भगवान जगन्नाथ: अद्भुत है यह पावन यात्रा, रथ पर सवार होकर निकलते हैं…आइए जानते इनके बारे में..

DESK : हर साल आषाढ़ माह में शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को उड़ीसा के पुरी में भगवान श्री जगन्नाथ की पावन रथयात्रा का आयोजन किया जाता है। भगवान श्रीकृष्ण के स्वरूप भगवान जगन्नाथ अपना स्थान छोड़कर नौ दिनों के लिए अपनी मौसी के घर जाते हैं। इस अद्भुत यात्रा से जुड़े कई रोचक तथ्य हैं, आइए जानते इनके बारे में।

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रथयात्रा के दौरान भगवान जगन्नाथ, भाई बलभद्र और बहन देवी सुभद्रा के साथ नौ दिनों की यात्रा पर निकलते हैं। इस यात्रा में सबसे आगे बलभद्र का रथ चलता है। मध्य में सुभद्रा जी का रथ और अंत में भगवान श्री जगन्नाथ का रथ चलता है। रथयात्रा के दौरान भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियों को तीन अलग-अलग दिव्य रथों पर रखकर नगर भ्रमण कराया जाता है।

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इस दौरान जगन्नाथ मंदिर में भगवान का स्थान खाली हो जाता है। रुकमणी जी जो माता लक्ष्मी का अवतार हैं वहीं मुख्य जगन्नाथ मंदिर में विराजमान रहती हैं। इन नौ दिनों में संपूर्ण पूजा पाठ गुंडिचा मंदिर में ही संपन्न होता है। पुरी स्थित गुंडिचा मंदिर को भगवान की मौसी का घर माना जाता है।

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इन तीनों रथों में किसी तरह की धातु का इस्तेमाल नहीं किया जाता है। इनका निर्माण तीन प्रकार की पवित्र लकड़ियों से किया जाता है। रथ का निर्माण कार्य अक्षय तृतीया से शुरू किया जाता है। भगवान जगन्नाथ का रथ 16 पहियों का होता है। बलभद्र जी और सुभद्रा जी के रथ भगवान जगन्नाथ जी के रथ से छोटे होते हैं। यह रथ नीम की लकड़ी से बनाया जाता है।

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नीम के किस पेड़ से लकड़ी का चयन होगा इसका निर्णय जगन्नाथ मंदिर समिति तय करती है। भगवान के रथ में एक भी कील या कांटे का प्रयोग नहीं होता। यहां तक की कोई धातु भी रथ में नहीं लगाई जाती है। रथ को जिस रस्सी से खींचा जाता है, वह शंखचूड़ नाम से जानी जाती है। गुंडिचा मंदिर में भगवान श्री जगन्नाथ के दर्शन को ‘आड़प-दर्शन’ कहा जाता है। दसवें दिन सभी रथ पुन: मुख्य मंदिर की ओर लौटते हैं। रथों के वापसी यात्रा की रस्म को बहुड़ा यात्रा कहते हैं।

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