महावीर आला-उदल को वरदान देने वाली मां शारदा देवी को पूरे देश में मैहर की माता के नाम से भक्तों के बीच में जाना जाता है। चित्रकूट से लगे सतना जनपद में स्थित मैहर कस्बे में लगभग 600 फुट की ऊंचाई वाले इस पर्वत पर विराजमान आदिशक्ति के दर्शनों के लिए भक्तों को मंदिर की 1001 सीढिय़ां चढऩी पड़ती थीं। अब रोपवे बनने से यह कठिनाई दूर हो गयी है।
इस तीर्थस्थल के सन्दर्भ में अनेक दन्तकथाएं प्रचलित है। कहते हैं आज से 200 साल पहले मैहर में महाराज दुर्जन सिंह जुदेव राज्य करते थे। उन्हीं कें राज्य का एक ग्वाला गाय चराने के लिए जंगल में आया करता था। इस घनघोर भयावह जंगल में दिन में भी रात जैसा अंधेरा छाया रहता था। तरह-तरह की डरावनी आवाजें आया करती थीं। एक दिन उसने देखा कि उन्हीं गायों के साथ एक सुनहरी गाय कहां से आ गई और शाम होते ही वह गाय अचानक कहीं चली गई। दूसरे दिन जब वह इस पहाड़ी पर गायें लेकर आया तो देखता है कि फिर वही गाय इन गायों के साथ मिलकर घास चर रही है। तब उसने निश्चय किया कि शाम को जब यह गाय वापस जाएगी, तब उसके पीछे-पीछे जाएगा।
गाय का पीछा करते हुए उसने देखा कि वह ऊपर पहाड़ी की चोटी में स्थित एक गुफा में चली गई और उसके अंदर जाते ही गुफा का द्वार बंद हो गया। वह वहीं गुफा द्वार पर बैठ गया। उसे पता नहीं कि कितनी देर कें बाद गुफा का द्वार खुला। लेकिन उसे वहां एक बूढ़ी मां के दर्शन हुए। तब ग्वाले ने उस बूढ़ी महिला से कहा, ‘माई मैं आपकी गाय को चराता हूं, इसलिए मुझे पेट के वास्ते कुछ मिल जाए। मैं इसी इच्छा से आपके द्वार आया हूं।’ बूढ़ी माता अंदर गई और लकड़ी के सूप में जौ के दाने उस ग्वाले को दिए और कहा, ‘अब तू इस भयानक जंगल में अकेले न आया कर।’ वह बोला, ‘माता मेरा तो जंगल-जंगल गाय चराना ही काम है। लेकिन मां आप इस भयानक जंगल में अकेली रहती हैं? आपको डर नहीं लगता।’ तो बूढ़ी माता ने उस ग्वाले से हंसकर कहा- बेटा यह जंगल, ऊंचे पर्वत-पहाड़ ही मेरा घर हैं, में यही निवास करती हूं। इतना कह कर वह गायब हो गई। ग्वाले ने घर वापस आकर जब उस जौ के दाने वाली गठरी खोली, तो वह हैरान हो गया। जौ की जगह हीरे-मोती चमक रहे थे। उसने सोचा- मैं इसका क्या करूंगा। सुबह होते ही महाराजा के दरबार में पेश करूंगा और उन्हें आप बीती कहानी सुनाऊंगा।
दूसरे दिन भरे दरबार में वह ग्वाला अपनी फरियाद लेकर पहुंचा और महाराजा के सामने पूरी आपबीती सुनाई। उस ग्वाले की कहानी सुन राजा ने दूसरे दिन वहां जाने का ऐलान कर, अपने महल में सोने चला गया। रात में राजा को स्वप्न में ग्वाले द्वारा बताई बूढ़ी माता के दर्शन हुए और आभास हुआ कि आदि शक्ति मां शारदा है। स्वप्न में माता ने राजा को वहां मूर्ति स्थापित करने की आज्ञा दी और कहा कि मेरे दर्शन मात्र से सभी की मनोकामनाएं पूरी होंगी। सुबह होते ही राजा ने माता के आदेशानुसार सारे कर्म पूरे करवा दिए। शीघ्र ही इस स्थान की महिमा चारों ओर फैल गई। माता के दर्शनों के लिए श्रद्धालु दूर-दूर से यहां पर आने लगे और उनकी मनोवांछित मनोकामना पूरी होती गई। इसके पश्चात माता के भक्तों ने मां शारदा को सुंदर भव्य तथा विशाल मंदिर बनवा दिया। इस समय मंदिर का पूरा कार्य शारदा समिति की जिम्मेदारी पर चल रहा है, जिसके अध्यक्ष सतना के जिलाधिकारी है।
मंदिर के इतिहास की बात करें तो मां शारदा की प्रतिष्ठापित मूर्ति चरण के नीचे अंकित एक प्राचीन शिलालेख से मूर्ति की प्राचीन प्रामाणिकता की पुष्टि होती है। मैहर नगर के पश्चिम दिशा में चित्रकूट पर्वत में श्री आद्य शारदा देवी तथा उनके बायीं ओर प्रतिष्ठापित श्री नरसिंह भगवान की पाषाण मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा आज से लगभग 1994 वर्ष पूर्व विक्रमी संवत् 559 शक 424 चैत्र कृष्ण पक्ष चतुर्दशी, दिन मंगलवार, ईसवी सन् 502 में तोर मान हूण के शासन काल में श्री नुपुल देव द्वारा कराई गई थी।
शारदा प्रबंध समिति के बेटू महाराज बताते हैं, ‘जनवरी 1997 में शारदा मां के दरबार में इलाहाबाद के रहने वाले एक भक्त ने मां को भेड़ चढ़ाया था। उस वक्त बिल्ला की उम्र महज दस दिन की थी। उन्होंने बेजुबान पशु को उसी दिन से अपने पास रख लिया। वह कहीं भी रहे, आरती के समय मां के दरबार में पहुंच जाता। ग्राम मझियार के रमेश तिवारी कहते है, ‘बिल्ला उन्हें अपना दुश्मन मानता है, जो बकरा लेकर मंदिर आते है। यदि बिल्ला किसी को बकरा लेकर सीढिय़ों की ओर आता देख लेता है, तो उसका ऊपर जाना मुश्किल कर देता है।’
दूसरी ऐतिहासिक घटना के अनुसार, आल्हा- उदल नाम के दो भाई माता के परम भक्त थे। बारह साल तक कठोर साधना के उपरांत, माता शारदा ने दोनों को अमरत्व का वरदान दिया था। कहत है कि दोनों भाइयों ने भक्ति-भाव से अपनी जीभ शारदा को अर्पण कर दी थी, जिसे मां शारदा ने उसी क्षण वापस कर दिया था।
रिपोर्ट- अनूप नारायण सिंह