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प्राचीन गुर्जरात्रा (गुर्जरदेश) और आधुनिक गुजरात राज्य मे क्या अंतर है?

प्राचीन गुर्जरात्रा (गुर्जरदेश) और आधुनिक गुजरात राज्य मे क्या अंतर है?—
प्राचीन गुर्जरात्रा या असली गुजरात आज के दक्षिण पश्चिम राजस्थान में था,इसमें आज के राजस्थान के पाली,जालौर, भीनमाल, सिरोही, बाड़मेर का कुछ हिस्सा, कुछ हिस्सा जोधपुर व् कुछ हिस्सा मेवाड़ का सम्मिलित था, (इस प्राचीन प्रदेश का नामकरण 5 वी सदी के आसपास गुर्जरात्रा क्यों हुआ, औऱ कब से यह गौड़वाड़ कहलाने लगा, इसके विषय में अलग से पोस्ट करूँगा)। जो आज का गुजरात राज्य है वो उस समय तीन हिस्सों में अलग अलग विभाजित था,
1-आनर्त (आज के उत्तर गुजरात का इलाका)
2-सौराष्ट्र
3-लाट (आज का दक्षिण गुजरात)
भीनमाल प्राचीन गुर्जरात्रा की राजधानी थी, जिस पर हर्षवर्धन के समय चावड़ा राजपूत व्याघ्रमुख शासन करते थे। उस समय चावड़ा क्षत्रिय गुर्जरात्रा के शासक होने के कारण गुर्जरेश्वर कहलाते थे। सम्राट वत्सराज की गल्लका प्रशस्ति के अनुसार प्राचीन गुर्जरात्रा पर इसके कुछ समय बाद ही नागभट्ट प्रतिहार ने कब्जा कर लिया तथा इस गुर्जरात्रा प्रदेश के शासक बनने के कारण वो भी गुर्जरेश्वर कहलाए। लक्ष्मनवंशी रघुकुली क्षत्रिय नागभट्ट प्रतिहार ने चावड़ा क्षत्रियों से ही गुर्जरात्रा प्रदेश को जीता था।
चावड़ा वंश का शासन भीनमाल से समाप्त हो गया और उन्होंने प्राचीन आनर्त देश(आज के गुजरात का उत्तरी भाग को आनर्त देश कहा जाता था) में पाटन अन्हिलवाड़ को राजधानी बनाया तथा अपने प्राचीन राज्य गुर्जरात्रा की स्मृति में नए स्थापित राज्य का नाम भी गुर्जरात्रा रख दिया।
चावड़ा वंश को उनके लेखों में चापोतक्ट लिखा मिलता है ,इन्हें परमार राजपूतो की शाखा माना जाता है। अभी भी राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश में चावड़ा वंश की आबादी है, गुजरात मे तो चावड़ा राजपूतो की आज भी स्टेट हैं। इस प्रकार प्राचीन आनर्त देश ही बाद में गुर्जरात्रा या गुजरात राज्य के रूप में प्रसिद्ध हुआ, पर प्रारम्भ में इसमें पाटन, साबरकांठा, मेहसाणा, बनासकांठा आदि ही शामिल थे,
दसवीं सदी में अंतिम चावड़ा शासक सामंतसिंह के बाद उनके रिश्तेदार मूलराज सोलंकी इस गुर्जरात्रा प्रदेश के स्वामी बने, इस कारण मूलराज सोलंकी व उनके वंशज भी गुर्जरेश्वर या गुर्जरराज कहलाए।
कालांतर में अन्हिलवाड़ा के सोलंकी राजवंश ने लाट क्षेत्र (आज का दक्षिण गुजरात) को भी अपने अधीन कर लिया और आनर्त व लाट का संयुक्त क्षेत्र अब गुर्जरात अथवा गुजरात कहे जाने लगे।। ये सोलंकी राजपूत राजा भी इस नए गुजरात पर शासन करने के कारण ही गुरजेश्वर कहलाए। किन्तु सौराष्ट्र कच्छ का इलाका इस गुजरात से अलग ही रहा। कालांतर में गुजराती भाषा का प्रचार प्रसार सौराष्ट्र में भी हो गया और 1947 के बाद समान भाषा के नाम पर जिस गुजरात नामक प्रदेश का निर्माण हुआ उसमे सौराष्ट्र और कच्छ का इलाका भी जोड़ दिया गया।
इस प्रकार ही आधुनिक गुजरात राज्य अस्तित्व में आया जबकि असली या प्राचीन गुजरात राज्य आज के दक्षिण पश्चिम राजस्थान के हिस्से को कहा जाता था जो आज के गुजरात से बिल्कुल अलग था। जब आनर्त और लाट का संयुक्त हिस्सा नवीन गुजरात के रूप में प्रसिद्ध हो गया था तो प्राचीन गुर्जरात्रा प्रदेश का नाम भी समय के साथ बदलकर गौड़वाड़ हो गया, जो आज राजस्थान के पाली जालौर सिरोही के संयुक्त क्षेत्र को कहा जाता है। आधुनिक पशुपालक गुज्जर जाति की जनसंख्या न तो प्राचीन गुर्जरात्रा में है न ही आधुनिक गुजरात राज्य में इन गुज्जरों की कोई आबादी है।
न तो प्राचीन गुजरात में गुज्जर हैं न आधुनिक गुजरात में गुज्जर हैं!!! न प्रतिहारों की प्राचीनतम राजधानी भीनमाल और मंडोर में गुज्जर हैं।
न ही प्रतिहारों के सबसे विशाल राज्य की राजधानी कन्नौज में गूजरों की कोई आबादी है!! न ही आज गूजरों में कोई प्रतिहार परिहार वंश मिलता है, गुजरात और कन्नौज में तो कोई जानता ही नही कि गुज्जर जाति होती क्या है!!! फिर किस आधार पर ये प्रतिहार वंश और गुजरात पर दावा ठोकते हैं?? इसी प्रकार 18 वी सदी में गुजरात मे बड़ौदा पर शासन स्थापित करने वाले गायकवाड़ मराठा भी गुरजेश्वर कहलाए जाते हैं। गुरजेश्वर गुर्जराधिपति आदि उपाधियों का अर्थ है गुजरात प्रदेश के शासक न कि गुज्जर जाति के शासक, ये बात गुज्जर भाइयो को समझ लेनी चाहिए।
आमेर के कच्छवाह राजपूत शासक मल्यसी को भी गुजरात पर अधिकार करने के कारण एक जगह गुर्जरराज लिखा मिलता है।
महात्मा गांधी व मौहम्मद अली जिन्ना भी बॉम्बे की संस्था ‘गुर्जर सभा’ के सदस्य थे क्योंकि दोनो गुजराती थे। दक्षिण अफ्रीका से लौटने पर आयोजित समारोह में जिन्ना ने मोहनदास करमचंद गांधी को सभी गुर्जरों का गौरव बताया था। यहां गुर्जर जातिसूचक नही स्थानसूचक है।
क्या आप महात्मा गांधी व जिन्ना को भी गुज्जर कहोगे? इसी प्रकार “गुर्जर गौड़ ब्राह्मण अर्थात गुर्जरात्रा प्रदेश से आए गौड़ ब्राह्मण न कि गुज्जर जाति के गौड़ ब्राह्मण” इसी प्रकार गुर्जर सुथार या गुर्जर बनिये भी मिलते हैं जो स्थानसूचक हैं न कि जातिसूचक। इसी प्रकार प्राचीन गुर्जरात्रा या आधुनिक गुर्जरात्रा के शासक क्षत्रिय राजवंश चावड़ा, प्रतिहार, सोलंकी गुर्जरेश्वर या गुर्जरराज कहलाए ,वो स्थानसूचक है न कि जातिसूचक।
इनका उत्तर भारत के राजस्थान, वेस्ट यूपी, पंजाब, जम्मू कश्मीर ,चंबल क्षेत्र की परम्परागत पशुपालक व बाद में कृषक बनी गुज्जर जाति से कोई सम्बन्ध नही है।। कृपया वामपंथी इतिहाकारो के बहकावे में आकर सदियों से हम सबके पुरखो द्वारा स्थापित किया गया सौहार्द ,प्रेम व भाईचारा समाप्त न करें

“मरण नै मेडतिया अर राज करण नै जौधा “ “मरण नै दुदा अर जान(बारात) में उदा ”

आततायी अकबर से चित्तौड़गढ़ के दुर्ग की रक्षार्थ हुए शाके के नायक एवं राव दूदा की भक्ति परंपरा को आगे बढ़ाने वाले एकनिष्ठ कृष्ण भक्त जयमल जी मेड़तिया की #जयंती पर सादर वंदन
“मरण नै मेडतिया अर राज करण नै जौधा “
“मरण नै दुदा अर जान(बारात) में उदा ”
उपरोक्त कहावतों में मेडतिया राठोडों को आत्मोत्सर्ग में अग्रगण्य तथा युद्ध कौशल में प्रवीण मानते हुए मृत्यु को वरण करने के लिए आतुर कहा गया है मेडतिया राठोडों ने शौर्य और बलिदान के एक से एक कीर्तिमान स्थापित किए है और इनमे राव जयमल का नाम सर्वाधिक प्रसिद्ध है | कर्नल जेम्स टोड की राजस्थान के प्रत्येक राज्य में “थर्मोपल्ली” जैसे युद्ध और “लियोनिदास” जैसे योधा होनी की बात स्वीकार करते हुए इन सब में श्रेष्ठ दिखलाई पड़ता है | जिस जोधपुर के मालदेव से जयमल को लगभग २२ युद्ध लड़ने पड़े वह सैनिक शक्ति में जयमल से १० गुना अधिक था और उसका दूसरा विरोधी अकबर एशिया का सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति था |अबुल फजल,हर्बर्ट,सर टामस रो, के पादरी तथा बर्नियर जैसे प्रसिद्ध लेखकों ने जयमल के कृतित्व की अत्यन्त ही प्रसंशा की है | जर्मन विद्वान काउंटनोआर ने अकबर पर जो पुस्तक लिखी उसमे जयमल को “Lion of Chittor” कहा |
राव जयमल का जन्म आश्विन शुक्ला ११ वि.स.१५६४ १७ सितम्बर १५०७ शुक्रवार के दिन हुआ था | सन १५४४ में जयमल ३६ वर्ष की आयु अपने पिता राव विरमदेव की मृत्यु के बाद मेड़ता की गद्दी संभाली | पिता के साथ अनेक विपदाओं व युद्धों में सक्रीय भाग लेने के कारण जयमल में बड़ी-बड़ी सेनाओं का सामना करने की सूझ थी उसका व्यक्तित्व निखर चुका था और जयमल मेडतिया राठोडों में सर्वश्रेष्ठ योद्धा बना | मेड़ता के प्रति जोधपुर के शासक मालदेव के वैमनस्य को भांपते हुए जयमल ने अपने सीमित साधनों के अनुरूप सैन्य तैयारी कर ली | जोधपुर पर पुनः कब्जा करने के बाद राव मालदेव ने कुछ वर्ष अपना प्रशासन सुसंगठित करने बाद संवत १६१० में एक विशाल सेना के साथ मेड़ता पर हमला कर दिया | अपनी छोटीसी सेना से जयमल मालदेव को पराजित नही कर सकता था अतः उसने बीकानेर के राव कल्याणमल को सहायता के लिए ७००० सैनिकों के साथ बुला लिया | लेकिन फ़िर भी जयमल अपने सजातीय बंधुओं के साथ युद्ध कर और रक्त पात नही चाहता था इसलिय उसने राव मालदेव के साथ संधि की कोशिश भी की, लेकिन जिद्दी मालदेव ने एक ना सुनी और मेड़ता पर आक्रमण कर दिया | पूर्णतया सचेत वीर जयमल ने अपनी छोटी सी सेना के सहारे जोधपुर की विशाल सेना को भयंकर टक्कर देकर पीछे हटने को मजबूर कर दिया स्वयम मालदेव को युद्ध से खिसकना पड़ा | युद्ध समाप्ति के बाद जयमल ने मालदेव से छीने “निशान” मालदेव को राठौड़ वंश का सिरमौर मान उसकी प्रतिष्ठा का ध्यान रखते हुए वापस लौटा दिए |
मालदेव पर विजय के बाद जयमल ने मेड़ता में अनेक सुंदर महलों का निर्माण कराया और क्षेत्र के विकास के कार्य किए | लेकिन इस विजय ने जोधपुर-मेड़ता के बीच विरोध की खायी को और गहरा दिया | और बदले की आग में झुलसते मालदेव ने मौका देख हमला कर २७ जनवरी १५५७ को मेड़ता पर अधिकार कर लिया उस समय जयमल की सेना हाजी खां के साथ युद्ध में क्षत-विक्षत थी और उसके खास-खास योधा बीकानेर,मेवाड़ और शेखावाटी की और गए हुए थे इसी गुप्त सुचना का फायदा मालदेव ने जयमल को परास्त करने में उठाया | मेड़ता पर अधिकार कर मालदेव ने मेड़ता के सभी महलों को तोड़ कर नष्ट कर दिए और वहां मूलों की खेती करवाई | आधा मेड़ता अपने पास रखते हुए आधा मेड़ता मालदेव ने जयमल के भाई जगमाल जो मालदेव के पक्ष में था को दे दिया | मेड़ता छूटने के बाद जयमल मेवाड़ चला गया जहाँ महाराणा उदय सिंह ने उसे बदनोर की जागीर प्रदान की | लेकिन वहां भी मालदेव ने अचानक हमला किया और जयमल द्वारा शोर्य पूर्वक सामना करने के बावजूद मालदेव की विशाल सेना निर्णायक हुयी और जयमल को बदनोर भी छोड़ना पड़ा | अनेक वर्षों तक अपनी छोटी सी सेना के साथ जोधपुर की विशाल सेना मुकाबला करते हुए जयमल समझ चुका था कि बिना किसी शक्तिशाली समर्थक के वह मालदेव से पीछा नही छुडा सकता | और इसी हेतु मजबूर होकर उसने अकबर से संपर्क किया जो अपने पिता हुमायूँ के साथ मालदेव द्वारा किए विश्वासघात कि वजह से खिन्न था और अकबर राजस्थान के उस समय के सर्वाधिक शक्तिशाली शासक मालदेव को हराना भी जरुरी समझता था |

जयमल ने अकबर की सेना सहायता से पुनः मेड़ता पर कब्जा कर लिया | वि.स.१६१९ में मालदेव के निधन के बाद जयमल को लगा की अब उसकी समस्याए समाप्त हो गई | लेकिन अकबर की सेना से बागी हुए सैफुद्दीन को जयमल द्वारा आश्रय देने के कारण जयमल की अकबर से फ़िर दुश्मनी हो गई | और अकबर ने एक विशाल सेना मेड़ता पर हमले के लिए रवाना कर दी | अनगिनत युद्धों में अनेक प्रकार की क्षति और अनगिनत घर उजड़ चुके थे और जयमल जनता जनता को और उजड़ देना नही चाहता था इसी बात को मध्यनजर रखते हुए जयमल ने अकबर के मनसबदार हुसैनकुली खां को मेड़ता शान्ति पूर्वक सौंप कर परिवार सहित बदनोर चला गया | और अकबर के मनसबदार हुसैनकुली खां ने अकबर की इच्छानुसार मेड़ता का राज्य जयमल के भाई जगमाल को सौंप दिया |
अकबर द्वारा चित्तोड़ पर आक्रमण का समाचार सुन जयमल चित्तोड़ पहुँच गया | २६ अक्टूबर १५६७ को अकबर चित्तोड़ के पास नगरी नामक गांव पहुँच गया | जिसकी सूचना महाराणा उदय सिंह को मिल चुकी थी और युद्ध परिषद् की राय के बाद चित्तोड़ के महाराणा उदय सिंह ने वीर जयमल को ८००० सैनिकों के साथ चित्तोड़ दुर्ग की रक्षा का जिम्मा दे स्वयम दक्षिणी पहाडों में चले गए | विकट योद्धों के अनुभवी जयमल ने खाद्य पदार्थो व शस्त्रों का संग्रह कर युद्ध की तैयारी प्रारंभ कर दी | उधर अकबर ने चित्तोड़ की सामरिक महत्व की जानकारिया इक्कठा कर अपनी रणनीति तैयार कर चित्तोड़ दुर्ग को विशाल सेना के साथ घेर लिया और दुर्ग के पहाड़ में निचे सुरंगे खोदी जाने लगी ताकि उनमे बारूद भरकर विस्फोट कर दुर्ग के परकोटे उड़ाए जा सकें,दोनों और से भयंकर गोलाबारी शुरू हुई तोपों की मार और सुरंगे फटने से दुर्ग में पड़ती दरारों को जयमल रात्रि के समय फ़िर मरम्मत करा ठीक करा देते |
अनेक महीनों के भयंकर युद्ध के बाद भी कोई परिणाम नही निकला | चित्तोड़ के रक्षकों ने मुग़ल सेना के इतने सैनिकों और सुरंगे खोदने वालो मजदूरों को मारा कि लाशों के अम्बार लग गए | बादशाह ने किले के निचे सुरंगे खोद कर मिट्टी निकालने वाले मजदूरों को एक-एक मिट्टी की टोकरी के बदले एक-एक स्वर्ण मुद्राए दी ताकि कार्य चालू रहे | अबुलफजल ने लिखा कि इस युद्ध में मिट्टी की कीमत भी स्वर्ण के सामान हो गई थी | बादशाह अकबर जयमल के पराकर्म से भयभीत व आशंकित भी थे सो उसने राजा टोडरमल के जरिय जयमल को संदेश भेजा कि आप राणा और चित्तोड़ के लिए क्यों अपने प्राण व्यर्थ गवां रहे हो,चित्तोड़ दुर्ग पर मेरा कब्जा करा दो मै तुम्हे तुम्हारा पैत्रिक राज्य मेड़ता और बहुत सारा प्रदेश भेंट कर दूंगा | लेकिन जयमल ने अकबर का प्रस्ताव साफ ठुकरा दिया कि मै राणा और चित्तोड़ के साथ विश्वासघात नही कर सकता और मेरे जीवित रहते आप किले में प्रवेश नही कर सकते |

जयमल ने टोडरमल के साथ जो संदेश भेजा जो कवित रूप में इस तरह प्रचलित है
है गढ़ म्हारो म्है धणी,असुर फ़िर किम आण |
कुंच्यां जे चित्रकोट री दिधी मोहिं दीवाण ||
जयमल लिखे जबाब यूँ सुनिए अकबर शाह |
आण फिरै गढ़ उपरा पडियो धड पातशाह |
एक रात्रि को अकबर ने देखा कि किले कि दीवार पर हाथ में मशाल लिए जिरह वस्त्र पहने एक सामंत दीवार मरम्मत का कार्य देख रहा है और अकबर ने अपनी संग्राम नामक बन्दूक से गोली दाग दी जो उस सामंत के पैर में लगी वो सामंत कोई और नही ख़ुद जयमल मेडतिया ही था | थोडी ही देर में किले से अग्नि कि ज्वालाये दिखने लगी ये ज्वालाये जौहर की थी | जयमल की जांघ में गोली लगने से उसका चलना दूभर हो गया था उसके घायल होने से किले में हा हा कार मच गया अतः साथी सरदारों के सुझाव पर जौहर और शाका का निर्णय लिया गया ,जौहर क्रिया संपन्न होने के बाद घायल जयमल कल्ला राठौड़ के कंधे पर बैठकर चल पड़ा रणचंडी का आव्हान करने | जयमल के दोनों हाथो की तलवारों बिजली के सामान चमकते हुए शत्रुओं का संहार किया उसके शौर्य को देख कर अकबर भी आश्चर्यचकित था | इस प्रकार यह वीर चित्तोड़ की रक्षा करते हुए दुर्ग की हनुमान पोल व भैरव पोल के बीच लड़ते हुए वीर गति को प्राप्त हुवा जहाँ उसकी याद में स्मारक बना हुआ है |
इस युद्ध में वीर जयमल और पत्ता सिसोदिया की वीरता ने अकबर के हृदय पर ऐसी अमित छाप छोड़ी कि अकबर ने दोनों वीरों की हाथी पर सवार पत्थर की विशाल मूर्तियाँ बनाई | जिनका कई विदेश पर्यटकों ने अपने लेखो में उल्लेख किया है | यह भी प्रसिद्ध है कि अकबर द्वारा स्थापित इन दोनों की मूर्तियों पर निम्न दोहा अंकित था |
जयमल बड़ता जीवणे, पत्तो बाएं पास |
हिंदू चढिया हथियाँ चढियो जस आकास ||
हिंदू,मुस्लमान,अंग्रेज,फ्रांसिस,जर्मन,पुर्तगाली आदि अनेक इतिहासकारों ने जयमल के अनुपम शौर्य का वर्णन किया है ।।

पितामह-पुलस्त्य ऋषि • पिता-विश्रवा • माता- कैकशी या केशिनी • पत्नियां-1.मंदोदरी 2.धान्यमालिनी • पुत्र-इंद्रजित सहित पांच अन्य पुत्र • बहनें-1.शूर्पणखा 2.कुंभीनशी • भाई-1.कुभकर्ण 2.विभीषण 3.मत्त 4.युद्धोन्मत्त • सौतेला भाई-कुबेर

रावण शब्द का कलरव से क्या रिश्ता हो सकता है ? कलरव बहुत सुंदर शब्द है जिसका मतलब है मधुर आवाज़। चिड़ियों का चहचहाना। पक्षियों की कूजनध्वनि । कल यानी चिड़िया और रव यानी ध्वनि, आवाज़। रव बना है संस्कृत की ‘रु’ धातु से जिसके मायने हैं शब्द करना, आवाज़ करना । खास बात यह कि इसमें सभी प्रकार की ध्वनियां शामिल हैं। मधुर भी, तेज़ भी, कर्कश भी और भयावनी भी। और अगर कहीं कोई ध्वनि नहीं है तो इसी रव में ‘नि’ उपसर्ग लगाने से सन्नाटे का भाव भी आ जाता है। यही नहीं, विलाप करते समय जो ध्वनि होती है उसके लिए भी यही ‘रु’ धातु में निहित भाव समाहित हैं। हिन्दी में रोना शब्द ही आमतौर पर विलाप के अर्थ में इस्तेमाल होता है। रोना बना है संस्कृत के रुदन, रुदनम् से जिसका मतलब है क्रंदन करना, शोक मनाना , आँसू बहाना आदि है। अरण्य रोदन यानी बियाबान में क्रंदन करना जिसे कोई न सुन सके। यह एक मुहावरा भी है जिसका मतलब होता है कोई सुनवाई न होना । रुआंसा शब्द इसी कड़ी से जन्मा है। ‘रु’ में शोर मचाना, चिंघाड़ना, दहाड़ना आदि भी शामिल है।
इससे ही बना है संस्कृत शब्द रावः जिसका मतलब है भयानक ध्वनि करना। चीत्कार करना। चीखना-चिल्लाना। हू-हू-हू जैसी भयकारी आवाज़ें निकालना आदि। रावः से ही बना है रावण जिसका अर्थ हुआ भयानक आवाजें करने वाला, चीखने-चिल्लाने वाला, दहाड़ने वाला। ज़ाहिर है यह सब संस्कारी मानव के सामान्य क्रियाकलापों में नहीं आता। किसी मनुश्य का अगर ऐसा स्वभाव होता है तो उसे हम या तो पशुवत् कहते हैं या राक्षस की उपमा देते हैं। ज़ाहिर है कि रावण तो जन्मा ही राक्षस कुल में था इसलिए रावण नाम सार्थक है।
एक दिलचस्प संयोग भी है। रावण को रुद्र यानी शिव का भक्त बताया जाता है और रुद्र की कृपादृष्टि के लिए रावण द्वारा घनघोर तपस्या करने का भी उल्लेख है। रुद्र यानी एक विशेष देवसमूह जिनकी संख्या ग्यारह है। भगवान शिव को इन रुद्रों का मुखिया होने से रुद्र कहा जाता है। रुद्र भी बना है रुद् धातु से जिसका मतलब भयानक ध्वनि करना भी है। इससे रुद्र ने भयानक, भयंकर, भीषण, डरावना वाले भाव ग्रहण किए ।
रावण ने रुद्र की तपस्या कर किन्ही शक्तियों के साथ रौद्र भाव भी अनायास ही पा लिया
यानी रावण और रुद्र दोनों शब्दों का मूल और भाव एक ही हैं। भयानक – भीषण जैसे भावों को साकार करने वाला रौद्र शब्द इसी रुद्र से बना है। रावण ने रुद्र की तपस्या कर किन्ही शक्तियों के साथ रौद्र भाव भी अनायास ही पा लिया। कथाओं में रावण की विद्वत्ता की बहुत बातें कही गई हैं । बताया जाता है कि कृष्णयजुर्वेद रावण द्वारा रचित वेदों पर टिप्पणियों का ग्रंथ है। इसमें इंद्र के स्थान पर रावण ने अपने आराध्य रुद्र की महिमा गाई है। इस ग्रंथ की सामग्री बाद में यजुर्वेद से जुड़ गई जिन्हें शतरुद्री संहिता कहा गया और तभी से रुद्र के साथ शिव नाम भी प्रचलित हुआ। वाल्मीकी ने भी रावण को वेदविद्यानिष्णात कहा है। रावण की गणना कुशल राजनीतिज्ञों में होती है। कहते हैं कि कुशध्वज ऋषि की कन्या वेदवती से रावण ने अनुचित व्यवहार करना चाहा था तब उसने शाप दिया था कि सीता के रूप में पुनर्जन्म लेकर वह उसके सर्वनाश का कारण बनेगी।
रावण का कुनबा-
• पितामह-पुलस्त्य ऋषि • पिता-विश्रवा • माता- कैकशी या केशिनी • पत्नियां-1.मंदोदरी 2.धान्यमालिनी • पुत्र-इंद्रजित सहित पांच अन्य पुत्र • बहनें-1.शूर्पणखा 2.कुंभीनशी • भाई-1.कुभकर्ण 2.विभीषण 3.मत्त 4.युद्धोन्मत्त • सौतेला भाई-कुबेर
आज जब हर तरफ गदंगी को भौतिक तौर पर साफ़ करने के लिए दिन रात प्रयत्न किये जा रहे हैं और उसका असर भी देखने को मिल रहा है. हर आदमी आज सफाई के प्रति जागरूक हो रहा है. चुनावों में भी किसी साफ़ सुथरे छवि वाले प्रत्याशी को वोट देने के लिए अपील करते हजारों लोग दिख जाएंगे. इन सब बातों का जिक्र आज करना इसलिए जरूरी हो जाता है कि कल से फिर बिहार के सारण में रावण चर्चा में है।गन्दगी सड़क पर पड़ा हुआ कूड़ा कचरा नहीं अपितु ज्ञानी कहे जाने वाले रावण के अंदर अधर्म के रूप में भरी हुई गंदगी थी.
आज कलियुग में भी भौतिक गन्दगी को साफ़ करने में तो सभी वर्गों का भरपूर सहयोग किया मगर मानसिक गन्दगी का प्रकोप बढ़ता चला गया, जी हाँ, वही मानसिक गंदगी जो रावण के दिमाग में घुसी हुई थी. रावण नामक गंदगी को तो भगवान राम ने खत्म कर दिया मगर मॉडर्न कलियुग में एक नया प्रचलन सा शुरू हो गया है. समाज का एक वर्ग रावण का समर्थन करने लगा. जब आप उसके कारणों में जाने का प्रयत्न करेंगे तो एक बड़ा कारण सामने निकल कर आता है कि रावण ब्राह्मण था. अब रावण की जाति क्या रही होगी वो तो हर मामले में जाति ढूढ़ने वाले लोग ही बता पाएंगे. मगर इतना जरूर कहा जा सकता है कि रावण एक ज्ञानी पुरुष था. मान्यतानुसार रावण में अनेक गुण भी थे। सारस्वत ब्राह्मण पुलस्त्य ऋषि का पौत्र और विश्रवा का पुत्र रावण एक परम शिव भक्त, राजनीतिज्ञ , महाप्रतापी, महापराक्रमी योद्धा , अत्यन्त बलशाली , शास्त्रों का प्रखर ज्ञाता ,प्रकान्ड विद्वान पंडित एवं महाज्ञानी था।
मगर क्या रावण के ब्राह्मण जाति का होने या ज्ञानी होने पर उसकी पूजा की जा सकती है?
क्या उसकी आराधना की जा सकती है?
क्या उसे अपना आदर्श माना जा सकता है?
क्या उसके कृत्यों का वास्तविक जीवन में अनुसरण किया जा सकता है?
अगर किया जा सकता है तो उन लोगों के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम क्या है?
क्या रावण और भगवान राम के जीवन का एक साथ अनुसरण किया जा सकता है ?
क्या दोनों को अपना आराध्य माना जा सकता है?
क्या मयान में दो तलवारें आ सकती हैं?
कई बार लोग सफाई देते नजर आते हैं कि रावण सीता को हाथ नहीं लगाया क्योंकि रावण की नियत साफ़ थी, अब उनको ये बात कौन बताये कि सीता से हाथ न लगाना रावण का गुण नहीं बल्कि उसकी मजबूरी थी. दरअसल स्वर्ग की अप्सरा रम्भा रावण के भतीजे नलकुबेर से मिलने के लिए जा रही थी मगर रास्ते में बुरी नियत से उसे रावण ने रोक लिया और उसके साथ जबरदस्ती कुकर्म कर दिया, जिसके बाद नलकुबेर ने उसे श्राप दे दिया कि वो किसी पतिव्रता स्त्री को नहीं छू सकता, उसकी बिना मर्ज़ी के उसको हाथ तक नहीं लगा सकता था. मगर रावण के मॉडर्न अंधभक्त आज रावण की नियत पर सफाई देते नजर आते रहे हैं.
रामायण में रावण के वध होने पर मन्दोदरी विलाप करते हुए कहती है, “अनेक यज्ञों का विलोप करने वाले, धर्म व्यवस्थाओं को तोड़ने वाले, देव-असुर और मनुष्यों की कन्याओं का जहाँ तहाँ से हरण करने वाले! आज तू अपने इन पाप कर्मों के कारण ही वध को प्राप्त हुआ है।” तुलसीदास जी केवल उसके अहंकार को ही उसका मुख्य अवगुण बताते हैं। अगर वास्तव में देखा जाये तो आज के समय में रावण का अनुसरण करने वाले सिर्फ रावण का अनुसरण नहीं कर रहे बल्कि ऐसा करके वो महिलाओं का अपमान करने का समर्थन कर रहे हैं, महिलाओं का अपहरण करने वालों का समर्थन कर रहे हैं, अभिमान का समर्थन कर रहे हैं, अहंकार का समर्थन कर रहे हैं, क्रूरता और अत्याचार का समर्थन कर रहे हैं.
अगर ज्ञानी होने के आधार पर रावण को अपना आराध्य माना जाता है तो फिर आज के समय में ओसामा बिन लादेन भी सही है, मन्नान वानी भी सही है और जाकिर नाइक जैसे बौद्धिक आतंकवाद फैलाने वाले लोग भी सही हैं. फिर तो कन्हैया कुमार भी और उम्र खालिद जैसे देशद्रोही नारे लगाने वाले लोग भी सही हैं क्योंकि वो पढ़े लिखे लोग हैं और सही हैं वो नक्सलवाद को बढ़ावा देने वाले अर्बन नक्सली जो अपने सिर पर नाना प्रकार की डिग्रियां लादे घूम रहे हैं और सही है वो वामपंथी इतिहासकार भी जो समय समय पर देशद्रोहियों और आतंकियों का समर्थन करने के साथ ही अत्याचारी मुगलों की शान में कसीदे पढ़ते नजर आते हैं. ये भी तो पढ़े लिखे लोग ही हैं, जिन्हे शुद्ध भाषा में रावण की तरह ‘ज्ञानी’ कह सकते हैं.
आजकल रावण की प्रशंसा में बहुत से लेख सोशल मीडिया पर देखने को मिल रहे हैं, उन लेखों को पढ़ कर साफ़ समझा जा सकता है कि उनमे किस तरह भगवान राम को एक दोषपूर्ण किरदार के रूप में दिखाने की कुटिल कोशिश की गयी है. मगर ऐसा लिखने वाले ज्यादातर वही लोग हैं जो एक तरफ ब्राह्मणवाद के खिलाफ झंडा बुलंद कर रहे हैं और दूसरी तरफ खुद के ब्राह्मण शक्तिशाली होने पर घमंड करने वाले रावण का महिमा मंडन कर रहे हैं?
क्या सिर्फ इसलिए कि राम को पूजने वाले हिन्दू धर्म के लोग हैं और उनका कर्तृव्य हिन्दू धर्म के खिलाफ ही आग उगलना है? जिस राम राज्य के होने की आज के युग में कल्पना की जाती है, जिस शबरी के झूठे बेर खाने वाले राम को आज के युग में भी जातिवाद को खत्म करने का नायक माना जाता है, आज उनसे रावण की तुलना कर रावण को श्रेष्ठ बताने की कोशिश की जा रही है, आज के समय में ऐसी बौद्धिक गंदगी के खिलाफ खड़े होकर इसकी सफाई करने की जरूरत है.
आप समस्त सुधिजनों के विचारार्थ यह आलेख प्रस्तुत है।आपका अमूल्य सुझाव और मार्गदर्शन आपेक्षित है।

राम सर्वमय व सर्वमुक्त हैं। राम सबकी चेतना का सजीव नाम हैं। अस समर्थ रघुनायकहिं, भजत जीव ते धन्य॥

हमारा सबसे बड़ा दुर्भाग्य आज यही है कि हम राम नाम का सहारा नहीं ले रहे हैं। हमने जितना भी अधिक राम नाम को खोया है, हमारे जीवन में उतनी ही विषमता बढ़ी है, उतना ही अधिक संत्रास हमें मिला है। एक सार्थक नाम के रुप में हमारे ऋषि-मुनियों ने राम नाम को पहचाना है। उन्होंने इस पूज्य नाम की परख की और नामों के आगे लगाने का चलन प्रारंभ किया। प्रत्येक हिन्दू परिवार में देखा जा सकता है कि बच्चे के जन्म में राम के नाम का सोहर होता है। वैवाहिक आदि सुअवसरों पर राम के गीत गाए जाते हैं। राम नाम को जीवन का महामंत्र माना गया है।
राम सर्वमय व सर्वमुक्त हैं। राम सबकी चेतना का सजीव नाम हैं। अस समर्थ रघुनायकहिं, भजत जीव ते धन्य॥ प्रत्येक राम भक्त के लिए राम उसके हृदय में वास कर सुख सौभाग्य और सांत्वना देने वाले हैं। तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिख दिया है कि प्रभु के जितने भी नाम प्रचलित हैं, उन सब में सर्वाधिक श्री फल देने वाला नाम राम का ही है। यह नाम सबसे सरल, सुरक्षित तथा निश्चित रुप से लक्ष्य की प्राप्ति करवाने वाला है। मंत्र जप के लिए आयु, स्थान, परिस्थिति, काल, जात-पात आदि किसी भी बाहरी आडम्बर का बंधन नहीं है। किसी क्षण, किसी भी स्थान पर इसे जप सकते हैं।
जब मन सहज रूप में लगे, तब ही मंत्र जप कर लें। तारक मंत्र ‘श्री’ से प्रारंभ होता है। ‘श्री’ को सीता अथवा शक्ति का प्रतीक माना गया है। राम शब्द ‘रा’ अर्थात् र-कार और ‘म’ मकार से मिल कर बना है। ‘रा’ अग्नि स्वरुप है। यह हमारे दुष्कर्मों का दाह करता है। ‘म’ जल तत्व का द्योतक है। जल आत्मा की जीवात्मा पर विजय का कारक है।
इस प्रकार पूरे तारक मंत्र – ‘श्री राम, जय राम, जय जय राम’ का सार निकलता है – शक्ति से परमात्मा पर विजय। योग शास्त्र में देखा जाए तो ‘रा’ वर्ण को सौर ऊर्जा का कारक माना गया है। यह हमारी रीढ़-रज्जू के दाईं ओर स्थित पिंगला नाड़ी में स्थित है।
यहां से यह शरीर में पौरुष ऊर्जा का संचार करता है। ‘मा’ वर्ण को चन्द्र ऊर्जा कारक अर्थात स्त्री लिंग माना गया है। यह रीढ़-रज्जू के बांई ओर स्थित इड़ा नाड़ी में प्रवाहित होता है।
श्री राम जय राम जय जय राम ‘श्री राम जय राम जय जय राम’- यह सात शब्दों वाला तारक मंत्र है । साधारण से दिखने वाले इस मंत्र में जो शक्ति छिपी हुई है, वह अनुभव का विषय है। इसे कोई भी, कहीं भी, कभी भी कर सकता है। फल बराबर मिलता है।

— > प्रतिहार क्षत्रिय राजवंश का इतिहास < ---मनुस्मृति में प्रतिहार,परिहार, पडिहार तीनों शब्दों का प्रयोग हुआ हैं

#प्रतिहार__राजपूत एक ऐसा वंश है जिसकी उत्पत्ति पर कई इतिहासकारों ने शोध किए जिनमे से कुछ अंग्रेज भी थे और वे अपनी सीमित मानसिक क्षमताओं तथा भारतीय समाज के ढांचे को न समझने के कारण इस वंश की उतपत्ति पर कई तरह के विरोधाभास उतपन्न कर गए। प्रतिहार एक शुद्ध क्षत्रिय वंश है जिसने गुर्जरादेश से गुज्जरों को खदेड़ कर गुर्जरदेश के स्वामी बने। और उन्हें गुर्जरनरेश की उपाधि मिली, इन्हे बेवजह ही वर्तमान गूजर जाति से जोड दिया जाता रहा है। जबकि प्रतिहारों ने अपने को कभी भी गुजर जाति का नही लिखा है। बल्कि नागभट्ट प्रथम के सेनापति गल्लक के शिलालेख जिसकी खोज डा. शांता रानी शर्मा जी ने की थी जिसका संपूर्ण विवरण उन्होंने अपनी पुस्तक ” Society and culture Rajasthan c. AD. 700 – 900 पर किया है। इस शिलालेख मे नागभट्ट प्रथम के द्वारा गूजरों की बस्ती को उखाड फेकने एवं प्रतिहारों के द्वारा गूजरों को बिल्कुल भी नापसंद करने की जानकारी दी गई है।
मनुस्मृति में प्रतिहार,परिहार, पडिहार तीनों शब्दों का प्रयोग हुआ हैं। परिहार एक तरह से क्षत्रिय शब्द का पर्यायवाची है। क्षत्रिय वंश की इस शाखा के मूल पुरूष भगवान राम के भाई लक्ष्मण जी हैं। लक्ष्मण का उपनाम, प्रतिहार, होने के कारण उनके वंशज प्रतिहार, कालांतर में परिहार कहलाएं। ये सूर्यवंशी कुल के क्षत्रिय हैं। हरकेलि नाटक, ललित विग्रह नाटक, हम्मीर महाकाव्य पर्व, कक्कुक प्रतिहार का अभिलेख, बाउक प्रतिहार का अभिलेख, नागभट्ट प्रशस्ति, वत्सराज प्रतिहार का शिलालेख, मिहिरभोज की ग्वालियर प्रशस्ति आदि कई महत्वपूर्ण शिलालेखों एवं ग्रंथों में परिहार वंश को सूर्यवंशी एवं साफ – साफ लक्ष्मण जी का वंशज
बताया गया है।
लक्ष्मण के पुत्र अंगद जो कि कारापथ (राजस्थान एवं पंजाब) के शासक थे,उन्ही के वंशज प्रतिहार है। इस वंश की 126 वीं पीढ़ी में राजा हरिश्चन्द्र प्रतिहार (लगभग 590 ईस्वीं) का उल्लेख मिलता है। इनकी दूसरी पत्नी भद्रा से चार पुत्र थे।जिन्होंने कुछ धनसंचय और एक सेना का संगठन कर अपने पूर्वजों का राज्य माडव्यपुर को जीत लिया और मंडोर राज्य का निर्माण किया, जिसका राजा रज्जिल प्रतिहार बना। इसी का पौत्र नागभट्ट प्रतिहार था, जो अदम्य साहसी,महात्वाकांक्षी और असाधारण योद्धा था।
इस वंश में आगे चलकर कक्कुक राजा हुआ, जिसका राज्य पश्चिम भारत में सबल रूप से उभरकर सामने आया। पर इस वंश में प्रथम उल्लेखनीय राजा नागभट्ट प्रथम है, जिसका राज्यकाल 730 से 760 माना जाता है। उसने जालौर को अपनी राजधानी बनाकर एक शक्तिशाली परिहार राज्य की नींव डाली। इसी समय अरबों ने सिंध प्रांत जीत लिया और मालवा और गुर्जरात्रा राज्यों पर आक्रमण कर दिया। नागभट्ट ने इन्हे सिर्फ रोका ही नहीं, इनके हाथ से सैंनधन,सुराष्ट्र, उज्जैन, मालवा भड़ौच आदि राज्यों को मुक्त करा लिया। 750 में अरबों ने पुनः संगठित होकर भारत पर हमला किया और भारत की पश्चिमी सीमा पर त्राहि-त्राहि मचा दी। लेकिन नागभट्ट कुद्ध्र होकर गया और तीन हजार से ऊपर डाकुओं को मौत के घाट उतार दिया जिससे देश ने राहत की सांस ली। भारत मे अरब शक्ति को रौंदकर समाप्त करने का श्रेय अगर किसी क्षत्रिय वंश को जाता है वह केवल परिहार ही है जिन्होने अरबों से 300 वर्ष तक युद्ध किया एवं वैदिक सनातन धर्म की रक्षा की इसीलिए भारत का हर नागरिक इनका हमेशा रिणी रहेगा।
इसके बाद इसका पौत्र वत्सराज (775 से 800) उल्लेखनीय है, जिसने प्रतिहार साम्राज्य का विस्तार किया। उज्जैन के शासक भण्डि को पराजित कर उसे परिहार साम्राज्य की राजधानी बनाया। उस समय भारत में तीन महाशक्तियां अस्तित्व में थी।
1 प्रतिहार साम्राज्य- उज्जैन, राजा वत्सराज
2 पाल साम्राज्य- बंगाल , राजा धर्मपाल
3 राष्ट्रकूट साम्राज्य- दक्षिण भारत , राजा ध्रुव
अंततः वत्सराज ने पालवंश के धर्मपाल पर आक्रमण कर दिया और भयानक युद्ध में उसे पराजित कर अपनी अधीनता स्वीकार करने को विवश किया। लेकिन ई. 800 में ध्रुव और धर्मपाल की संयुक्त सेना ने वत्सराज को पराजित कर दिया और उज्जैन एवं उसकी उपराजधानी कन्नौज पर पालों का अधिकार हो गया।
लेकिन उसके पुत्र नागभट्ट द्वितीय ने उज्जैन को फिर बसाया। उसने कन्नौज पर आक्रमण कर उसे पालों से छीन लिया और कन्नौज को अपनी प्रमुख राजधानी बनाया। उसने 820 से 825-826 तक दस भयावाह युद्ध किए और संपूर्ण उत्तरी भारत पर अधिकार कर लिया। इसने यवनों, तुर्कों को भारत में पैर नहीं जमाने दिया। नागभट्ट द्वितीय का समय उत्तम शासन के लिए प्रसिद्ध है। इसने 120 जलाशयों का निर्माण कराया-लंबी सड़के बनवाई। बटेश्वर के मंदिर जो मुरैना (मध्य प्रदेश) मे है इसका निर्माण भी इन्हीं के समय हआ, अजमेर का सरोवर उसी की कृति है, जो आज पुष्कर तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है। यहां तक कि पूर्व काल में क्षत्रिय (राजपूत) योद्धा पुष्कर सरोवर पर वीर पूजा के रूप में नागभट्ट की पूजा कर युद्ध के लिए प्रस्थान करते थे।
नागभट्ट द्वितीय की उपाधि ‘‘परम भट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर थी। नागभट्ट के पुत्र रामभद्र प्रतिहार ने पिता की ही भांति साम्राज्य सुरक्षित रखा। इनके पश्चात् इनका पुत्र इतिहास प्रसिद्ध सनातन धर्म रक्षक मिहिरभोज सम्राट बना, जिसका शासनकाल 836 से 885 माना जाता है। सिंहासन पर बैठते ही मिहिरभोज प्रतिहार ने सर्वप्रथम कन्नौज राज्य की व्यवस्था को चुस्त-दुरूस्त किया, प्रजा पर अत्याचार करने वाले सामंतों और रिश्वत खाने वाले कामचोर कर्मचारियों को कठोर रूप से दण्डित किया। व्यापार और कृषि कार्य को इतनी सुविधाएं प्रदान की गई कि सारा साम्राज्य धनधान्य से लहलहा उठा। मिहिरभोज ने प्रतिहार साम्राज्य को धन, वैभव से चरमोत्कर्ष पर पहुंचाया। अपने उत्कर्ष काल में मिहिरभोज को ‘सम्राट’ उपाधि मिली थी।
अनेक काव्यों एवं इतिहास में उसे सम्राट भोज, मिहिर, प्रभास, भोजराज, वाराहवतार, परम भट्टारक, महाराजाधिराज परमेश्वर आदि विशेषणों से वर्णित किया गया है। इतने विशाल और विस्तृत साम्राज्य का प्रबंध अकेले सुदूर कन्नौज से कठिन हो रहा था। अस्तु मिहिरभोज ने साम्राज्य को चार भागो में बांटकर चार उप राजधानियां बनाई। कन्नौज- मुख्य राजधानी, उज्जैन और मंडोर को उप राजधानियां तथा ग्वालियर को सह राजधानी बनाया। प्रतिहारों का नागभट्ट प्रथम के समय से ही एक राज्यकुल संघ था, जिसमें कई क्षत्रिय राजें शामिल थे। पर मिहिरभोज के समय बुंदेलखण्ड और कांलिजर मण्डल पर चंदलों ने अधिकार जमा रखा था। मिहिरभोज का प्रस्ताव था कि चंदेल भी राज्य संघ के सदस्य बने, जिससे सम्पूर्ण उत्तरी पश्चिमी भारत एक विशाल शिला के रूप में खड़ा हो जाए और यवन, तुर्क, हूण, कुषाण आदि शत्रुओं को भारत प्रवेश से पूरी तरह रोका जा सके पर चंदेल इसके लिए तैयार नहीं हुए। अंततः मिहिरभोज ने कालिंजर पर आक्रमण कर दिया और इस क्षेत्र के चंदेलों को हरा दिया।
मिहिरभोज परम देश भक्त थे- उन्होने प्रण किया था कि उनके जीते जी कोई विदेशी शत्रु भारत भूमि को अपावन न कर पायेगा। इसके लिए उन्होंने सबसे पहले आक्रमण कर उन राजाओं को ठीक किया जो कायरतावश यवनों को अपने राज्य में शरण लेने देते थे। इस प्रकार राजपूताना से कन्नौज तक एक शक्तिशाली राज्य के निर्माण का श्रेय सम्राट मिहिरभोज को जाता है। मिहिरभोज के शासन काल में कन्नौज साम्राज्य की सीमा रमाशंकर त्रिपाठी की पुस्तक हिस्ट्री ऑफ कन्नौज के अनुसार, पेज नं. 246 में, उत्तर पश्चिम् में सतलज नदी तक, उत्तर में हिमालय की तराई, पूर्व में बंगाल तक, दक्षिण पूर्व में बुंदेलखण्ड और वत्स राज्य तक, दक्षिण पश्चिम में सौराष्ट्र और राजपूतानें के अधिक भाग तक विस्तृत थी। अरब इतिहासकार सुलेमान ने तवारीख अरब में लिखा है, कि हिंदू क्षत्रिय राजाओं में मिहिरभोज प्रतिहार भारत में अरब एवं इस्लाम धर्म का सबसे बडा शत्रु है सुलेमान आगे यह भी लिखता है कि हिंदुस्तान की सुगठित और विशालतम सेना मिहिरभोज की ही थी-
इसमें हजारों हाथी, हजारों घोड़े और हजारों
रथ थे। मिहिरभोज के राज्य में सोना और चांदी सड़कों पर विखरा था-किन्तु चोरी-डकैती का भय किसी को नहीं था। मिहिरभोज का तृतीय अभियान पाल राजाओ के विरूद्ध हुआ। इस समय बंगाल में पाल वंश का शासक देवपाल था। वह वीर और यशस्वी था- उसने अचानक कालिंजर पर आक्रमण कर दिया और कालिंजर में तैनात मिहिरभोज की सेना को परास्त कर किले पर कब्जा कर लिया। मिहिरभोज ने खबर पाते ही देवपाल को सबक सिखाने का निश्चय किया। कन्नौज और ग्वालियर दोनों सेनाओं को इकट्ठा होने का आदेश दिया और चैत्र मास सन् 850 ई. में देवपाल पर आक्रमण कर दिया। इससे देवपाल की सेना न केवल पराजित होकर बुरी तरह भागी, बल्कि वह मारा भी गया। मिहिरभोज ने बिहार समेत सारा क्षेत्र कन्नौज में मिला लिया। मिहिरभोज को पूर्व में उलझा देख पश्चिम भारत में पुनः उपद्रव और षड्यंत्र शुरू हो गये।
इस अव्यवस्था का लाभ अरब डकैतों ने
उठाया और वे सिंध पार पंजाब तक लूट पाट करने लगे। मिहिरभोज ने अब इस ओर प्रयाण किया। उसने सबसे पहले पंजाब के उत्तरी भाग पर राज कर रहे थक्कियक को पराजित किया, उसका राज्य और 2000 घोड़े छीन लिए। इसके बाद गूजरावाला के विश्वासघाती सुल्तान अलखान को बंदी बनाया- उसके संरक्षण में पल रहे 3000 तुर्की और हूण डाकुओं को बंदी बनाकर खूंखार और हत्या के लिए अपराधी पाये गए पिशाचों को मृत्यु दण्ड दे दिया। तदनन्तर टक्क देश के शंकरवर्मा को हराकर सम्पूर्ण पश्चिमी भारत को कन्नौज साम्राज्य का अंग बना लिया। चतुर्थ अभियान में मिहिरभोज ने प्रतिहार क्षत्रिय वंश की मूल गद्दी मण्डोर की ओर ध्यान दिया।
त्रवाण,बल्ल और माण्ड के राजाओं के सम्मिलित ससैन्य बल ने मण्डोर पर आक्रमण कर दिया। उस समय मण्डोर का राजा बाउक प्रतिहार पराजित ही होने वाला था कि मिहिरभोज ससैन्य सहायता के लिए पहुंच गया। उसने तीनों राजाओं को बंदी बना लिया और उनका राज्य कन्नौज में मिला लिया। इसी अभियान में उसने गुर्जरात्रा, लाट, पर्वत आदि राज्यों को भी समाप्त कर साम्राज्य का अंग बना लिया।
नोट : मंडोर के प्रतिहार (परिहार) कन्नौज के साम्राज्यवादी प्रतिहारों के सामंत के रुप मे कार्य करते थे। कन्नौज के प्रतिहारों के वंशज मंडोर से आकर कन्नौज को भारत देश की राजधानी बनाकर 220 वर्ष शासन किया एवं हिंदू सनातन धर्म की रक्षा की।
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== प्रतिहार / परिहार क्षत्रिय वंश का परिचय ==
वर्ण – क्षत्रिय
राजवंश – प्रतिहार वंश
वंश – सूर्यवंशी
गोत्र – कौशिक (कौशल, कश्यप)
वेद – यजुर्वेद
उपवेद – धनुर्वेद
गुरु – वशिष्ठ
कुलदेव – श्री रामचंद्र जी , विष्णु भगवान
कुलदेवी – चामुण्डा देवी, गाजन माता
नदी – सरस्वती
तीर्थ – पुष्कर राज ( राजस्थान )
मंत्र – गायत्री
झंडा – केसरिया
निशान – लाल सूर्य
पशु – वाराह
नगाड़ा – रणजीत
अश्व – सरजीव
पूजन – खंड पूजन दशहरा
आदि पुरुष – श्री लक्ष्मण जी
आदि गद्दी – माण्डव्य पुरम ( मण्डौर , राजस्थान )
ज्येष्ठ गद्दी – बरमै राज्य नागौद ( मध्य प्रदेश)
== भारत मे प्रतिहार / परिहार क्षत्रियों की रियासत जो 1950 तक काबिज रही ==
नागौद रियासत – मध्यप्रदेश
अलीपुरा रियासत – मध्यप्रदेश
खनेती रियासत – हिमांचल प्रदेश
कुमारसैन रियासत – हिमांचल प्रदेश
मियागम रियासत – गुजरात
उमेटा रियासत – गुजरात
एकलबारा रियासत – गुजरात
== प्रतिहार / परिहार वंश की वर्तमान स्थिति==
भले ही यह विशाल प्रतिहार क्षत्रिय (राजपूत) साम्राज्य 15 वीं शताब्दी के बाद में छोटे छोटे राज्यों में सिमट कर बिखर हो गया हो लेकिन इस वंश के वंशज आज भी इसी साम्राज्य की परिधि में मिलते हैँ।
आजादी के पहले भारत मे प्रतिहार क्षत्रिय वंश के कई राज्य थे। जहां आज भी ये अच्छी संख्या में है।
मण्डौर, राजस्थान
जालौर, राजस्थान
लोहियाणागढ , राजस्थान
बाडमेर , राजस्थान
भीनमाल , राजस्थान
माउंट आबू, राजस्थान
पाली, राजस्थान
बेलासर, राजस्थान
शेरगढ , राजस्थान
चुरु , राजस्थान
कन्नौज, उतर प्रदेश
हमीरपुर उत्तर प्रदेश
प्रतापगढ, उत्तर प्रदेश
झगरपुर, उत्तर प्रदेश
उरई, उत्तर प्रदेश
जालौन, उत्तर प्रदेश
इटावा , उत्तर प्रदेश
कानपुर, उत्तर प्रदेश
उन्नाव, उतर प्रदेश
उज्जैन, मध्य प्रदेश
चंदेरी, मध्य प्रदेश
ग्वालियर, मध्य प्रदेश
जिगनी, मध्य प्रदेश
नीमच , मध्य प्रदेश
झांसी, मध्य प्रदेश
अलीपुरा, मध्य प्रदेश
नागौद, मध्य प्रदेश
उचेहरा, मध्य प्रदेश
दमोह, मध्य प्रदेश
सिंगोरगढ़, मध्य प्रदेश
एकलबारा, गुजरात
मियागाम, गुजरात
कर्जन, गुजरात
काठियावाड़, गुजरात
उमेटा, गुजरात
दुधरेज, गुजरात
खनेती, हिमाचल प्रदेश
कुमारसैन, हिमाचल प्रदेश
खोटकई , हिमांचल प्रदेश
जम्मू , जम्मू कश्मीर
डोडा , जम्मू कश्मीर
भदरवेह , जम्मू कश्मीर
करनाल , हरियाणा
खानदेश , महाराष्ट्र
जलगांव , महाराष्ट्र
फगवारा , पंजाब
परिहारपुर , बिहार
रांची , झारखंड
== मित्रों आइए अब जानते है प्रतिहार/परिहार वंश की शाखाओं के बारे में ==
भारत में परिहारों की कई शाखा है जो अब भी आवासित है। जो अभी तक की जानकारी मे है जिससे आज प्रतिहार/परिहार वंश पूरे भारत वर्ष में फैल गये। भारत मे परिहार लगभग 1000 हजार गांवो से भी ज्यादा जगहों में निवास करते है।
== प्रतिहार/परिहार क्षत्रिय वंश की शाखाएँ ==
(1) ईंदा प्रतिहार
(2) देवल प्रतिहार
(3) मडाड प्रतिहार
(4) खडाड प्रतिहार
(5) लूलावत प्रतिहार
(7) रामावत प्रतिहार
( कलाहँस प्रतिहार
(9) तखी प्रतिहार (परहार)
यह सभी शाखाएँ परिहार राजाओं अथवा परिहार ठाकुरों के नाम से है।
आइए अब जानते है प्रतिहार वंश के महान योद्धा शासको के बारे में जिन्होंने अपनी मातृभूमि, सनातन धर्म, प्रजा व राज्य के लिए सदैव ही न्यौछावर थे।
** प्रतिहार/परिहार क्षत्रिय वंश के महान राजा **
(1) राजा हरिश्चंद्र प्रतिहार
(2) राजा रज्जिल प्रतिहार
(3) राजा नरभट्ट प्रतिहार
(4) राजा नागभट्ट प्रथम
(5) राजा यशोवर्धन प्रतिहार
(6) राजा शिलुक प्रतिहार
(7) राजा कक्कुक प्रतिहार
( राजा बाउक प्रतिहार
(9) राजा वत्सराज प्रतिहार
(10) राजा नागभट्ट द्वितीय
(11) राजा मिहिरभोज प्रतिहार
(12) राजा महेन्द्रपाल प्रतिहार
(13) राजा महिपाल प्रतिहार
(14) राजा विनायकपाल प्रतिहार
(15) राजा महेन्द्रपाल द्वितीय
(16) राजा विजयपाल प्रतिहार
(17) राजा राज्यपाल प्रतिहार
(18) राजा त्रिलोचनपाल प्रतिहार
(19) राजा यशपाल प्रतिहार
(20) राजा मेदिनीराय प्रतिहार (चंदेरी राज्य)
(21) राजा वीरराजदेव प्रतिहार (नागौद राज्य के संस्थापक )
प्रतिहार क्षत्रिय वंश का बहुत ही वृहद इतिहास रहा है इन्होने हमेशा ही अपनी मातृभूमि के लिए बलिदान दिया है, एवं अपने नाम के ही स्वरुप प्रतिहार यानी रक्षक बनकर हिंदू सनातन धर्म को बचाये रखा एवं विदेशी आक्रमणकारियों को गाजर मूली की तरह काटा डाला, हमे गर्व है ऐसे हिंदू राजपूत वंश पर जिसने कभी भी मुश्किल घडी मे अपने आत्म विश्वास को नही खोया एवं आखरी सांस तक हिंदू धर्म की रक्षा की।
संदर्भ :
(1) राजपूताने का इतिहास – डा. गौरीशंकर हीराचंद ओझा
(2) विंध्य क्षेत्र के प्रतिहार वंश का ऐतिहासिक अनुशीलन – डा. अनुपम सिंह
(3) भारत के प्रहरी – प्रतिहार – डा. विंध्यराज चौहान
(4) प्राचीन भारत का इतिहास – डा. विमलचंद पांडे
(5) उचेहरा (नागौद) का प्रतिहार राज्य – प्रो. ए. एच. निजामी
(6) राजस्थान का इतिहास – डा. गोपीनाथ शर्मा
(7) कन्नौज का इतिहास – डा. रमाशंकर त्रिपाठी
( Society and culture Rajasthan (700 -900) – Dr. Shanta Rani sharma
(9) Origin of Rajput – Dr. J. N. Asopa
(10) Glory that was Gurjardesh – Dr. K. M. Munshi.
प्रतिहार/परिहार क्षत्रिय वंश ।।
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जय नागभट्ट।।
जय मिहिरभोज।।

बयाना के युद्ध के पश्चात 17 मार्च, 1527 ई. में खानवा के मैदान में

राजस्थान के सबसे बड़े और साहसी शूरवीरों में से एक महाराणा सांगा को आज भी उनके बलिदान के लिए पूजा जाता है। मेवाड़ के पूर्व शासक एवं महाराणा प्रताप के पूर्वज राणा सांगा ने मेवाड़ में 1509 से 1528 तक शासन किया। राणा सांगा ने विदेशी आक्रमणकारियों के विरुद्ध सभी राजपूतों को एकजुट किया। राणा सांगा सही मायनों में एक बहादुर योद्धा व शासक थे जो अपनी वीरता और उदारता के लिये प्रसिद्ध थे। सांगा उस समय के सबसे शक्तिशाली हिन्दू राजा थे। उन्होंने दिल्ली, गुजरात व मालवा मुगल बादशाहों के आक्रमणों से अपने राज्य की बहादुरी से ऱक्षा की।
राणा सांगा अदम्य साहसी थे। एक भुजा, एक आंख खोने व अनगिनत ज़ख्मों के बावजूद उन्होंने अपना धेर्य और पराक्रम नहीं खोया। सुलतान मोहम्मद शासक माण्डु को युद्ध में हराने व बन्दी बनाने के बाद उन्हें उनका राज्य पुन: उदारता के साथ सौंप भी दिया, यह उनकी महानता और बहादुरी को दर्शाता है। फरवरी 1527 ई. में खानवा के युद्ध से पूर्व बयाना के युद्ध में राणा सांगा ने मुगल सम्राट बाबर की सेना को परास्त कर बयाना का किला जीता। इस युद्ध में राणा सांगा के कहने पर राजपूत राजाओं ने पाती पेरवन परम्परा का निर्वाहन किया। बयाना के युद्ध के पश्चात 17 मार्च, 1527 ई. में खानवा के मैदान में ही राणा साांगा जब घायल हो गए थे तब उन्हें बाहर निकलने में कछवाह वंश के पृथ्वीराज कछवाह ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा पृथ्वीराज कछवाह द्वारा ही राणा सांगा को घायल अवस्था में काल्पी (मेवाड़) नामक स्थान पर पहुंचाने में मदद दी गई।

ऐसी अवस्था में राणा सांगा पुन: बसवा आए जहा सांगा की 30 जनवरी, 1528 को मृत्यु हो गयी। लेकिन राणा सांगा का विधि विधान से अन्तिम संस्कार माण्डलगढ (भीलवाड़ा) में हुआ। इतिहासकारों के अनुसार उनके दाह संस्कार स्थल पर एक छतरी बनाई गई थी। ऐसा भी कहा जाता है कि वे मांडलगढ़ क्षेत्र में मुगल सेना पर तलवार से गरजे थे। युद्ध में महाराणा का सिर अलग होने के बाद भी उनका धड़ लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ।
एक विश्वासघाती के कारण वह बाबर से युद्ध जरूर हारे, लेकिन उन्होंने अपने शौर्य से दूसरों को प्रेरित किया। इनके शासनकाल में मेवाड़ अपनी समृद्धि की सर्वोच्च ऊंचाई पर था। एक आदर्श राजा की तरह सांगा ने अपने राज्य की रक्षा तथा उन्नति की। सांगा ने मुगलों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। वे मांडलगढ़ क्षेत्र में मुगल सेना पर तलवार से गरजे थे। युद्ध में महाराणा का सिर माण्डलगढ़ (भीलवाड़ा) की धरती पर गिरा, लेकिन घुड़सवार धड़ लड़ता हुआ चावण्डिया तालाब के पास वीरगति को प्राप्त हुआ।

उत्तरप्रदेश के #बस्ती जिले की आन बान शान पूर्वांचल की #लक्ष्मीबाई थीं #रानी_तलाश_कुंवरि

उत्तरप्रदेश के #बस्ती जिले की आन बान शान पूर्वांचल की #लक्ष्मीबाई थीं #रानी_तलाश_कुंवरि
पूर्वांचल की रानी लक्ष्मीबाई कही जाने वाली देश की खातिर अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाली #अमोढ़ा की रानी तलाश कुंवरि बस्ती की आन, बान और शान हैं। अंग्रेजों से लोहा लेती रहीं। अपने इलाके में अंग्रेजों के खिलाफ मुहिम चलाया। अपनी #तलवार से अंग्रेजों के सिर धड़ से उड़ाए। उनके जीवन की संघर्ष गाथा को आज भी अमोढ़ा का ध्वस्त किला सुनाता है, जिसे अंग्रेजों ने अपने तोपों से उड़ा दिया था।
बस्ती-फैजाबाद राष्ट्रीय राजमार्ग पर छावनी के निकट स्थित अमोढ़ा में अपने पति राजा #जंगबहादुर सिंह के निधन पर राजगद्दी की कमान 1853 में संभाल लीं। रानी अमोढ़ा भी झांसी की रानी की तरह निसंतान थीं। अंग्रेजों ने राज्य हड़पने की साजिश शुरू की, जिसका रानी ने हर मोर्चे पर मुबाकला किया। रानी तलाश कुंवरि ने 1857 के क्रांति की खबर मिलने के बाद अपने भरोसेमंद लोगों के साथ बैठक कीं। देशी सैनिकों ने बस्ती-फैजाबाद के सड़क और जल परिवहन अंग्रेजों के लिए ठप करा दिया था।
रानी तलाश कुंवरि के प्रोत्साहन पर क्षेत्रीय नागरिकों ने अंग्रेजों की छावनी पर हमला बोल दिया था। अंग्रेजों ने नेपाली सेना की मदद ली। जनवरी 1858 अंग्रेजी सेनाओं ने रोक्राफ्ट के नेतृत्व में अमोढ़ा की ओर कूच की। जनवरी 1858 में हुई लड़ाई में अंग्रेजों को हार का मुंह देखना पड़ा था। हार से बौखलाए अंगे्रजों ने अपनी फौज बुलाया। भारी संख्या में यहां के लिए तोपों का लाया गया। गिरफ्तार होने के बजाए कटार से काट लिया था अपना गला रानी ने अपना किला छोड़ कर दूसरे स्थान से युद्ध का संचालन किया। नदी के किनारे अंगे्रजों को लगातार मात मिल रही थी। कर्नल रोक्राफ्ट ने नौसेना को भी बुला लिया। नौसेना का स्टीमर घाघरा नदी पर हथियारों के साथ तैनात हो गए। नेपाली सैनिकों की पर्याप्त संख्या अमोढ़ा व आसपास पहुंच गई। कर्नल रोक्राफ्ट पूर्व नियोजित रणनीति के तहत दो तरफ से रानी की सेना पर हमला कर दिया। उनका घोड़ा पखेरवा के पास ही घायल होकर मर गया। वह पखेरवा किले पर पहुंच गयीं। अपने समर्थकों से कहा कि यह मेरा आखिरी दिन है। जीते जी मैं उनके गिरफ्त में नहीं आऊंगी और 2 मार्च 1958 को उन्होंने अपनी कटार से जीवन लीला समापत कर ली।
#रानी_चौरा के टीले में दफन है उनका शव
रानी की मौत के बाद उनके शव को सहयोगियों ने छिपा लिया। बाद में शव को अमोढा राज्य की कुलदेवी समय माता भवानी का चौरा के पास दफना दिए। वहां पर मिट्टी का टीला बना दिया। यह जगह रानी चौरा के नाम से ही मशहूर है। पखेरवा में जहां रानी का घोड़ा मर गया था उसे भी स्थानीय ग्रामीणों ने वहीं दफना दिया। इस जगह पर एक पीपल का पेड़ आज भी मौजूद है। लोगों के लिए यह जगह श्रद्धा का केन्द्र है। 1997 में बस्ती मंडल के आयुक्त विनोद शंकर चौबे ने उनकी याद में जिला महिला चिकित्सालय का नाम वीरांगना रानी तलाश कुवंरि जिला महिला चिकित्सालय, बस्ती कराया। बस्ती के माननीय सांसद हरीश दिवेदी जी द्वारा वीर भूमि अमौढ़ा को गोद भी लिया गया ऐसे हर जिले में अनेकों महापुरुष हैं जो उपेक्षा के शिकार भी हैं हमारा कर्तव्य ऐसे महापुरुषों को याद किया जाय और इनको पुनः खड़ा किया जाय यह हमारी विरासत हैं आधुनिक युग में इनसे ही प्रेरणा लेकर ही हमारा जीवन सफल रहेगा।
साभार

“हल्दीघाटी का युद्ध” “हल्दीघाटी युद्ध में वीरगति को प्राप्त होने वाले प्रमुख मेवाड़ी योद्धा”

“हल्दीघाटी का युद्ध 18 जून 1576 को मेवाड़ के महाराणा प्रताप का समर्थन करने वाले घुड़सवारों और धनुर्धारियों और मुगल सम्राट अकबर की सेना के बीच लडा गया था
“हल्दीघाटी का युद्ध”
“हल्दीघाटी युद्ध में वीरगति को प्राप्त होने वाले प्रमुख मेवाड़ी योद्धा”
1) ग्वालियर के राजा रामशाह तोमर
2) कुंवर शालिवाहन तोमर (रामशाह तोमर के पुत्र व महाराणा प्रताप के बहनोई)
3) कुंवर भान तोमर (रामशाह तोमर के पुत्र)
4) कुंवर प्रताप तोमर (रामशाह तोमर के पुत्र)
5) भंवर धर्मागत तोमर (शालिवाहन तोमर के पुत्र)
6) दुर्गा तोमर (रामशाह तोमर के साथी)
7) बाबू भदौरिया (रामशाह तोमर के साथी)
खाण्डेराव तोमर (रामशाह तोमर के साथी)
9) बुद्ध सेन (रामशाह तोमर के साथी)
10) शक्तिसिंह राठौड़ (रामशाह तोमर के साथी)
11) विष्णुदास चौहान (रामशाह तोमर के साथी)
12) डूंगर (रामशाह तोमर के साथी)
13) कीरतसिंह (रामशाह तोमर के साथी)
14) दौलतखान (रामशाह तोमर के साथी)
15) देवीचन्द चौहान (रामशाह तोमर के साथी)
16) छीतर सिंह चौहान (हरिसिंह के पुत्र व रामशाह तोमर के साथी)
17) अभयचन्द्र (रामशाह तोमर के साथी)
18) राघो तोमर (रामशाह तोमर के साथी)
19) राम खींची (रामशाह तोमर के साथी)
21) पुष्कर (रामशाह तोमर के साथी)
22) कल्याण मिश्र (रामशाह तोमर के साथी)
23) बदनोर के ठाकुर रामदास राठौड़ (वीरवर जयमल राठौड़ के 7वें पुत्र) :- ये अपने 9 साथियों समेत काम आए |
24) बदनोर के कुंवर किशनसिंह राठौड़ (ठाकुर रामदास राठौड़ के पुत्र)
25) जालौर के मानसिंह सोनगरा चौहान (महाराणा प्रताप के मामा) :- ये अपने 11 साथियों समेत काम आए |
26) कान्ह/कान्हा (महाराणा प्रताप के भाई) :- इनके वंशज आमल्दा व अमरगढ़ में हैं |
27) कल्याणसिंह/कल्ला (महाराणा प्रताप के भाई)
28) कानोड़ के रावत नैतसिंह सारंगदेवोत
29) केशव बारठ (कवि) :- ये सोन्याणा वाले चारणों के पूर्वज थे |
30) जैसा/जयसा बारठ (कवि) :- ये भी सोन्याणा वाले चारणों के पूर्वज थे |
31) कान्हा सांदू (चारण कवि)
32) पृथ्वीराज चुण्डावत (पत्ता चुण्डावत के बड़े भाई)
33) आमेट के ठाकुर कल्याणसिंह चुण्डावत (वीरवर पत्ता चुण्डावत के पुत्र) – इनके पीछे रानी बदन कंवर राठौड़ सती हुईं | रानी बदन कंवर मेड़ता के जयमल राठौड़ की पुत्री थीं |
34) देसूरी के खान सौलंकी (ठाकुर सावन्त सिंह सौलंकी के पुत्र)
35) नीमडी के महेचा बाघसिंह राठौड़ कल्लावत (मल्लीनाथ के वंशज)
36) देवगढ़ के पहले रावत सांगा चुण्डावत :- ये वीरवर पत्ता चुण्डावत के पिता जग्गा चुण्डावत के भाई थे | रावत सांगा देवगढ़ वालों के मूलपुरुष थे |
37) देवगढ़ के कुंवर जगमाल चुण्डावत (रावत सांगा चुण्डावत के पुत्र)
38) शंकरदास जैतमालोत राठौड़ (ठि. बनोल)
39) रामदास जैतमालोत राठौड़ (ठि. बनोल)
41) नरहरीदास जैतमालोत राठौड़ (ठि. बनोल) :- ये शंकरदास राठौड़ के पुत्र थे |
42) नाहरदास जैतमालोत राठौड़ (ठि. बनोल) :- ये शंकरदास राठौड़ के पुत्र थे |
43) राजपुरोहित नारायणदास पालीवाल के 2 पुत्र (ये वही नारायणदास जी हैं जो महाराणा प्रताप व शक्तिसिंह जी की लड़ाई रुकवाने में काम आए)
44) किशनदास मेड़तिया
45) सुन्दरदास
46) जावला
47) प्रताप मेड़तिया राठौड़ (वीरमदेव के पुत्र व वीरवर जयमल राठौड़ के भाई)
48) बदनोर के कूंपा राठौड़ (वीरवर जयमल राठौड़ के पुत्र)
49) राव नृसिंह अखैराजोत (पाली के अखैराज के पुत्र)
50) प्रयागदास भाखरोत
51) मानसिंह
52) मेघराज
53) खेमकरण
54) भगवानदास राठौड़ (केलवा के ईश्वरदास राठौड़ के पुत्र)
55) नन्दा पडियार
56) पडियार सेडू
57) साँडू पडियार
58) अचलदास चुण्डावत
59) रावत खेतसिंह चुण्डावत के पुत्र
61) बागड़ के ठाकुर नाथुसिंह मेड़तिया
61) देलवाड़ा के मानसिंह झाला
62) सरदारगढ़ के ठाकुर भीमसिंह डोडिया
63) सरदारगढ़ के कुंवर हम्मीर सिंह डोडिया (ठाकुर भीमसिंह के पुत्र)
64) सरदारगढ़ के कुंवर गोविन्द सिंह डोडिया (ठाकुर भीमसिंह के पुत्र)
65) सरदारगढ़ के ठाकुर भीमसिंह डोडिया के 2 भाई
66) पठान हाकिम खां सूर (शेरशाह सूरी के वंशज, मायरा स्थित शस्त्रागार के प्रमुख व मेवाड़ के सेनापति)
67) मोहम्मद खान पठान
68) जसवन्त सिंह
69) कोठारिया के राव चौहान पूर्बिया
70) रामदास चौहान
71) राजा संग्रामसिंह चौहान
72) विजयराज चौहान
73) राव दलपत चौहान
74) दुर्गादास चौहान (परबत सिंह पूर्बिया के पुत्र)
75) दूरस चौहान (परबत सिंह पूर्बिया के पुत्र)
76) सांभर के राव शेखा चौहान
77) हरिदास चौहान
78) बेदला के भगवानदास चौहान (राव ईश्वरदास के पुत्र)
79) शूरसिंह चौहान
81) कल्याणचन्द मिश्र
82) प्रतापगढ़ के कुंवर कमल सिंह
83) धमोतर के ठाकुर कांधल जी :- देवलिया महारावत बीका ने अपने भतीजे ठाकुर कांधल जी को हल्दीघाटी युद्ध में लड़ने भेजा था |
84) अभयचन्द बोगसा चारण
85) खिड़िया चारण
86) रामसिंह चुण्डावत (सलूम्बर रावत कृष्णदास चुण्डावत के भाई)
87) प्रतापसिंह चुण्डावत (सलूम्बर रावत कृष्णदास चुण्डावत के भाई)
88) गवारड़ी (रेलमगरा) के मेनारिया ब्राह्मण कल्याण जी पाणेरी
89) श्रीमाली ब्राह्मण :- इनके पीछे इनकी एक पत्नी सती हुईं | रक्त तलाई (खमनौर) में इन सती माता का स्थान अब तक मौजूद है |
90) कीर्तिसिंह राठौड़
91) जालमसिंह राठौड़
92) आलमसिंह राठौड़
93) भवानीसिंह राठौड़
94) अमानीसिंह राठौड़
95) रामसिंह राठौड़
96) दुर्गादास राठौड़
97) कानियागर के मानसिंह राठौड़
98) राघवदास
99) गोपालदास सिसोदिया
101) राजा विट्ठलदास
102) भाऊ
103) पुरोहित जगन्नाथ
104) पडियार कल्याण
105) महता जयमल बच्छावत
106) महता रतनचन्द खेमावत
107) महासहानी जगन्नाथ
108) पुरोहित गोपीनाथ
109) बिजौलिया के राव मामरख पंवार (महाराणा प्रताप के ससुर व महारानी अजबदे बाई के पिता)
110) बिजौलिया के कुंवर डूंगरसिंह पंवार (महारानी अजबदे बाई के भाई)
111) बिजौलिया के कुंवर पहाडसिंह पंवार (महारानी अजबदे बाई के भाई)
112) ताराचन्द पंवार (खडा पंवार के पुत्र)
113) सूरज पंवार (खडा पंवार के पुत्र)
114) वीरमदेव पंवार
115) राठौड़ साईंदास पंचायनोत जेतमालोत (कल्ला राठौड़ के पुत्र) :- ये अपने 13 साथियों समेत काम आए |
116) मेघा खावडिया (राठौड़ साईंदास के साथी)
117) सिंधल बागा (राठौड़ साईंदास के साथी)
118) दुर्गा चौहान (राठौड़ साईंदास के साथी)
119) वागडिया (राठौड़ साईंदास के साथी)
120) जयमल (राठौड़ साईंदास के साथी)
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* अगले भाग में हल्दीघाटी युद्ध में महाराणा प्रताप की ओर से जीवित रहने वाले प्रमुख योद्धाओं के बारे में लिखा जाएगा
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जय राजपुताना
जय एकलिंग जी

#राजस्थान_के_लोक_देवता #पाबूजी_राठौड़ जिन्होंने आधे फेरे धरती पर और आधे फेरे स्वर्ग में लिए ।

#राजस्थान_के_लोक_देवता #पाबूजी_राठौड़ जिन्होंने आधे फेरे धरती पर और आधे फेरे स्वर्ग में लिए ।
पाबूजी राठौड़ का जन्म वि.स. 1313 को कोलू मढ़ में हुआ था, पिता का नाम धाँधलजी राठौड़ था । देवल चारणी के पास एक केसर कालवी नामक घोड़ी थी । पाबूजी राठौड़ ने उनकें पास से ‘केसर कालवी’ को इस शर्त पर ले आये थे कि जब भी उस पर संकट आएगा वे सब कुछ छोड़कर उसकी रक्षा करने के लिए आयेंगे देवल चारणी ने पाबूजी को बताया कि जब भी मुझ पर व मेरे पशु धन पर संकट आएगा तभी यह घोड़ी हिन् हिनाएगी इसके हिन् हिनाते ही आप मेरे ऊपर संकट समझकर मेरी रक्षा के लिए आ जाना । पाबूजी महाराज ने रक्षा करने का वचन दिया ।
एक बार पाबूजी महाराज अमरकोट के सोढा राणा सूरजमल के यहाँ ठहरे हुए थे सोढ़ी राजकुमारी ने जब उस बांके वीर पाबूजी को देखा तो उसके मन में उनसे शादी करने की इच्छा उत्पन्न हुई तथा अपनी सहेलियों के माध्यम से उसने यह प्रस्ताव अपनी माँ के समक्ष रखा ।
पाबूजी के समक्ष जब यह प्रस्ताव रखा गया तो उन्होंने राजकुमारी को जबाब भेजा कि ‘मेरा सिर तो बिका हुआ है, विधवा बनना है तो विवाह करना । लेकिन उस वीर ललना का प्रत्युतर था ‘जिसके शरीर पर रहने वाला सिर उसका खुद का नहीं ,वह अमर है उसकी पत्नी को विधवा नहीं बनना पड़ता ! विधवा तो उसको बनना पड़ता है जो पति का साथ छोड़ देती है । और पाबूजी राठोड़ व् सोढ़ी राजकुमारी का विवाह तय हो गया । पाबूजी राठोड़ की बारात अमरकोट पहुँची, और विवाह के फेरो के लिए संवरी ( मंडप ) में पहुँचे ।
पाबूजी महाराज ने दो फेरे लिए और जिस समय तीसरा फेरा चल रहा था, ठीक उसी समय केसर कालवी घोड़ी हिन् हिना उठी, चारणी पर संकट आ गया था ।
देवल चारणी ने जींदराव खिंची को केसर कालवी घोड़ी देने से मना कर दिया था ! इसी नाराजगी के कारण उस दिन मौका देखकर जिन्दराव खिंची ने चारणी की गायों को घेर लिया था । संकट के संकेत “घोड़ी की हिन्-हिनाहट” को सुनते ही वीर पाबूजी विवाह के फेरों को बीच में ही छोड़कर गठ्जोड़े को काट कर ! देवल चारणी को दिए वचन की रक्षा के लिए, देवल चारणी के संकट को दूर करने चल पड़े । ब्राह्मण कहता ही रह गया कि अभी तीन ही फेरे हुए है चौथा फेरा अभी बाकी है, पर कर्तव्य मार्ग के उस वीर पाबूजी राठोड़ को तो केवल कर्तव्य की पुकार सुनाई दे रही थी, जिसे सुनकर वह चल दिया । सुहागरात की इंद्र धनुषीय शय्या के लोभ को ठोकर मार कर ।
रंगारंग के मादक अवसर पर निमंत्रण भरे इशारों की उपेक्षा कर, कंकंण डोरों को बिना खोले ही चल दिए । और वो क्रोधित नारदजी के वीणा के तार की तरह झनझनाता हुआ !
भागीरथ के हठ की तरह बल खाता हुआ, उत्तेजित भीष्म की प्रतिज्ञा के समान कठोर होकर केसर कालवी घोड़ी पर सवार होकर वह जिंदराव खिंची से जा भिडे । देवल चरणी की गायें छुडवाकर अपने वचन का पालन किया ! किन्तु पाबूजी महाराज वहाँ पर वीर-गति को प्राप्त हो गये इधर सोढ़ी राजकुमारी भी हाथ में नारियल लेकर अपने स्वर्गस्थ पति के साथ शेष फेरे पूरे करने के लिए अग्नि स्नान करके स्वर्ग पलायन कर गई । !! इण ओसर परणी नहीं , अजको जुंझ्यो आय ! सखी सजावो साजसह,सुरगां परणू जाय !!
देवल माँ भी एक शक्ति थी जिसने अन्याय के विरुद्त लड़ने के लिए पाबूजी को प्रेरित किया था ।
उनके पास जो केसर कालवी घोड़ी थी वो माताजी की जान थी और उसे जिंदराव खिसी के आग्रह करने पर भी माना कर दिया था ।
जिसके कारण वो माताजी से दुश्मनी कर बैठा और बदला लेने के लिए ही गायो को घेरा था ।
और वो ही केसर कालवी घोड़ी पाबूजी राठोड़ द्वारा प्रशंसा करते ही उन्हें सुप्रत कर दी थी ।

सीता जीवित मिली, यह राम की ताकत थी। और सीता पवित्र मिली, यह रावण की मजबूरी थी।

रावण ने परस्त्री को नहीं छुआ यह पूरी तरह गलत है, स्वयं रावण ने इसका खण्डन किया है, जिसे आप वाल्मीकि रामायण में ३.४७.२८, ३.२३.१२ के अलावा और भी कई जगह आसानी से पढ़ और समझ सकते हैं। कुछ धर्म द्रोहियों द्वारा समस्त सोशल मीडिया नेटवर्क में वायरल किया जाता है : “रावण में वासना थी तो संयम भी था।। रावण में सीता के अपहरण की ताकत थी तो बिना सहमति परस्त्री को स्पर्श भी न करने का संकल्प भी था।।” “सीता जीवित मिली, ये राम की ही ताकत थी। पर सीता पवित्र मिली, ये रावण की भी मर्यादा थ।।”
जिन्होंने रामायण कभी पढ़ी नहीं, वो लग जाते हैं इस पूर्णतः बकवास को कॉपी पेस्ट कर समर्थन करने। कुछ तो रामानंद सागर द्वारा दिखाया गया सीरियल ही सच मान बैठते हैं और चाहे अनचाहे में ऐसे मैसेजेस पढ़ कर रावण जैसा नीच पापात्मा आपके द्वारा महात्मा बना दिया जाता है।
रावण एक बलात्कारी था। आरण्य कांड में अनेक श्लोकों में स्पष्ट वर्णन है कि माता सीता का अपहरण रावण ने काम के वशीभूत होकर किया था। उसने माता सीता को हरण करने से पूर्व अनेकों बालाओं का बालात्कार किया था, वेदवती से छेड़खानी की थी, पुंजिकस्थला का बलात्कार किया था, फिर अपनी बहू रंभा का बलात्कार किया तब नलकुबेर ने उसे शाप दिया कि बिना सहमति के अगर वह किसी भी स्त्री का बलात्कार करने की कोशिश भी करेगा तो उसके सिर के टुकड़े टुकड़े हो जाएंगे और उसी क्षण उसका विनाश हो जाएगा। इसी कारण वह माता सीता को नहीं छू पाया था।
अतः कृपया रामायण पढ़ें और ऐसी झूठी कहानियां फैलाकर रावण जैसे दुष्ट राक्षस का महिमा मंडन न करें। ऐसा राक्षस न तो ब्राह्मण है न मूलनिवासी, वह मात्र एक कलंक है, जिसे हर युग में समय रहते मिटाना ही एक मात्र धर्म है।
और हां, सीता जीवित मिली, यह राम की ताकत थी।
और सीता पवित्र मिली, यह रावण की मजबूरी थी।।
जय सिया रामजय बजरंग बली