती इसका जो नेगेटिव भाव निकालते हो,उसकी सच्चाई ये है इनके इन्ही गुणों के कारण तुम सुरक्षित हो ये जिस भी क्षेत्र में 5% है ना वहा किसी माई के लाल की हिम्मत नही की बाहर से आकर गांव में किसी को हाथ लगा दे वो चाहे जिस जाति,धर्म का हो ……ये इनके स्वाभाविक गुण है
क्षत्रियों के ना पूर्वज कभी ऐसे छोड़कर भागे थे जैसे अफगानिस्तान के भाग रहे है, ना उनके वंशज कभी छोड़कर भागेंगे !!
अभी भी समय है आंख खोलकर देखो और पहचानो इन गंगा जमुनी तहजीब वालो का ये केवल इंतजार कर रहे हैं तो समय का !!
और ये दबे हैं तो सिर्फ उन्ही की वजह से जिनको तुम गाली देते हो,ये दबते है तो सिर्फ उन्ही से जो एक एक मैटर पर गांव फूंक देने की क्षमता रखते है न कि तुम्हारी वजह से जो रोज हम 100 करोड़ है हम 100 करोड़ है की गिनती करते हो !!
राजपूत संख्या आज कम है तो इस बजह से क्योकि इन्होंने अपनी तीन तीन पीढ़ियां इस भारत भूमि पर कुर्बान की हैं हमें हिन्दू बनाये रखने के लिए कुर्बान की हैं नेत्र खोलो और सच से परिचित हो योद्धओं का सम्मान करो..
हमारे ग्रंथो के साथ, इतिहास के साथ छेड़छाड़ हुई थी और अब भी बहुत लोग इसे मिटाने पर तुले, कल को इतिहास ना रहा तो खून पानी हो जाएगा।
अभी ऊर्जा उनका इतिहास पढ़ कर ही मिलती है
Note – यहां ज्ञान देने की कोशिश न करें ,खुद का ही ओवर फ्लो है
जय हिंद
जय भवानी
जय राजपुताना

क्षत्रिय पढ़ना जरूर ये सच्चाई है आप इसको जब मानोगे तब सब कुछ खत्म हो जाएगा

#क्षत्रिय पढ़ना जरूर ये सच्चाई है आप इसको जब मानोगे तब सब कुछ खत्म हो जाएगा#
संघ का दीर्घकालीन एजेंडा है कि हिन्दू समाज मे सिर्फ दो जातियाँ रहे एक ब्राम्हण और एक सामान्य हिन्दू। इसीलिए संघ हिन्दू वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत शूद्र वर्ण में आने वाली जातियों का क्षत्रियकरण कर रही है, वो समाज मे जाति और गोत्र के नाम पर इतना भ्रम उत्पन्न कर रही है कि लोग स्वतः ऊबकर जाति पाँति से दूर हो जाये । इसमें नुकसान सिर्फ क्षत्रियों का है क्योंकि न अब राजपूतों के राज रहे न ही जमीदारी और जमीन । जो अतीत का गौरव था जिस पर राजपूत गर्व की अनुभूति करता था उसे संघ द्वारा विवादित कर स्वाभिमान और सम्मान पर भी प्रहार किया जा रहा है। संघ जानता था की क्षत्रिय उसके राष्ट्रीय एकात्मवाद के सिद्धांत में बाधक बनेंगे अतः उन्होंने सबसे पहले क्षत्रिय महापुरुषों को विवादित कर सिर्फ हिन्दू घोषित किया और और राजपूतों के टाइटल अन्य वर्गों को लिखने के लिए प्रेरित किया(1931 कि जनगणना और ब्रिटिश गजेटियरों में जो जातियाँ अपना टाइटल वर्तमान में बदली है इन दस्तावेजों में उन्होंने अपनी मूल जाती ही लिखवाया है उदारहण इन अहीर को अहीर ही लिखा गया है ) जिससे समाज मे भ्रम उत्पन्न करके नकली छतरी उत्पन्न किए जा सके। और राजपूत समाज को कई अन्य समाज से लड़वाकर इनकी सामाजिक और राजनैतिक हैसियत को खत्म किया जा सके। सबूत के लिए संघ के नागपुर कार्यालय से छपने वाले साहित्य को देखे। संघ समाज मे सबसे ज्यादा विजातीय शादियों को प्रोत्साहित करता है।
संघ उन राजपूत नेताओं को आगे बढ़ाने में मदद करता है जो राजपूत समाज के लिए घातक होते है उदाहरण के लिए संघ ऐसे नेताओं को आगे बढ़ाता है जो विजातीय शादी या समगोत्रीय विवाह किए होते है ऐसे लोगो को आइकॉन बनाकर संघ क्षत्रिय समाज के युवकों को दिग्भ्रमित करना चाहता है।अतः हमारा मूल दुश्मन संघ है ना कि कोई जाति या जातीय संघटन सभी विवादों के मूल में संघ है। और हम लोगो ने इस समस्या का निराकरण नही किया तो इसी देश मे संघ हमें विदेशी घोषित करवाकर हमारे दुर्दिन को ला देगा आपको पता नही है कि इन 75 वर्षों में आपने क्या नही खोया । आपके मान सम्मान स्वाभिमान सब पर चोट किया गया। आज लोग जौहर, शाका, और जुझार का मजाक उड़ा रहे हैं और हम कुछ नही कर पा रहे है । हमें सामंती कहा जाता है हमारे पूर्वजों ने ये बलिदान समाज के लिए किया था और वही समाज हमारा मजाक उड़ा रहा है। सबसे पहले हम क्षत्रियों को क्षेत्र और कुलों के आधार पर नही बटना है राजपूत चाहे कश्मीर का हो या नेपाल का गुजरात का हो या उत्तर प्रदेश का राजपूत सिर्फ राजपूत है। कुल चाहे जो भी हम एक है । अगर हम एकजुट नही हुए तो हमारा कोई अस्तित्व नही होगा। ये ध्यान रहे।