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इतिहास के पन्नों से (आज रानी लक्ष्मीबाई का जन्म दिवस है) –

इतिहास के पन्नों से (आज रानी लक्ष्मीबाई का जन्म दिवस है) –
वर्ष 1857 में अंग्रेज़ साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ बग़ावत का बिगुल बजाने वालों में झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाता है. अब रानी लक्ष्मी बाई का एक पत्र मिला है जिसमें उस दिन की परिस्थितियाँ बयान की गई हैं जब दामोदर राव को गोद लिया गया था. हालाँकि रानी लक्ष्मी बाई ने 1851 में एक पुत्र को जन्म दिया था लेकिन कुछ ही महीने बाद उसका देहांत हो गया था जिससे राजा गंगाधर राव की रिसायत को हड़पे जाने के बादल मंडराने लगे थे. इस पत्र से पता चलता है कि रानी लक्ष्मी बाई ने भरपूर सफ़ाई देने की कोशिश की थी कि अंग्रेज़ संधियों में दत्तक पुत्र को मान्यता दी गई थी और भारतीय प्रथाओं और शास्त्रों के अनुसार दत्तक पुत्र को भी वास्तविक पुत्र के समान ही दर्जा हासिल है, जिस तरह से पुत्र पिता को अंतिम समय में जल पिलाता है, उसी तरह दत्तक पुत्र भी जल पिला सकता है.

रानी लक्ष्मी बाई ने इस पत्र में यह दलील दी थी कि उनके पति राजा गंगाधर राव ने अंतिम साँस लेने से पहले आनंद राव नामक एक लड़के को गोद लेने की रस्म पूरी कर ली थी और उस लड़के को दामोदर राव गंगाधर नाम दिया गया. रानी लक्ष्मी बाई का यह पत्र लार्ड डलहौज़ी की हड़प नीति के संदर्भ में बहुत महत्वपूर्ण है. रानी लक्ष्मी बाई का यह पत्र ब्रिटिश संग्रहालय में पाया गया है. इसे खोजने वाली हैं लंदन के मशहूर विक्टोरिया ऐंड एलबर्ट म्यूज़ियम में रिसर्च क्यूरेटर दीपिका अहलावत जो भारतीय कला और संस्कृति पर शोध से जुड़ी हुई हैं. दीपिका अहलावत बताती हैं कि वो तो अपने शोध के सिलसिले में ब्रिटिश लाइब्रेरी में कुछ खोज रही थीं कि अचानक रानी लक्ष्मी बाई की ये चिट्ठी हाथ लग गई. फिर तो भारी प्रयास करके इस चिट्ठी को हासिल किया गया और इसे विक्टोरिया ऐंड एलबर्ट म्यूज़ियम में महाराजा नामक प्रदर्शनी में प्रदर्शित भी किया गया है. रानी लक्ष्मी बाई की यह चिट्ठी फ़ारसी और उर्दू में मिश्रित रूप से लिखी हुई है. साथ ही कुछ अन्य भाषाओं के शब्द भी इस्तेमाल किए गए हैं

दीपिका अहलावत ने इस चिट्ठी का अनुवाद अंग्रेज़ी में करने की कोशिश की जिसमें उनकी मदद की फ़रीबा थॉम्पसन ने. चिट्ठी का हिंदी रूपांतरण हमने यहाँ पेश करने की कोशिश की है…”अंग्रेज़ सरकार, जो राव राम चंद और उनके उत्तराधिकारियों की झाँसी सरकार का स्थायित्व बनाए रखना चाहती है, जो सरकार विधाता के आशीर्वाद से अस्तित्व में है, वो इस बात पर सहमत है कि कुलीन लोगों का नाम और रिसायत बरक़रार रखा जाए. इसीलिए जैसाकि पहले भी कहा जा चुका है, संधि के अंतर्गत किसी रियासत के अस्तित्व और निरंतरता की व्यवस्था की गई थी. वो व्यवस्था ये है कि अगर किसी शासक का कोई पुत्र ना हो तो दत्तक पुत्र उत्तराधिकारी माना जाएगा, और भारत में ये एक प्रथा भी है कि अगर कोई पुत्र नहीं होता है तो दत्तक पुत्र भी अंतिम समय में जल पिला सकता है, उसका यह कार्य रक्त पुत्र की ही तरह समझा जाएगा, ऐसा ही शास्त्रों में भी लिखा है.

इसलिए शिवराम ने 19 नवंबर 1853 को रात के समय दीवान लाहौरी मल… और लाला फ़तेह चंद नामक अधिकारियों को तलब किया और कहा कि बीमारी में किसी की भी दी हुई दवा कोई असर नहीं दिखा रही है. इसलिए उनका नाम और रियासत बरक़रार रहे, इसलिए शास्त्री से कहा जाए कि वह वे राजा के गोत्र से ही एक ऐसा लड़का तलाश करें जो गोद लेने के लिए उपयुक्त हो. आदेशानुसार राम चंदर बाबा साहिब शास्त्री को भी बुलाया गया. साथ ही गोत्र के कुछ लड़के भी बुलाए गए जिनमें बासु देव का पुत्र आनंद राव भी और उसे गोद लेने के लिए उपयुक्त होने पर सहमति बनी. शिवराम ने गोद लेने की रस्म पूरी करने के लिए शास्त्री को आदेश दिया और सुबह की बेला में पुरोहित राव ने मंत्रोच्चारण करके रस्म पूरी की. आनंद राव के पिता बासुदेव ने शिवराम के हाथों पर जल छिड़का और शास्त्रों के अनुसार अन्य रस्में पूरी कीं और गोद लिए गए बच्चे का नाम दामोदर राव गंगाधर रखा.”
किन्तु इस पत्र का कोई प्रभाव नहीं पड़ा और झांसी को अंग्रेज़ों ने हस्तगत कर लिया और इसके बाद जो हुआ वो एक इतिहास है. रानी लक्ष्मीबाई के अदम्य शौर्य को सबने देखा.https://www.facebook.com/photo/?fbid=289855746483341&set=a.151259460342971
साभार – बीबीसी हिंदी

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नायकों में से नेता लाला लाजपत राय का जीवन आज भी युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है.

पुण्यतिथि पर विशेष –
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नायकों में से एक और लाल, बाल, पाल की तिकड़ी के मशहूर नेता लाला लाजपत राय का जीवन आज भी युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है. उन्होंने न सिर्फ आजादी की लड़ाई के दौरान नेतृत्व किया बल्कि अपने जीवन उदाहरणों से उस आदर्श को स्थापित करने में सफलता पाई, जिसकी कल्पना एक आदर्श राजनेता में की जाती है. लाला लाजपत राय का जन्म 28 जनवरी, 1865 को पंजाब के मोगा में एक साधारण परिवार में हुआ था. उनके पिता लाला राधाकृष्ण एक अध्यापक रहे. इसका प्रभाव लाजपत राय पर भी पड़ा. शुरूआती दिनों से ही वे एक मेधावी छात्र रहे और अपनी स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद वकालत की ओर रुख कर लिया. वे एक बेहतरीन वकील बने और कुछ समय तक वकालत भी की, लेकिन जल्दी ही उनका मन इस काम से उचट गया. अंग्रेजों की न्याय व्यवस्था के प्रति उनके मन में रोष पैदा हो गया. उन्होंने उस व्यवस्था को छोड़कर बैंकिंग का रूख किया,उन्होंने अपनी आजीविका चलाने के लिए बैंकिंग का नवाचार किया. उस समय तक भारत में बैंक कोई बहुत अधिक लोकप्रिय नहीं थे, लेकिन उन्होंने इसे चुनौती की तरह लिया और पंजाब नेशनल बैंक तथा लक्ष्मी बीमा कंपनी की स्थापना की. दूसरी तरफ वे लगातार कांग्रेस के माध्यम से अंग्रेजों की खिलाफत करते रहे. अपनी निर्भिकता और गरम स्वभाव के कारण इन्हें पंजाब केसरी के उपाधी से नवाजा गया. बाल गंगाधर तिलक के बाद वे उन शुरूआती नेताओं में से थे, जिन्होंने पूर्ण स्वराज की मांग की. पंजाब में वे सबसे लोकप्रिय नेता बन कर उभरे.
आजादी के प्रखर सेनानी होने के साथ ही लाला जी का झुकाव भारत में तेजी से फैल रहे आर्य समाज आंदोलन की तरफ भी था

इसका परिणाम हुआ कि उन्होंने जल्दी ही महर्षि दयानंद सरस्वती के साथ मिलकर इस आंदोलन का आगे बढ़ाने का काम ​हाथ में ले लिया. आर्य समाज भारतीय हिंदू समाज में फैली कूरीतियों और धार्मिक अंधविश्वासों पर प्रहार करता था और वेदों की ओर लौटने का आवाहन करता था. लाला जी ने उस वक्त लोकप्रिय जनमानस के विरूद्ध खड़े होने का साहस किया. ये उस दौर की बात है जब आर्य समाजियों को धर्मविरोधी समझा जाता ​था, लेकिन लाला जी ने इसकी कतई परवाह नहीं की. जल्दी ही उनके प्रयासों से आर्य समाज पंजाब में लोकप्रिय हो गया. उन्होंने दूसरा और ज्यादा महत्वपूर्ण कार्य भारतीय शिक्षा के क्षेत्र में कि​या. अभी तक भारत में पारम्परिक शिक्षा का ही बोलबाला था​. जिसमें शिक्षा का माध्यम संस्कृत और उर्दू ​थे. ज्यादातर लोग उस शिक्षा से वंचित थे जो यूरोपीय शैली या अंग्रेजी व्यवस्था पर आधारित थी. आर्य समाज ने इस दिशा में दयानंद एंग्लो वैदिक विद्यालयों को प्रारंभ किया, जिसके प्रसार और प्रचार के लिए लाला जी ने हरसंभव प्रयास किए. आगे चलकर पंजाब अपने बेहतरीन डीएवी स्कूल्स के लिए जाना गया. इसमें लाला लाजपत राय का योगदान अविस्मरणीय रहा.

शिक्षा के क्षेत्र में उनकी दूसरी महत्वपूर्ण उपलब्धि लाहौर का डीएवी कॉलेज रहा. उन्होंने इस कॉलेज के तब के भारत के बेहतरीन शिक्षा के केन्द्र में तब्दील कर दिया. यह कॉलेज उन युवाओं के लिए तो वरदान साबित हुआ, जिन्होंने असहयोग आंदोलन के दौरान अंग्रेजों द्वारा संचालित कॉलेजों को धता बता दिया था. डीएवी कॉलेज ने उनमें से अधिकांश की शिक्षा की व्यवस्था कीकेन्द्र में तब्दील कर दिया. यह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ना लाला जी के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी. 1888 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन  केन्द्र में तब्दील कर दिया. यह इलाहाबाद में हुआ और यह पहला अवसर था जब लाला लाजपत राय को इस संगठन से जुड़ने का अवसर मिला. अपने शुरूआती दिनों में ही उन्होंने एक उत्साही कार्यकर्ता के तौर पर कांग्रेस में पहचान बनानी शुरू कर दी. धीरे—धीरे वे कांग्रेस के पंजाब प्रांत के सर्वमान्य प्रतिनिधि मान लिए गए. 1906 में उनको कांग्रेस ने गोपालकृष्ण के साथ गए शिष्टमंडल का सदस्य बनाया. संगठन में उनके बढ़ते कद का यह परिचायक बनी. कांग्रेस में उनके विचारों के कारण उठापटक प्रारंभ हुई. वे बाल गंगाधर तिलक और विपिनचंद्र पाल के अलावा तीसरे नेता थे, जो कांग्रेस को अंग्रेजों की पिछलग्गू संस्था की भूमिका से ऊपर उठाना चाहते थे.

कांग्रेस में अंग्रेज सरकार की खिलाफत की वजह से वे ब्रिटिश सरकार की नजरों में अखरने लग गए. ब्रिटिशर्स चाहते थे कि उन्हें कांग्रेस से अलग कर दिया जाए, लेकिन उनका कद और लोकप्रियता देखते हुए, यह करना आसान नहीं था. 1907 में लाला लाजपत राय के नेतृत्व में किसानों ने अंग्रेज ​सरकार के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया. अंग्रेज सरकार ऐसे ही मौके के तलाश में थी और उन्होंने लालाजी को न सिर्फ गिरफ्तार किया, बल्कि उन्हें देश निकाला देते हुए बर्मा के मांडले जेल में कैद कर दिया गया, लेकिन सरकार का यह दांव उल्टा पड़ गया और लोग सड़कों पर उतर आए. दबाव में अंग्रेज सरकार को फैसला वापस लेना पड़ा और लाला जी एक बार फिर अपने लोगों के बीच वापस आए. 1907 आते—आते लाला जी के विचारों से कांग्रेस का एक धड़ा पूरी तरह असहमत दिखने लगा था. लाला जी को उस गरम दल का हिस्सा माना जाने लगा था, जो अंग्रेज सरकार से लड़कर पूर्ण स्वराज लेना चाहती थी. इस पूर्ण स्वराज को अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम और प्रथम विश्व युद्ध से बल मिला और लाला जी भारत में एनीबेसेंट के साथ होमरूल के मुख्य वक्ता बन कर सामने आए. जलिया वाला बाग कांड ने उनमें अंग्रेज सरकार के खिलाफ और ज्यादा असंतोष भर दिया. इसी बीच कांग्रेस में महात्मा गांधी का प्रादुर्भाव हो चुका था और अंतरराष्ट्रीय पटल पर गांधी स्थापित हो चुके थे. 1920 में गांधी द्वारा चलाए गए असहयोग आंदोलन में उन्होंने बढ़—चढ़ कर हिस्सा लिया. उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन तबियत बिगड़ जाने पर उन्हें रिहा कर दिया गया. इसी बीच उनके संबंध लगातार कांग्रेस से बिगड़ते रहे और 1924 में उन्होंने कांग्रेस छोड़कर स्वराज पार्टी में शामिल हुए और केन्द्रिय असेम्बली के सदस्य चुने गये. यहां भी जल्दी ही उनका मन उचट गया और उन्होंने नेशलिस्ट पार्टी का गठन किया और एक बार फिर असेम्बली का हिस्सा बने.

भारत की आजादी की लड़ाई एक बड़ा वाकया उस वक्त घटित हुआ, जब भारतीयों से बात करने आए साइमन कमीशन का विरोध का फैसला गांधी द्वारा लिया गया. साइमन कमीशन जहां भी गया, वहां साइमन गो बैक के नारे बुलंद हुए. 30 अक्टूबर 1928 को जब कमीशन लाहौर पहुंचा, तो लाला लाजपत राय के नेतृत्व में एक दल शांतिपूर्वक साइमन गो बैक के नारे लगाता हुआ अपना विरोध दर्ज करवा रहा था. तभी अंग्रेज पुलिस ने उन पर लाठीचार्ज कर दिया और एक युवा अंग्रेज अफसर ने लालाजी के सर पर जोरदार प्रहार किया. लाला जी का कथन था— मेरे शरीर पर पड़ी एक—एक लाठी ब्रिटिश साम्राज्य के ताबूत में कील का काम करेगी.
सिर पर लगी हुई चोट ने लाला लाजपत राय का प्राणान्त कर दिया. उनकी मृत्यु से पूरा देश भड़क उठा. इसी क्रोध के परिणामस्वरूप भगतसिंह, शिवराम राजगुरु और सुखदेव ने अंग्रेज पुलिस अधिकारी सांडर्स की हत्या की और फांसी के फंदे से झूल गए. लाला लाजपत राय भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उन सेनानियों में से एक रहे जिन्होंने अपना सबकुछ देश को दे दिया. उनका जीवन ढेर सारे कष्टों और संघर्ष की महागाथा ​है, जिसे आने वाली पीढ़ीया युगों तक कहती— सुनती रहेंगी

बिरसा मुंडा: ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ विद्रोह करनेवाले पहले आदिवासी वीर!

बिरसा मुंडा: ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ विद्रोह करनेवाले पहले आदिवासी वीर!
‘‘मैं केवल देह नहीं मैं जंगल का पुश्तैनी दावेदार हूँ पुश्तें और उनके दावे मरते नहीं मैं भी मर नहीं सकता मुझे कोई भी जंगलों से बेदखल नहीं कर सकता उलगुलान! उलगुलान!! उलगुलान!!!’’ ‘बिरसा मुंडा की याद में’ शीर्षक से यह कविता आदिवासी साहित्यकार हरीराम मीणा ने लिखी हैं। ‘उलगुलान’ यानी आदिवासियों का जल-जंगल-जमीन पर दावेदारी का संघर्ष। बिरसा मुंडा भारत के एक आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी और लोक नायक थे। अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम में उनकी ख्याति जग जाहिर थी। सिर्फ 25 साल के जीवन में उन्होंने इतने मुकाम हासिल किये कि हमारा इतिहास सदैव उनका ऋणी रहेगा। बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को वर्तमान झारखंड राज्य के रांची जिले में उलिहातु गाँव में हुआ था। उनकी माता का नाम करमी हातू और पिता का नाम सुगना मुंडा था। उस समय भारत में अंग्रेजी शासन था।

आदिवासियों को अपने इलाकों में किसी भी प्रकार का दखल मंजूर नहीं था। यही कारण रहा है कि आदिवासी इलाके हमेशा स्वतंत्र रहे हैं। अंग्रेज़ भी शुरू में वहां जा नहीं पाए थे, लेकिन तमाम षड्यंत्रों के बाद वे आख़िर घुसपैठ करने में कामयाब हो गये। बिरसा पढ़ाई में बहुत होशियार थे इसलिए लोगों ने उनके पिता से उनका दाखिला जर्मन स्कूल में कराने को कहा। पर इसाई स्कूल में प्रवेश लेने के लिए इसाई धर्म अपनाना जरुरी हुआ करता था तो बिरसा का नाम परिवर्तन कर बिरसा डेविड रख दिया गया। कुछ समय तक पढ़ाई करने के बाद उन्होंने जर्मन मिशन स्कूल छोड़ दिया क्योंकि बिरसा के मन में बचपन से ही साहूकारों के साथ-साथ ब्रिटिश सरकार के अत्याचारों के खिलाफ विद्रोह की भावना पनप रही थी। इसके बाद बिरसा ने जबरन धर्म परिवर्तन के खिलाफ़ लोगों को जागृत किया तथा आदिवासियों की परम्पराओं को जीवित रखने के कई प्रयास किया। 1894 में बारिश न होने से छोटा नागपुर में भयंकर अकाल और महामारी फैली हुई थी। बिरसा ने पूरे समर्पण से अपने लोगों की सेवा की। उन्होंने लोगों को अन्धविश्वास से बाहर निकल बिमारियों का इलाज करने के प्रति जागरूक किया। सभी आदिवासियों के लिए वे ‘धरती आबा’ यानि ‘धरती पिता’ हो गये।

अंग्रेजों ने ‘इंडियन फारेस्ट एक्ट 1882’ पारित कर आदिवासियों को जंगल के अधिकार से वंचित कर दिया। अंग्रेजों ने ज़मींदारी व्यवस्था लागू कर आदिवासियों के वो गाँव, जहां वे सामूहिक खेती करते थे, ज़मींदारों और दलालों में बांटकर राजस्व की नयी व्यवस्था लागू कर दी। और फिर शुरू हुआ अंग्रेजों, जमींदार व महाजनों द्वारा भोले-भाले आदिवासियों का शोषण। अंग्रेजों ने ‘इंडियन फारेस्ट एक्ट 1882’ पारित कर आदिवासियों को जंगल के अधिकार से वंचित कर दिया। अंग्रेजों ने ज़मींदारी व्यवस्था लागू कर आदिवासियों के वो गाँव, जहां वे सामूहिक खेती करते थे, ज़मींदारों और दलालों में बांटकर राजस्व की नयी व्यवस्था लागू कर दी। और फिर शुरू हुआ अंग्रेजों, जमींदार व महाजनों द्वारा भोले-भाले आदिवासियों का शोषण। इस शोषण के खिलाफ विद्रोह की चिंगारी फूंकी बिरसा ने। अपने लोगों को गुलामी से आजादी दिलाने के लिए बिरसा ने ‘उलगुलान’ (जल-जंगल-जमीन पर दावेदारी ) की अलख जगाई।
1895 में बिरसा ने अंग्रेजों की लागू की गयी ज़मींदारी प्रथा और राजस्व व्यवस्था के ख़िलाफ़ लड़ाई के साथ-साथ जंगल-ज़मीन की लड़ाई छेड़ी। यह सिर्फ कोई बग़ावत नहीं थी। बल्कि यह तो आदिवासी स्वाभिमान, स्वतन्त्रता और संस्कृति को बचाने का संग्राम था।

बिरसा ने ‘अबुआ दिशुम अबुआ राज’ यानि ‘हमारा देश, हमारा राज’ का नारा दिया। देखते-ही-देखते सभी आदिवासी, जंगल पर दावेदारी के लिए इकट्ठे हो गये। अंग्रेजी सरकार के पांव उखड़ने लगे। और भ्रष्ट जमींदार व पूंजीवादी बिरसा के नाम से भी कांपते थे। अंग्रेजी सरकार ने बिरसा के उलगुलान को दबाने की हर संभव कोशिश की, लेकिन आदिवासियों के गुरिल्ला युद्ध के आगे उन्हें असफलता ही मिली। 1897 से 1900 के बीच आदिवासियों और अंग्रेजों के बीच कई लड़ाईयां हुईं। पर हर बार अंग्रेजी सरकार ने मुंह की खाई। जिस बिरसा को अंग्रेजों की तोप और बंदूकों की ताकत नहीं पकड़ पायी, उसके बंदी बनने का कारण अपने ही लोगों का धोखा बनी। जब अंग्रेजी सरकार ने बिरसा को पकड़वाने के लिए 500 रूपये की धनराशी के इनाम की घोषणा की तो किसी अपने ही व्यक्ति ने बिरसा के ठिकाने का पता अंग्रेजों तक पहुंचाया।
जनवरी 1900 में उलिहातू के नजदीक डोमबाड़ी पहाड़ी पर बिरसा अपनी जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे, तभी अंग्रेज सिपाहियों ने चारो तरफ से घेर लिया। अंग्रेजों और आदिवासियों के बीच लड़ाई हुई। औरतें और बच्चों समेत बहुत से लोग मारे गये। अन्त में बिरसा भी 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर में गिरफ़्तार कर लिये गये।

9 जून 1900 को बिरसा ने रांची के कारागार में आखिरी सांस ली। 25 साल की उम्र में बिरसा मुंडा ने जिस क्रांति का आगाज किया वह आदिवासियों को हमेशा प्रेरित करती रही है। हिंदी साहित्य की महान लेखिका व उपन्यासकार महाश्वेता देवी ने अपने उपन्यास ‘जंगल के दावेदार’ में बिरसा मुंडा के जीवन व आदिवासी स्वाभिमान के लिए उनके संघर्ष को मार्मिक रूप से लिखा है। आज भी बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा मुण्डा को भगवान की तरह पूजा जाता है। बिरसा मुण्डा की समाधि राँची में कोकर के निकट डिस्टिलरी पुल के पास स्थित है। वहीं उनका मूर्ति भी लगी है। उनकी स्मृति में रांची में बिरसा मुण्डा केन्द्रीय कारागार तथा बिरसा मुंडा हवाई-अड्डा भी है। बिरसा के जाने के इतने सालों बाद आज भी उनका संग्राम जारी है। बहुत से आदिवासी संगठन हैं, जो जंगल पर दावेदारी के लिए आज भी संघर्ष कर रहे हैं। इन सभी ने मिलकर बिरसा का उलगुलान जारी रखा है। इन सभी के प्रेरणास्रोत हैं बिरसा मुंडा।

नाथूराम गोडसे के नाम और उनके एक काम के अतिरिक्त लोग उन के बारे में कुछ नहीं जानते ?

लेखक – डॉ. शंकर शरण
नाथूराम गोडसे के नाम और उनके एक काम के अतिरिक्त लोग उन के बारे में कुछ नहीं जानते। एक लोकतांत्रिक देश में यह कुछ रहस्यमय बात है। रहस्य का आरंभ 8 नवंबर 1948 को ही हो गया था, जब गाँधीजी की हत्या के लिए चले मुकदमे में गोडसे द्वारा दिए गए बयान को प्रकाशित करने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। गोडसे का बयान लोग जानें, इस पर प्रतिबंध क्यों लगा?
इस का कुछ अनुमान जस्टिस जी.डी. खोसला, जो गोडसे मुकदमे की सुनवाई के एक जज थे, की टिप्पणी से मिल सकता है। अदालत में गोडसे ने अपनी बात पाँच घंटे लंबे वक्तव्य के रूप में रखी थी, जो 90 पृष्ठों का था। जब गोडसे ने बोलना समाप्त किया तब का दृश्य जस्टिस खोसला के शब्दों में… “सुनने वाले स्तब्ध और विचलित थे। एक गहरा सन्नाटा था, जब उसने बोलना बंद किया। महिलाओं की आँखों में आँसू थे और पुरुष भी खाँसते हुए रुमाल ढूँढ रहे थे।… मुझे कोई संदेह नहीं है, कि यदि उस दिन अदालत में उपस्थित लोगों की जूरी बनाई जाती और गोडसे पर फैसला देने कहा जाता तो उन्होंने भारी बहुमत से गोडसे के ‘निर्दोष’ होने का फैसला दिया होता।” (“द मर्डर ऑफ महात्मा एन्ड अदर केसेज फ्रॉम ए जजेस नोटबुक, पृ. 305-06)
यही नहीं, तब देश के कानून मंत्री डॉ. अंबेडकर थे। उन्होंने गोडसे के वकील को संदेश भेजा कि यदि गोडसे चाहें तो वे उन की सजा आजीवन कारावास में बदलवा सकते हैं। गाँधीजी वाली अहिंसा दलील के सहारे यह करवाना सरल था। किंतु गोडसे ने आग्रह पूर्वक मना कर, उलटे डॉ. अंबेदकर को लौटती संदेश यह दिया, “कृपया सुनिश्चित करें कि मुझ पर कोई दया न की जाए। मैं अपने माध्यम से यह दिखाना चाहता हूँ कि गाँधी की अहिंसा को फाँसी पर लटकाया जा रहा है।”

गोडसे का यह कथन कितना लोमहर्षक सच साबित हुआ, यह भी यहाँ इतने निकट इतिहास का एक छिपाया गया तथ्य है! गाँधीजी की हत्या के बाद गाँधी समर्थकों ने बड़े पैमाने पर गोडसे की जाति-समुदाय की हत्याएं की। गाँधी पर लिखी, छपी सैकड़ों जीवनियों में कहीं यह तथ्य नहीं मिलता कि कितने चितपावन ब्राह्मणों को गाँधीवीदियों ने मार डाला था। 31 दिसंबर 1948 के “न्यूयॉर्क टाइम्स” में प्रकाशित समाचार के अनुसार, केवल बंबई में गाँधीजी की हत्या वाले एक दिन में ही 15 लोगों को मार डाला गया था। पुणे के स्थानीय लोग आज भी जानते हैं कि वहाँ उस दिन कम से कम 50 लोगों को मार डाला गया था। कई जगह हिंदू महासभा के दफ्तरों को आग लगाई गई। चितपावन ब्राह्मणों पर शोध करने वाली अमेरिकी अध्येता मौरीन पैटरसन ने लिखा है कि सबसे अधिक हिंसा बंबई, पुणे, नागपुर आदि नहीं, बल्कि सतारा, बेलगाम और कोल्हापुर में हुई। तब भी सामुदायिक हिंसा की रिपोर्टिंग पर कड़ा नियंत्रण था। अतः, मौरीन के अनुसार, उन हत्याओं के दशकों बीत जाने बाद भी उन्हें उन पुलिस फाइलों को देखने नहीं दिया गया, जो 30 जनवरी 1948 के बाद चितपावन ब्राह्मणों की हत्याओं से संबंधित थीं।

इस प्रकार, उस ‘गाँधीवादी हिंसा’ का कोई हिसाब अब तक सामने नहीं आने दिया गया है, जिस में असंख्य निर्दोष चितपावन ब्राह्मणों को इसलिए मार डाला गया था क्योंकि गोडसे उसी जाति के थे। निस्संदेह, राजनीतिक जीवन में गाँधीजी के कथित अहिंसा सिद्धांत के भोंडेपन का यह एक व्यंग्यात्मक प्रमाण था! चाहे, कांग्रेसी शासन और वामपंथी बौद्धिकों ने इन तथ्यों को छिपाकर अपना राजनीतिक उल्लू सीधा किया। कडवा सच तो यह है कि गोडसे ने गाँधीजी की हत्या करके उन्हें वह महानता प्रदान करने में केंद्रीय भूमिका निभाई, जो सामान्य मृत्यु से उन्हें मिलने वाली नहीं थी। स्वतंत्रता से ठीक पूर्व और बाद देश में गाँधी का आदर कितना कम हो गया था, यह 1946-48 के अखबारों के पन्नों को पलट कर सरलता से देख सकते हैं। नोआखली में गाँधी के रास्ते में पर लोगों ने टूटे काँच बिछा दिए थे। ऐसी वितृष्णा अकारण न थी। देश विभाजन रोकने के लिए गाँधी ने अनशन नहीं किया, और अपना वचन (‘विभाजन मेरी लाश पर होगा’) तोड़ा, यह तो केवल एक बात थी।
पश्चिमी पंजाब से आने वाले हजारों हिंदू-सिखों को उलटे जली-कटी सुनाकर गाँधी उनके घावों पर नमक छिड़कते रहते थे। दिल्ली की दैनिक प्रार्थना-सभा में गाँधी उन अभागों को ताने देते थे, कि वे जान बचाकर यहाँ क्यों चले आये, वहीं रहकर मर जाते तो अहिंसा की विजय होती, आदि। फिर, विभाजन रोकने या पाकिस्तान में हिंदू-सिखों की जान को तो गाँधीजी ने अनशन नहीं किया; किन्तु भारत पाकिस्तान को 55 करोड़ रूपये दे, इसके लिए गाँधीजी ने जनवरी 1948 में अनशन किया था! तब कश्मीर पर पाकिस्तानी हमला जारी था, और गाँधीजी के अनशन से झुककर भारत सरकार ने वह रकम पाकिस्तान को दी। यह विश्व-इतिहास में पहली घटना थी जब किसी आक्रमित देश ने आक्रमणकारी को, यानी अपने ही विरुद्ध युद्ध को वित्तीय सहायता दी!

गोडसे द्वारा गाँधीजी को दंड देने के निश्चय में उस अनशन ने निर्णायक भूमिका अदा की। तब देश में लाखों लोग गाँधी सजी को नित्य कोस रहे थे। पाकिस्तान से जान बचाकर भागे हिन्दू-सिख गाँधी से घृणा कते थे। वही स्थिति कश्मीरी और बंगाली हिन्दुओं की थी। ‘हिंद पॉकेट बुक्स’ के यशस्वी संस्थापक दीनानाथ मल्होत्रा ने अपनी संस्मरण पुस्तक ‘भूली नहीं जो यादेंपृ. 168) में उल्लेख किया है कि जब गाँधीजी की हत्या की पहली खबर आई, तो सब ने स्वतः मान लिया कि किसी पंजाबी ने ही उन्हें मारा। फिर, उन लाखों बेघरों, शरणार्थियों के सिवा पाकिस्तान में हिन्दुओ का जो कत्लेआम हुआ, और जबरन धर्मांतरण कराए गए, उस पर भारत में दुःख, आक्रोश और सहज सहानुभूति थी। यह सब गाँधीजी के प्रति क्षोभ में भी व्यक्त होता था। विशेषकर तब, जब वे पंजाबी हिन्दुओं, सिखों को सामूहिक रूप से मर जाने का उपदेश देते हुए यहाँ मुसलमानों (जो वैसे भी असंगठित, अरक्षित, भयाक्रांत नहीं थे जैसे पाकिस्तान में हिन्दू थे। नहीं तो वे यहीं रह न सके होते) और उनकी संपत्ति की रक्षा के लिए सरकार पर कठोर दबाव बनाए हुए थे।

इस तरह, दुर्बल को अपने हाल पर छोड़ कर गाँधी सबल की रक्षा में व्यस्त थे! यह पूरे देश के सामने तब आइने की तरह स्पष्ट था। अतः उस समय की संपूर्ण परिस्थिति का अवलोकन करते हुए यह बात वृथा नहीं कि, यदि गाँधीजी प्राकृतिक मृत्यु पाते, तो आज उन का स्थान भारतीय लोकस्मृति में बालगंगाधार तिलक, जयप्रकाश नारायण, आदि महापुरुषों जैसा ही कुछ रहा होता। तीन दशक तक गाँधी की भारतीय राजनीति में अनगिनत बड़ी-बड़ी विफलताएं जमा हो चुकी थीं। खलीफत-समर्थन से लेकर देश-विभाजन तक, मुस्लिमों को ‘ब्लैंक चेक’ देने जैसे नियमित सामुदायिक पक्षपात और अपने सत्य-अहिंसा-ब्रह्मचर्य सिद्धांतों के विचित्र, हैरत भरे, यहाँ तक कि अनेक निकट जनों को धक्का पहुँचाने वाले कार्यान्वयन से बड़ी संख्या में लोग गाँधीजी से वितृष्ण हो चुके थे। लेकिन गोडसे की गोली ने सब कुछ बदल कर रख दिया। इसलिए भक्त गाँधीवादियों को तो गोडसे का धन्यवाद करते हुए, बतर्ज अनिल बर्वे, “थैंक यू, मिस्टर गोडसे!” जैसी भावना रखनी चाहिए।

गोडसे ने चाहे गाँधी को दंड देने का लिए गोली मारी, लेकिन वस्तुतः उसी नाटकीय अवसान से गाँधीजी को वह महानता मिल सकी, जो वैसे संभवतः न मिली होती। भारत में नेहरूवादी और मार्क्सवादी इतिहासकारों द्वारा घोर इतिहास-मिथ्याकरण का एक अध्याय यह भी है कि लोग गोडसे के बारे में कुछ नहीं जानते! यहाँ तक कि गाँधी-आलोचकों की लिस्ट में भी गोडसे का उल्लेख नहीं होता। इसी विषय पर लिखी इतिहासकार बी. आर. नंदा की पुस्तक, “गाँधी एन्ड हिज क्रिटिक्स” (1985) में भी गोडसे का नाम नहीं, जबकि गोडसे का 90 पृष्ठों का वक्तव्य, जो 1977 के बाद पुस्तिका के रूप में प्रकाशित होता रहा है, गाँधीजी के सिद्धांतों और कार्यों की एक सधी आलोचना है। लेकिन 67 वर्ष बीत गए, गोडसे की उस आलोचना का किसी भारतीय ने उत्तर नहीं दिया। न उस की कोई समीक्षा की गई। यदि गोडसे की बातें प्रलाप, मूर्खतापूर्ण, अनर्गल, आदि होतीं, तो उन्हें प्रकाशित करने पर प्रतिबंध नहीं लगा होता! लोग उसे स्वयं देखते, समझते कि गाँधीजी की हत्या करने वाला कितना मूढ़, जुनूनी या सांप्रदायिक था। पर स्थिति यह है कि विगत 38 वर्ष से गोडसे का वक्तव्य उपलब्ध रहने पर भी एक यूरोपीय विद्वान (कोएनराड एल्स्ट, “गांधी एंड गोडसेः ए रिव्यू एंड ए क्रिटीक” 2001) के अतिरिक्त किसी भारतीय ने उस की समीक्षा नहीं की है। क्यों?

संभवतः इसीलिए, क्योंकि उसे उपेक्षित तहखाने में दबे रहना ही प्रभावी राजनीति के लिए सुविधाजनक था। गोडसे की अनेक बातें संपूर्ण समकालीन सेक्यूलर भारतीय राजनीति की भी आलोचना हो जाती है। इस अर्थ में वह आज भी प्रासंगिक है। यह भी कारण है कि यहाँ राजनीतिक रूप से प्रभावी इतिहासकारों, बुद्धिजीवियों ने उसे मौन की सेंसरशिप से अस्तित्वहीन-सा बनाए रखा है। अन्यथा कोई कारण नहीं कि एक ऐतिहासिक दस्तावेज का कहीं उल्लेख न हो। न इतिहास, न राजनीति में उस का अध्ययन, विश्लेषण किया जाए। यह चुप्पी सहज नहीं है। यह न्याय नहीं है। इस सायास चुप्पी का कारण यही प्रतीत होता है कि किसी भी बहाने यदि गोडसे के वक्तव्य को नई पीढ़ी पढ़े, और परखे, तो आज भी भारी बहुमत से लोगों का निर्णय वही होगा, जो जस्टिस खोसला ने तब अदालत में उपस्थित नर-नारियों का पाया था। तब गोडसे को ‘हिन्दू सांप्रदायिक’ या ‘जुनूनी हत्यारा’ कहना संभव नहीं रह जाएगा।

वस्तुतः नाथूराम गोडसे के जीवन, चरित्र और विचारों का समग्र मूल्यांकन करने से उन का स्थान भगत सिंह और ऊधम सिंह की पंक्ति में चला जाएगा। तीनों देश-भक्त थे। तीनों को राजनीतिक हत्याओं के लिए फाँसी हुई। तीनों ने अपने-अपने शिकारों को करनी का ‘दंड’ दिया, जिस से सहमति रखना जरूरी नहीं। मगर तीनों की दृष्टि में एक समानता तो है ही। भगत सिंह ने पुलिस की लाठी से लाला लाजपत राय की मृत्यु का बदला लेने के लिए 17 दिसंबर 1928 को अंग्रेज पुलिस अधीक्षक जॉन साउंडर्स की हत्या की। ऊधम सिंह ने जलियाँवाला नरसंहार करने वाले कर्नल माइकल डायर को 13 मार्च 1940 को गोली मार दी। उसी तरह, नाथूराम गोडसे ने भी गाँधी को देश का विभाजन, लाखों हिन्दुओं-सिखों के साथ विश्वासघात, उन के संहार व विध्वंस तथा हानिकारक सामुदायिक राजनीति करने का कारण मानकर उन्हें 30 जनवरी 1948 को गोली मारी थी।

आगे की तुलना में भी, जैसे अंग्रेज सरकार ने भगत सिंह और ऊधम सिंह को हत्या का दोषी मानकर उन्हें फाँसी दी, उसी तरह भारत सरकार ने भी नाथूराम गोडसे को फाँसी दी। तीनों के कर्म, तीनों की भावनाएं, तीनों का जीवन-चरित्र मूलतः एक जैसा है। इस सचाई को छिपाया नहीं जाना चाहिए। उक्त निष्कर्ष डॉ. लोहिया के विचारों से भी पुष्ट होता है। देश का विभाजन होने पर लाखों लोग मरेंगे, यह गाँधीजी जानते थे, फिर भी उन्होंने उसे नहीं रोका। बल्कि नेहरू की मदद करने के लिए खुद कांग्रेस कार्य-समिति को विभाजन स्वीकार करने पर विवश किया जो उस के लिए तैयार नहीं थी। इसे लोहिया ने गाँधी का ‘अक्षम्य’ अपराध माना है। तब इस अपराध का क्या दंड होता? संभवतः सब से अच्छा दंड गाँधी को सामाजिक, राजनीतिक रूप से उपेक्षित करना, और अपनी सहज मृत्यु पाने देना होता। पर, अफसोस!

डॉ. लोहिया के शब्दों पर गंभीरता से विचार करें – विभाजन से दंगे होंगे, ऐसा तो गाँधीजी ने समझ लिया था, लेकिन “जिस जबर्दस्त पैमाने पर दंगे वास्तव में हुए, उसका उन्हें अनुमान न था, इस में मुझे शक है। अगर ऐसा था, तब तो उन का दोष अक्षम्य हो जाता है। दरअसल उन का दोष अभी भी अक्षम्य है। अगर बँटवारे के फलस्वरूप हुए हत्याकांड के विशाल पैमाने का अन्दाज उन्हें सचमुच था, तब तो उन के आचरण के लिए कुछ अन्य शब्दों का इस्तेमाल करना पड़ेगा।” (“गाँधीजी के दोष”) ध्यान दें, सौजन्यवश लोहिया ने गाँधी के प्रति उन शब्दों का प्रयोग नहीं किया जो उन के मन में आए होंगे। किंतु वह शब्द छल, अज्ञान, हिन्दुओं के प्रति विश्वासघात, बुद्धि का दिवालियापन, जैसे ही कुछ हो सकते हैं। इसलिए, जिस भावनावश गोडसे ने गाँधीजी को दंडित किया वह उसी श्रेणी का है जो भगतसिंह और ऊधम सिंह का था। इस कड़वे सत्य को भी लोहिया के सहारे वहीं देख सकते हैं। लोहिया के अनुसार, “देश का विभाजन और गाँधीजी की हत्या एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक पहलू की जाँच किए बिना दूसरे की जाँच करना समय की मूर्खतापूर्ण बर्बादी है।” यह कथन क्या दर्शाता है? यही, कि वैसा न करके क्षुद्र राजनीतिक चतुराई की गई। तभी तो जिस किसी को ‘गाँधी के हत्यारे’ कहकर निंदित किया जाता है, जबकि विभाजन की विभीषिका से उस हत्या के संबंध की कभी जाँच नहीं होती। क्योंकि जैसे ही यह जाँच होगी, जिसे लोहिया ने जरूरी माना था, वैसे ही गोडसे का वही रूप सामने होगा जो उन्हें भगत सिंह और ऊधम सिंह के सिवा और किसी श्रेणी में रखने नहीं देगा।

इस निष्कर्ष से गाँधी-नेहरूवादी तथा दूसरे भी मतभेद रख सकते हैं। ठीक वैसे ही जैसे असंख्य अंग्रेज लोग भगत सिंह और ऊधम सिंह से रखते ही रहे हैं। आखिर वे तो हमारे भगत सिंह और ऊधम सिंह को पूज्य नहीं मानते! लेकिन वे दोनों ही भारतवासियों के लिए पूज्य हैं। ठीक उसी तरह, यदि हिंदू महासभा या कोई भी हिन्दू नाथूराम गोडसे को सम्मान से देखता है और उन्हें सम्मानित करना चाहता है तो इसे सहजता से लेना चाहिए। आखिर, भगत सिंह या ऊधम सिंह के प्रति भी हमारा सम्मान उन के द्वारा की गई हत्याओं का सम्मान नहीं है। वह एक भावना का सम्मान है, जो सम्मानजनक थी। अतः नाथूराम गोडसे के प्रति किसी का आदर भी देश-भक्ति, राष्ट्रीय आत्मसम्मान और न्याय भावना का ही आदर भी हो सकता है। जिन्हें इस संभावना पर संदेह हो, वे गोडसे का वक्तव्य एक बार आद्योपांत पढ़ने का कष्ट करें।

पुण्यतिथि पर विशेष – अकेले ही 30 से भी ज़्यादा ब्रिटिश सैनिकों को मार गिराने वाली भारतीय वीरांगना!

पुण्यतिथि पर विशेष –
अकेले ही 30 से भी ज़्यादा ब्रिटिश सैनिकों को मार गिराने वाली भारतीय वीरांगना!
रानी लक्ष्मी बाई, बेगम हज़रत महल जैसी वीरांगनाओं के बारे में तो सब जानते हैं। पर वीरांगना ऊदा देवी के बारे में कम ही लोग जानते हैं जिन्होंने लखनऊ के सिकंदर बाग में ब्रिटिश सेना को मुंहतोड़ जवाब दिया। लखनऊ में जन्मीं ऊदा देवी की जन्म तारीख के बारे में ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है। पर कहा जाता है कि उनके पति का नाम मक्का पासी था और शादी के बाद ससुराल में ऊदा का नाम ‘जगरानी’ रख दिया गया।

लखनऊ के छठे नवाब वाजिद अली शाह ने बड़ी मात्रा में अपनी सेना में सैनिकों की भर्ती की और ऊदादेवी के पति मक्का पासी जो काफी साहसी व पराक्रमी थे, इनकी सेना में भर्ती हो गए। कहते हैं कि मक्का पासी को देश की आजादी के लिए शाह के दस्ते में शामिल होता देख, ऊदा देवी को भी प्रेरणा मिली और वह वाजिद अली शाह के महिला दस्ते में भर्ती हो गईं।साल 1857 की क्रांति के समय पूरे भारत में लोग अंग्रेजी सरकार के खिलाफ विद्रोह पर उतर आये थे। 10 जून 1857 को अंग्रेजों ने अवध पर हमला कर दिया था। लखनऊ के इस्माइलगंज में ब्रिटिश टुकड़ी से मौलवी अहमद उल्लाह शाह के नेतृत्व में एक पलटन लड़ रही थी। इस पलटन में ही मक्का पासी भी थे। यहाँ अंग्रेजों से लड़ते हुए वह वीरगति को प्राप्त हो गए। जब यह खबर ऊदा देवी तक पहुंची तो अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध लड़ने का उनका इरादा और भी मजबूत हो गया।

महिला दस्ते में तो वे पहले ही शामिल थीं। पर इस क्रांति के दौरान उन्होंने बेगम हज़रत महल की मदद से महिला लड़ाकों की एक अलग बटालियन तैयार की।
16 नवम्बर 1857 को सार्जेंट काल्विन कैम्बेल की अगुवाई में ब्रिटिश सेना ने लखनऊ के सिकंदर बाग में ठहरे हुए भारतीय सैनिकों पर हमला बोल दिया। ऐसे में पुरुषों की वेश-भूषा धारण किये हुए ऊदा देवी और उनकी बटालियन ने ब्रिटिश सेना को सिकन्दर बाग के द्वार पर ही रोक दिया। लड़ाई के समय ऊदा देवी अपने साथ एक बंदूक और कुछ गोला-बारूद लेकर एक पीपल के पेड़ पर चढ़ गयी थीं।

उन्होने हमलावर ब्रिटिश सैनिकों को सिकंदर बाग़ में तब तक प्रवेश नहीं करने दिया, जब तक कि उनका गोला बारूद समाप्त नहीं हो गया। उन्होंने दो दर्जन से भी ज्यादा ब्रिटिश सैनिकों को मार गिराया। इसे देख अंग्रेजी अधिकारी तैश में आ गये। उन्हें समझ नहीं आया कि उनके सैनिकों को कौन मार रहा है। तभी एक अंग्रेजी सैनिक ने पीपल के पेड़ के पत्तों के झुरमुट में छिपे एक बाग़ी को देखा जो ताबड़तोड़ गोली बरसा रहा था। ब्रिटिश सैनिकों ने भी उसी पेड़ पर निशाना साधा और गलियाँ चलायी। गोली लगते ही ऊदा देवी पेड़ से नीचे गिर पड़ीं। उसके बाद जब ब्रिटिश अफसरों ने जब बाग़ में प्रवेश किया, तो उन्हें पता चला कि पुरुष की वेश-भूषा में वह भारतीय सैनिक कोई और नहीं बल्कि एक महिला थी।

कहा जाता है कि ऊदा देवी की वीरता से अभिभूत होकर काल्विन कैम्बेल ने हैट उतारकर शहीद ऊदा देवी को श्रद्धांजलि दी थी। इस लड़ाई के दौरान लंदन टाइम्स अखबार के रिपोर्टर विलियम हावर्ड रसेल लखनऊ में ही कार्यरत थे। सिकंदर बाग में हुई लड़ाई के बाद उन्होंने लंदन स्थित लंदन टाइम्स दफ्तर में खबरें भेजी थीं। इन खबरों में एक खबर सिकंदर बाग के युद्ध की भी थी।
विलियम हावर्ड रसेल ने सिकंदर बाग की लड़ाई को लेकर अपनी खबर में पुरुषों के कपड़े पहनकर एक महिला द्वारा पेड़ से फायरिंग करने और कई ब्रिटिश सैनिकों को मार डालने का जिक्र किया था।
इस लड़ाई का स्मरण कराती ऊदा देवी की एक मूर्ति सिकन्दर बाग़ परिसर में कुछ ही साल पहले स्थापित की गयी है।

काला पानी का गुमनाम वीर : #महावीर

अंडमान की काला पानी कहे जानी वाली सेलुलर जेल में अंग्रेजों की यातनाओं, बदसलूकी और बदइंतजामी के खिलाफ जेल में बंद क्रांतिकारियों ने भूख हड़ताल शुरू कर दी। जब अंग्रेज अधिकारियों को इसकी सूचना हुई तो उन्होंने महावीर पर जुल्म बढ़ा दिए, उनकी भूख हड़ताल को खत्म करने के सभी प्रयास किए, लेकिन महावीर सिंह नहीं टूटे। अंग्रेज़ों ने इनकी भूख हड़ताल को तोड़ने की भरसक कोशिशें कीं लेकिन वह नाकाम रहे। बन्दियों को जबरदस्ती खाना खिलाने का भी प्रयास किया गया, लेकिन उसमें भी गोरे अंग्रेज नाकाम रहे। उन्होंने महावीर सिंह की भी भूख हड़ताल तुड़वाने की बहुत कोशिशें की, उन्हें अनेकों लालच भी दिए, यातनाएं दीं लेकिन वह अपने निर्णय से टस से मस नहीं हुए। लाख कोशिशों के बावजूद अंग्रेज महावीर सिंह की भूख हड़ताल नहीं तुड़वा सके। अंग्रेज़ों ने फिर जबरदस्ती करके उनके मुँह में खाना ठूंसने की कोशिशें कीं, इसमें भी वो सफल नहीं हो पाए।
इसके बाद अंग्रेजों ने नली के द्वारा नाक से उन्हें जबरदस्ती दूध पिलाने की कोशिश की। इस प्रक्रिया में उन्हें जमीन पर गिराकर 8 पुलिसवालों ने पकड़ रखा था। हठी महावीर सिंह राठौड़ ने पूरी जान लगाकर उनका विरोध किया जिससे दूध उनके फेफड़ों में चला गया। नतीजतन इससे तड़प तड़पकर उनकी 17 मई 1933 को मृत्यु हो गई और उनके शव को पत्थरों से बांधकर समुद्र में फेंक दिया गया।

दुःख की बात है कि महावीर सिंह की शहादत से आज भी बहुत कम लोग परिचित हैं। उनके परिवार को भी उनकी राष्ट्रभक्ति की कीमत भीषण यातनाओं के रूप में चुकानी पड़ी। अंग्रेज़ों की यातनाओ से तंग आकर उनके परिवार को 9 बार अपने घर ,यहां तक कि गांव को भी छोड़कर जाना पड़ा। आज भी उनका परिवार गुमनामी की जिंदगी जीने को विवश है। ऐसे वीर क्रांतिकारी के परिवार से आजाद भारत की सरकार आज भी मुंह मोड़े हुए है। इससे अधिक शर्मनाक बात और क्या हो सकती है। यह है देश के लिए अपना सर्वस्व होम करने वाले भारत मां के वीर सपूतों की हकीकत। उन्हें सम्मान की बात तो दीगर है, उनके परिजनों की सुध लेने वाला भी कोई नहीं। उत्तर प्रदेश के एटा जिले के राजा का रामपुर क्षेत्र के शाहपुर टहला गांव में राजपूती परिवार ठाकुर देवी सिंह राठौर के यहां 16 सितंबर 1904 को उनका जन्म हुआ था जिसका नाम रखा गया महावीर। अब यह गांव कासगंज जिले के अंतर्गत आता है। नमन है वीर महावीर की शहादत को।

भारत के सर्वाधिक शक्तिशाली शासकों में से एक कृष्ण देवराय (1509-1529 ई.)विजयनगर साम्राज्‍य

भारत के सर्वाधिक शक्तिशाली शासकों में से एक कृष्ण देवराय (1509-1529 ई.)विजयनगर साम्राज्य के राजा थे। राजा कृष्ण देवराय ने कब्जाई थी सत्ता,अरब सागर से लेकर बंगाल की खाड़ी तक फैला था ये विजयनगर साम्राज्य! तुलुव वंश से आने वाले कृष्ण देवराय को उस समय का सबसे शक्तिशाली राजा माना जाता था। इस वंश ने (1505-1570 ई.) तक विजयनगर साम्राज्य पर राज किया। विजयनगर का साम्राज्य राजा कृष्ण देवराय के कार्यकाल में भव्यता के शिखर पर पहुंच गया था। उन्होंने जो भी लड़ाइयां लड़ी,उन सभी में सफल रहे। उन्होंने ओडिशा के राजा को पराजित किया और विजयवाड़ा तथा राजमहेन्द्री को जोड़ा। इनकी ख्याति के कारण सम्राट कृष्ण देवराय को इतिहास के पन्नों में चित्रगुप्त मौर्य, पुष्यमित्र, चंद्रगुप्त विक्रमादित्य, स्कंदगुप्त, हर्षवर्धन और महाराजा भोज के सामान्तर माना जाता है। बाबर ने अपनी आत्मकथा में इन्हें भारत का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक कहा है।
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विजयनगर की राजधानी हम्पी में राजा कृष्ण देवराय का जन्म 16 फरवरी 1471 ई. को हुआ था। उनके पिता का नाम तुलुवा नरसा नायक और माता का नाम नागला देवी था। उस समय उनके पिता नरसा नायक सालुव वंश के एक सेनानायक थे। नरसा नायक ही सालुव वंश के दूसरे और अंतिम कम उम्र के शासक इम्माडि नरसिंह के संरक्षक थे। बाद में नरसा नायक ने शासक इम्माडि नरसिंह को रास्ते से हटाकर 1491 में विजयनगर की सत्ता हासिल कर ली।

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वर्ष 1509 में राजा बने कृष्ण देवराय, इनके पिता नरसा नायक की 1503 ई. में मृत्यु के बाद कृष्ण देवराय के बड़े भाई वीर नरसिंह सिंहासन पर बैठे। चालीस वर्ष की उम्र में अज्ञात बीमारी से वीर नरसिंह की भी मृत्यु हो गई। जिसके बाद 8 अगस्त 1509 ई. को कृष्ण देवराय का राजतिलक किया गया। विजयनगर साम्राज्य के संस्थापक हरिहर प्रथम बुक्काराय थे। उन्होंने सल्तनत की कमजोरी का फायदा उठाकर होयसल राज्य को हासिल कर लिया था। जिसके बाद हस्तिनावती यानि हम्पी को विजयनगर साम्राज्य की राजधानी बनाया।

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अरब सागर से लेकर बंगाल की खाड़ी तक फैला था साम्राज्
राजा कृष्णदेव राय कूटनीति में माहिर थे। उन्होंने अपनी बुद्धिमानी से आन्तरिक विद्रोहों को शांत कर बहमनी के राज्यों पर अधिकार हासिल किया था। कृष्ण देवराय ने राज संभालने के बाद अपने साम्राज्य का विस्तार अरब सागर से लेकर बंगाल की खाड़ी तक कर लिया था। जिसमें आज के कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, केरल, गोवा और ओडिशा प्रदेश आते हैं। महाराजा कृष्ण देवराय के राज्य की सीमाएं पूर्व में विशाखापट्टनम, पश्चिम में कोंकण और दक्षिण में भारतीय प्रायद्वीप के अंतिम छोर तक थीं। हिन्द महासागर में स्थित कुछ द्वीप भी उनके आधिपत्य में थे।

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हर क्षेत्र में निपुण थे कृष्णदेव राय:-राजा कृष्णदेव ने अपने शासनकाल में कला और साहित्य को भी खुब प्रोत्साहित किया था। वे तेलुगु साहित्य के महान विद्वान थे। कुमार व्यास का ‘कन्नड़-भारत’ कृष्ण देवराय को समर्पित है। उन्होंने तेलुगु के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘अमुक्त माल्यद’ या ‘विस्वुवितीय’ की रचना की। कृष्ण देवराय ने संस्कृत भाषा में एक नाटक ‘जाम्बवती कल्याण’ की भी रचना की थी। इसके अलावा संस्कृत में उन्होंने ‘परिणय’, ‘सकलकथासार– संग्रहम’, ‘मदारसाचरित्र’, ‘सत्यवधु– परिणय’ भी लिखा। इनके दरबार को तेलुगु के 8 महान विद्वान एवं कवियों (अष्टदिग्गज) ने सुशोभित किया। कहा जाता है कि इस काल में तेलुगु साहित्य अपनी पराकाष्ठा तक पहुंच गया था। कृष्णदेव के दरबार में ये कवि साहित्य सभा के आठ स्तंभ माने जाते थे। कृष्णदेव राय को आंध्र भोज भी कहा जाता है।

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राजा कृष्ण देवराय के दरबार के सबसे प्रमुख सलाहकार थे रामलिंगम यानि तेनालीराम। कृष्ण देवराय का अनुसरण करते हुए ही अकबर ने भी अपने नवरत्नों में बीरबल को रखा था। सम्राट कृष्णदेव राय घोड़ों के बहुत शौकीन थे। उन्होंने सीड़े मरकर नामक एक मुगल को चालीस हजार सिक्के देकर गोवा के पोंड़ा में मुगलों से घोड़े खरीदने के लिए भेजा, किन्तु उस मुगल ने विश्वासघात किया और पोंड़ा के मुगलों के साथ सिक्के और घोड़े लेकर आदिलशाह के राज्यक्षेत्र में भाग गया। दोनों राज्यों की चालीस साल पुरानी संधि के आधार पर दूसरे राज्य के अपराधी को संरक्षण देना संधि का उल्लंघन था, अत: सम्राट कृष्णदेव राय ने आदिलशाह को पत्र लिखकर बताया कि सीडेमरकर को धन सहित तुरंत विजयनगर साम्राज्य को सौंप दिया जाय, अन्यथा परिणाम भयानक होगा।

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आदिलशाह ने अहंकार के कारण उस मुगल अपराधी को विजय नगर भेजनेके बजाय सम्राट को पत्र लिखा कि काजी की सलाह के अनुसार सीड़े मरकर पैगम्बर के वेश का प्रतिनिधि और कानून का ज्ञाता है, अत: उसे विजयनगर को नहीं सौंपा जा सकता।
 इस हठवादिता के विरूद्व सम्राट कृष्णदेव राय ने 7,36,000 सैनिकों की विशाल सेना के साथ रायचूर पर धावा बोल दिया। कूटनीतिक तरीके से बरार, बीदर और गोलकुंडा के सुल्तानों को उन्होंने आदिलशाह के पक्ष में न बोलने के लिए भी तैयार कर लिया। इन सुल्तानों को पता था कि यदि हमने आदिलशाह की मदद की तो सम्राट कृष्णदेव के कोप से हमें भी जूझना पड़ेगा।

परिणामत: ये सभी आदिलशाह के सहयोग में नहीं खड़े हुए जबकि सभी हिन्दू राजाओं को उन्होंने कृष्णा नदी के तट पर एक जुट करके बीजापुर की आदिलशाही सेना पर आक्रमण कर दिया। भयभीत होकर आदिलशाह युद्व के मैदान से भाग गया तथा सम्राट कृष्णदेवराय की विजय हुयी। सम्राट कृष्णदेव राय की इस विजय को दक्षिण भारत की महत्वपूर्ण विजय कहा गया, जिसके बहुत दूरगामी परिणाम सामने आये, जो निम्नवत् हैं-

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1. आदिलशाह की शक्ति और सम्मान को चकनाचूर करके बीजापुर के उस अहंकार को उन्होंने तोड़ दिया, जिसमें वह दक्षिण भारत का सुल्तान बनने का स्वप्न अपनी आंखों में सजोए हुए था।

2. दक्षिण भारत के अन्य मुगल शासकों के दिल दहल गये और वे अपने जीवित रहने के लिए राह तलाशने लगे।

3. पुर्तगाली इतना भयभीत हो गये कि उन्हें लगा कि उनका व्यापार हिन्दुओं की सहायता के बिना संभव नहीं है।

4. भारतीयों में आत्मगौरव और स्वाभिमान का प्रबल जनज्वार खड़ा हो गया।सम्राट कृष्णदेव राय ने इस सफलता पर विजयनगर में शानदार उत्सव का आयोजन किया, जिसमें मुगल शासकों ने अपने दूत भेजे, जिनको सम्राट कृष्णदेव राय ने कड़ी फटकार लगाई। यहां तक कि आदिलशाह के दूत से उन्होंने कहा कि आदिलशाह स्वयं यहां आकर मेरे चरणों का चुम्बन करे और अपनी भूमि तथा किले हमें समर्पित करे तब हम उसे क्षमा कर सकते हैं। वीरता के साथ-साथ विजयनगर का साम्राज्य शासन व्यवस्था के आधार पर विश्व में अतुलनीय था। सुन्दर नगर रचना और सभी को शांतिपूर्वक जीवन यापन करने की सुविधा यहां की विशिष्टता में चार चांद लगाती थी। जाति और पूजा पद्वति के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं था। यहां पर राजा को धर्म, गौ एवं प्रजा का पालक माना जाता था। सम्राट कृष्णदेव राय की मान्यता थी कि शत्रुओं को शक्ति के आधार पर कुचल देना चाहिए और ऐसा ही उन्होंने व्यवहार में भी दिखाया।

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विजयनगर साम्राज्य के सद्गुणों की स्पष्ट झलक उनके दरबार के प्रसिद्व विद्वान तेनाली राम के अनेक दृष्टान्तों से मिलती है, जो आज भी भारत में बच्चों के अन्दर नीति और सद्गुणों के विकास के लिए सुनाये जाते हैं। सम्राट कृष्णदेवराय के शासन में कौटिल्य के अर्थशास्त्र को आर्थिक विकास का आधार माना गया था, जिसके फलस्वरूप वहां की कृषि ही जनता की आय का मुख्य साधन बन गयी थी। इनकी न्याय प्रियता पूरे भारत में प्रसिद्व थी। लगभग 10 लाख की सैन्य शक्ति, जिसमें 32 हजार घुड़सवार तथा एक छोटा तोप खाना और हाथी भी थे, वहां की सैनिक सुदृढ़ता को प्रकट करता था। विजयनगर साम्राज्य अपनी आदर्श हिन्दू जीवन शैली के लिए विश्व-विख्यात था। जहां के महाराजा कृष्णदेव राय वैष्णव होने के बावजूद भी जैन, बौद्व, शैव, लिंगायत जैसे भारतीय पंथों ही नहीं ईसाई, यहूदी और मुसलमानों जैसे अभारतीय पंथों को भी पूरी धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान करते थे। ऐसे सर्वव्यापी दृष्टिकोण का परिणाम था कि ई. 1336में स्थापित विजयनगर साम्राज्य हिन्दू और मुसलमान या ईसाईयों के पारस्परिक सौहार्द तथा समास और समन्वित हिन्दू जीवन शैली का परिचायक बना जबकि इससे दस वर्ष बाद अर्थात 1347 ई. में स्थापित बहमनी राज्य हिन्दुओं के प्रति कटुता, विद्वेष और बर्बरता का प्रतीक बना।

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पन्द्रहवीं शताब्दी में विजय नगर साम्राज्य का वर्णन करते हुए इटली के यात्री निकोलो कोंटी ने लिखा था कि यह राज्य भारत का सबसे शक्तिशाली राज्य है, इसके राजकोष में पिघला हुआ सोना गंढों में भर दिया जाता है तथा देश की सभी अमीर गरीब जातियों के लोग स्वर्ण आभूषण पहनते हैं। सोलहवीं शताब्दी में पुर्तगाली यात्री पेइज ने यहां की समृद्वि का वर्णन करते हुए लिखा था कि यहां के राजा के पास असंख्य सैनिको की शक्ति, प्रचुर मात्रा में हीरे जवाहरात, अन्न के भंडार तथा व्यापारिक क्षमता के साथ-साथ अतुलनीय कोष भी हैं। एक और पुर्तगाली यात्री न्यूनिज ने भी इसी बात की पुष्टि करते हुए लिखा है कि विजयनगर में विश्व की सर्वाधिक प्रसिद्व हीरे की खानें, यहां की समृद्वि को प्रकट करती हैं।

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सैनिक और आर्थिक ताकत के अतिरिक्त सम्राट कृष्णदेव राय उच्चकोटि के विद्वान भी थे। संस्कृत, कन्नड़, तेलगू तथा तमिल भाषाओं को प्रोत्साहन देने के साथ ही उन्होंने अपने साम्राज्य में कला और संस्कृति का पर्याप्त विकास किया। उन्होंने कृष्णा स्वामी, रामा स्वामी तथा विट्ठल स्वामी जैसे भव्य मंदिरों का निर्माण कराया तथा संत स्वामी विद्यारण्य की स्मृति में बने हम्पी मंदिर का विकास भी कराया। संत विद्यारण्य स्वामी साधारण संत नहीं थे। उन्होंने मां भुवनेश्वरी देवी के श्री चरणों में बैठ कर गहरी अनुभूति प्राप्त की थी तथा स्वामी भारतीकृष्ण तीर्थ जी महाराज के शिष्य के रूप में श्रृंगेरी मठ के शंकराचार्य के पद को सुशोभित किया था।

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विजयनगर साम्राज्य के इस कुशल योजनाकार ने 118 वर्ष की आयु में जब अपना जीवन त्याग दिया तो कर्नाटक की जनता ने पम्पा क्षेत्र (हम्पी) के विरूपाक्ष मंदिर में इस महान तपस्वी की भव्य प्रतिमा की स्थापना की, जो आज भी भक्तों के लिए पेरणा स्रोत है। विजयनगर साम्राज्य को विश्व में आदर्श हिन्दू राज्य के रूप में मानने के पीछे सम्राट कृष्णदेव राय का प्रेरणादायी व्यक्तित्व अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। कृष्ण देव राय के निधन के बाद ढहने लगा साम्राज्य:- कृष्ण देव राय ने अपने शासन काल में पश्चिमी देशों के साथ व्यापार को बढ़ावा दिया। उनके पुर्तगालियों के साथ अच्छे संबंध थे, जिनका व्यापार उन दिनों भारत के पश्चिमी तट पर व्यापारिक केंद्रों के रूप में स्थापित हो चुका था। वे न केवल एक महान योद्धा थे बल्कि वे कला के पारखी और अभिगम्यता के महान संरक्षक भी रहे। उन्होंने अपने व्यक्तित्व आकर्षण, दयालुता और आदर्श प्रशासन द्वारा लोगों की बहुत मदद की। विजयनगर साम्राज्य का पतन 1529 में कृष्ण देव राय की मृत्यु के साथ शुरू हुआ। यह साम्राज्य 1565 में पूरी तरह समाप्त हो गया जब आदिलशाही, निजामशाही, कुतुबशाही और बरीद शाही के संयुक्त प्रयासों द्वारा तालीकोटा में रामराय को पराजित किया गया।

लेखक: Prashant Pundir

लेखक: Prashant Pundir

अकबर की महानता का गुणगान तो कई इतिहासकारों ने किया है लेकिन अकबर की औछी हरकतों का वर्णन बहुत कम इतिहासकारों ने किया है

अकबर अपने गंदे इरादों से प्रतिवर्ष दिल्ली में नौरोज का मेला आयोजित करवाता था जिसमें पुरुषों का प्रवेश निषेध था अकबर इस मेले में महिला की वेष-भूषा में जाता था और जो महिला उसे मंत्र मुग्ध कर देती थी उसे दासियाँ छल कपटवश अकबर के सम्मुख ले जाती थी एक दिन नौरोज के मेले में महाराणा प्रताप की भतीजी छोटे भाई महाराज शक्तिसिंह की पुत्री मेले की सजावट देखने के लिए आई जिनका नाम बाईसा किरणदेवी था जिनका विवाह बीकानेर के पृथ्वीराज जी से हुआ बाईसा किरणदेवी की सुंदरता को देखकर अकबर अपने आप पर काबू नही रख पाया और उसने बिना सोचे समझे दासियों के माध्यम से धोखे से जनाना महल में बुला लिया जैसे ही अकबर ने बाईसा किरणदेवी को स्पर्श करने की कोशिश की किरणदेवी ने कमर से कटार निकाली और
अकबर को ऩीचे पटकर छाती पर पैर रखकर कटार गर्दन पर लगा दी और कहा नींच… नराधम तुझे पता नहीं मैं उन महाराणा प्रताप की भतीजी हुं जिनके नाम से तुझे नींद नहीं आती है बोल तेरी आखिरी इच्छा क्या है अकबर का खुन सुख गया कभी सोचा नहीं होगा कि सम्राट अकबर आज एक राजपूत बाईसा के चरणों में होगा अकबर बोला मुझे पहचानने में भूल हो गई मुझे माफ कर दो देवी तो किरण देवी ने कहा कि आज के बाद दिल्ली में नौरोज का मेला नहीं लगेगा और किसी भी नारी को परेशान नहीं करेगा अकबर ने हाथ जोड़कर कहा आज के बाद कभी मेला नहीं लगेगा उस दिन के बाद कभी मेला नहीं लगा इस घटना का वर्णन गिरधर आसिया द्वारा रचित सगत रासो मे 632 पृष्ठ संख्या पर दिया गया है बीकानेर संग्रहालय में लगी एक पेटिंग मे भी इस घटना को एक दोहे के माध्यम से बताया गया है
किरण सिंहणी सी चढी उर पर खींच कटार
भीख मांगता प्राण की अकबर हाथ पसार
धन्य है किरण बाईसा उनकी वीरता को कोटिशः प्रणाम !

दुबई_में_लगेगी_महाराजा_श्री_गंगासिंह_जी की प्रतिमा….

दुबई में हिंदुआ सूरज महाराणा प्रताप,स्वाभिमान व बलिदान की देवी महारानी पद्मिनी व राजस्थान के भागीरथ महाराजा गंगासिंह की प्रतिमाओ से होगा यशोगान राजस्थान के वीर शिरोमणि हल्दीघाटी युद्ध के विजेता महाराणा प्रताप की प्रतिमा अब विदेशी धरती पर उनके यश व संघर्ष की गाथा कहेगी ,जयपुर स्थित भारती शिल्पकला स्टूडियो में मूर्तिकार महावीर भारती व निर्मला कुल्हरी द्वारा महाराणा प्रताप अब अपने प्रिय हाथी रामप्रसाद पर सवार प्रतिमा में बनाये जा रहे है जो आगामी माह में दुबई में स्थापित किये जायेंगे अभी तक महाराणा प्रताप अपने स्वामिभक्त चेतक पर सवार प्रतिमाओ में ही देखे गये है विदेशी धरती पर उनकी ये पहली प्रतिमाये स्थापित होगी
महाराणा हाथी रामप्रसाद पर सवार के साथ साथ चेतक पर सवार प्रतिमा व राजस्थान के राजसी वैभव ,बलिदान ,स्वाभिमान व रूप सौंदर्य की मूरत महारानी पद्मावती तथा गंगनहर का निर्माण कर राजस्थान के भागीरथ कहलाये महाराजा गंगासिंह की भव्य प्रतिमा भी तैयार की गई है,ये चारों प्रतिमा दुबई में शारजहां में समुद्र के किनारे चोखी ढाणी रिसोर्ट में स्थापित की जायेगी ,दुबई एक्सपो में विजिट करने वाले पर्यटकों को भारत के गौरवशाली इतिहास के महत्वपूर्ण अंग रहे इन विभूतियों की अद्वितीय प्रतिमाओ के अवलोकन का अवसर मिलेगा.
चोखी ढाणी के डायरेक्टर मेहुल वसनानी ने बताया कि मूर्तिकार महावीर भारती का चयन उनकी गुणवत्ता व वचनबद्ध कार्यशैली को देखकर किया गया..
इन सभी प्रतिमाओ के साथ उनके जीवन से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी शिलापट के द्वारा उकेरी भी जायेगी
प्रतिमाओ की विशेषता ,मूर्तिकार महावीर भारती ने बताया कि हाथी पर सवार प्रताप की प्रतिमा 14 फिट ऊंची व 2 टन वजनी है, जिनमे महाराणा प्रताप राजसी पौशाक व वैभव के साथ विराजमान है, एक हाथ मे तलवार व दूसरे हाथ मे स्वर्णमुद्राओं व धन से भरी पोटली है
पीछे सेवक उनकी सेवा के लिए बैठा है ,महावत एक हाथ मे घण्टी व दूसरे हाथ मे अंकुश लिए हुए है ,हाथी व पालकी को डिजायनर निर्मला कुल्हरी द्वारा सुंदर सजाया गया है जिससे प्रतिमा देखने योग्य बनी है ,चेतक पर सवार प्रतिमा 12.6 फिट ऊंची है
इसी तरह की प्रतिमा पहले अयोध्या,द्वारिका आंणद झालावाड़ प्रतापगढ़ सरदारशहर रतलाम आदि स्थानों पर स्थापित की जा चुकी है।

कश्मीर के राजा हरिसिंह ने भरे दरबार में तत्कलीन भारत के होने वाले प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरु को थप्पड़ ?

कश्मीर के राजा हरिसिंह ने भरे दरबार में तत्कलीन भारत के होने वाले प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरु को थप्पड़ भी मारा था और कश्मीर की सरहद से बाहर फिकवा दिया था,हम लोगों में से बहुत ही कम जानते होंगे कि नेहरू पेशे से वकील था लेकिन किसी भी क्रांतिकारी का उसने केस नहीं लड़ा। बात उस समय की है जिस समय महाराजा हरिसिंह 1937 के दरमियान ही जम्मू कश्मीर में लोकतंत्र स्थापित करना चाहते थे लेकिन शेख अब्दुल्ला इसके विरोध में थे क्योंकि शेख अब्दुल्ला महाराजा हरिसिंह के प्रधानमंत्री थे और कश्मीर राज्य का नियम यह था कि जो प्रधानमंत्री होगा वही अगला राजा बनेगा लेकिन महाराजा हरि सिंह प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला के कुकृत्य से भलीभांति परिचित थे इसलिए कश्मीर के लोगों की भलाई के लिए वह 1937 में ही वहां लोकतंत्र स्थापित करना चाहते थे लेकिन शेख अब्दुल्ला ने बगावत कर दी और सिपाहियों को भड़काना शुरू कर दिया लेकिन राजा हरि सिंह ने समय रहते हुए उस विद्रोह को कुचल डाला और शेख अब्दुल्ला को देशद्रोह के केस में जेल के अंदर डाल दिया।
शेख अब्दुल्ला और जवाहरलाल नेहरू की दोस्ती प्रसिद्ध थी। जवाहरलाल नेहरू शेख अब्दुल्ला का केस लड़ने के लिए कश्मीर पहुंच जाते हैं, वह भी बिना इजाजत के राजा हरिसिंह द्वारा चलाई जा रही कैबिनेट में प्रवेश कर जाते हैं , महाराजा हरि सिंह के पूछे जाने पर की आप किसकी मंजूरी से यहाँ आये हो नेहरु ने बताया कि मैं भारत का भावी प्रधानमंत्री हूं। राजा हरिसिंह ने कहा चाहे आप कोई भी है, बगैर इजाजत के यहां नहीं आ सकते अच्छा रहेगा आप यहां से निकल जाएं। नेहरु ने जब राजा हरि सिंह के बातों को नहीं माना तो राजा हरिसिंह ने गुस्से में आकर नेहरु को भरे दरबार में जोरदार थप्पड़ जड़ दिया और कहा यह तुम्हारी कांग्रेस नहीं है या तुम्हारा ब्रिटिश राज नहीं है जो तुम चाहोगे वही होगा। तुम होने वाले प्रधानमंत्री हो सकते हो लेकिन मैं वर्तमान राजा हूं और उसी समय अपने सैनिकों को कहकर कश्मीर की सीमा से बाहर फेंकवा दिया।
कहते हैं फिर नेहरू ने दिल्ली में आकर शपथ ली कि वह 1 दिन शेख अब्दुल्ला को कश्मीर के सर्वोच्च पद पर बैठा कर ही रहेगा। इसीलिए बताते हैं कि भारत मे विलीनीकरण के समय कश्मीर को छोड़कर अन्य सभी रियासतों का जिम्मा सरदार पटेल को दिया गया और एकमात्र कश्मीर का जिम्मा भारत में मिलाने के लिए जवाहरलाल नेहरु ने लिया था। सरदार पटेल ने सभी रियासतों को मिलाया लेकिन नेहरू ने एक थप्पड़ के अपमान के लिए भारत के साथ गद्दारी की ओर शेख अब्दुल्ला को मुख्यमंत्री बनाया और 1955 में जब वहां की विधानसभा ने अपना प्रस्ताव पारित करके जवाहरलाल नेहरू को पत्र सौंपा कि हम भारत में सभी शर्तों के साथ कश्मीर का विलय करना चाहते हैं तो जवाहरलाल नेहरू ने कहा —- नहीं अभी वह परिस्थितियां नहीं आई है कि कश्मीर का पूर्ण रूप से भारत में विलय हो सके।
इस प्रकार उस पत्र को प्रधानमंत्री नेहरू ने इरादतन ठुकरा दिया था, और अपने अपमान का बदला लिया जिसका खामियाजा भारत आज तक भुगत रहा था !!
महाराजा हरि सिंह जी की जयंती पर उनको मेरा कोटि कोटि नमन
वन्देमातरम
जय माँ भवानी जय राजपुताना