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रायबरेली तथा उन्नाव के बड़े हिस्से में सन 1857 ई. में भारत के स्वतन्त्रता प्राप्ति संग्राम और क्रांति की जो मशाल जली थी, उसके नायक थे राणा बेनीमाधव बख्श सिंह

रायबरेली तथा उन्नाव के बड़े हिस्से में सन 1857 ई. में भारत के स्वतन्त्रता प्राप्ति संग्राम और क्रांति की जो मशाल जली थी, उसके नायक थे राणा बेनीमाधव बख्श सिंह

रायबरेली तथा उन्नाव के बड़े हिस्से में सन 1857 ई. में भारत के स्वतन्त्रता प्राप्ति संग्राम और क्रांति की जो मशाल जली थी, उसके नायक थे राणा बेनीमाधव बख्श सिंह जिन्होने अंग्रेजी साम्राज्य के दंभ को चकनाचूर कर दिया था. तमाम घेराबंदी के बाद भी अंग्रेज सैनिक राणा बेनीमाधव सिंह बैस तक नहीं पहुंच सके, उस जमाने की संपन्न और ताकतवर रियासत शंकरपुर के शासक राणा बेनीमाधव सिंह बैस प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अगली कतार के प्रमुख नेता और महान संगठनकर्ता थे. राणा बेनीमाधव का समाज के सभी वर्गो पर असर था. व्यापक जनसमर्थन के सहारे ही अवध के ह्दयस्थल में उन्होने अंग्रेजों के खिलाफ जो गुरिल्ला जंग छेड़ी थी, उसकी काट तलाशने के अंग्रेजों को न जाने कितना जतन करना पड़ा था. आखिरी सांस तक राणा लड़ते रहे और उन्होने अंग्रेजों के सामने कभी हथियार नहीं डाले. राणा बेनीमाधव सिंह बैस के अधीन रायबरेली सन 1857 ई. से सन 1858 ई. तक 18 माह तक आजाद रहा और लखनऊ की स्वाधीनता में भी उनके सैनिको की विशिष्ट भूमिका रही.
उनकी वीरता से बेगम हजरतमहल भी इतनी प्रभावित थीं कि उनको दिलेरजंग की उपाधि प्रदान की थी, रायबरेली की जनक्रांति 10 जून सन 1857 ई. को राणा बेणीमाधव के नेतृत्व में शुरू हुई पर रायबरेली के अभियान के पूर्व 30 मई सन 1857 ई. को राणा लखनऊ में अंग्रेजी सेना के छक्के छुड़ाने के लिए 15,000 हजार जांबाज सैनिकों के साथ पहुंचे थे, इसी जंग में वह दिलेरजंग बने थे. राणा ने शंकरपुर के अलावा कई जगहों पर भारी फौज के साथ अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी और उनके छक्के छुडा़ए. राणा के भाई जोमराज सिंह बैस भी अपने 700 सैनिकों के साथ आजादी की जंग में शहीद हुए, राणा बेनीमाधव सिंह बैस आजादी के महान क्रान्तिकारी नायकों के लगातार संपर्क रहे और जब उनकी ताकत कमजोर मानी जा रही थी तो जून सन 1858 ई. में उन्होने बैसवारा में 10,000 हजार पैदल और घुड़सवार सेना फिर से संगठित कर ली थी. अंग्रेजी दस्तावेज बताते हैं कि सन 1858 ई. के मध्य में वह कानपुर पर भारी खतरा बन गए थे और उनके समर्थकों की संख्या 85,000 हजार तक पहुंच गयी थी. 24 नवंबर सन 1858 ई. को राणा बहादुरी से लड़े पर अंग्रेज भारी पड़े.
अवध के दिलेर बागियों में दिसंबर सन 1858 तक राणा बेनीमाधव बख्श सिंह, ठाकुर नरपत सिंह और ठाकुर गुलाब सिंह लड़ते रहे, 17 दिसंबर सन 1858 ई. को भीरा गोविंदपुर में राणा बेनीमाधव सिंह बैस और अंग्रेजों के बीच जोरदार मुकाबला हुआ, इस लड़ाई में राणा काफी घायल हो गए थे पर उनका घोड़ा सज्जा उनको हिफाजत से मन्हेरू गांव के पास जंगलों में ले गया और उनकी रात भर रखवाली करता रहा, राणा बेहोश थे, सुबह राणा के मित्र और मन्हेरू के जागीरदार लालचंद ने संयोग से ही घायल राणा को देखा तो उनको अपने घर लाए और उनकी सेवा की पर इसकी खबर अंग्रेजों तक पहुंच गयी. लालचंद की मदद से अंग्रेज राणा की खोज करना चाहते थे, उनको जागीर तक का प्रलोभन दिया गया पर लालचंद के आगे कुछ नहीं चली. अंग्रेज सिपाही उनको पकड़ कर ब्रिगेडियर इवली के पास ले गए और भारी यातना दी, पर लालचंद ने कहा – “मुझसे ज्यादा देश को राणा की जरूरत है, मैं प्राण दे दूंगा पर राणा का पता नहीं बताऊंगा.”
लालचंद ने राणा के लिए खुद को बलिदान कर दिया, यही नहीं लालचंद के दोनो पुत्र ठाकुर प्रसाद और गोविंद नारायण राणा के बलिदानी जत्थे में पहले ही शामिल हो गए थे. जब लालचंद की गिरफ्तारी की खबर मिली तो उनकी पत्नी रामा देवी ने खुद को कटार मार कर शहीद कर लिया, राणा को बचाने के लिए इस परिवार ने जो बलिदान दिया उसकी आज भी मिसाल दी जाती है और राणा बेनी माधव बख्श सिंह के साथ हमेशा लालचंद को भी याद किया जाता है. हर साल 26 दिसंबर को लालचंद बलिदान दिवस मनाया जाता है.
रायबरेली के बाद राणा गोमती पार कर फैजाबाद पहुंचे जहां कनर्ल हंट ने उनका रास्ता रोकना चाहा पर वह मारा गया, इसके बाद बहराइच के आसपास राणा गुरिल्ला पद्दति से अंग्रेजों को छकाते रहे, राणा बेनीमाधव बख्श सिंह को अंग्रेजों ने काफी खोजा और उनको तमाम प्रलोभन देकर माफी मांगने को कहा पर राणा ने इंकार कर दिया और आजादी की बलिबेदी पर शहीद होना बेहतर समझा. राणा के नेतृत्व में रायबरेली के बहादुर सैनिको ने जंग जारी रखी. कहा जाता है कि आखिरी समय में राणा के साथ कुल 250 लोग बचे थेे,
जिनके सामने राणा ने अपनी सारी धन दौलत रख कर कहा कि जो भी जाना चाहे मनचाहा धन लेकर लौट जाये और जो वीरतापूर्वक मरना चाहे मेरे साथ रहे, पर दो लोगों को छोड़ कर बाकी सब जंग में आखिर तक रहे, भले ही इस जंग में राणा का परिवार तबाह हो गया और तंगहाली में जीता रहा पर आखिरी सांस तक राणा बेनीमाधव सिंह बैस ने जंग लडी. उनके पास अंग्रेजों की तुलना में हथियार नाममात्र के थे पर देश की आजादी की जज्बा उनमें था और इसी मनोबल के सहारे वे लड़ते रहे. राणा बेनीमाधव बख्श सिंह के आखिरी दिनो के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती है.
अद्भुत सेनानायक राणा बेनीमाधव बख्श सिंह बैस को उनकी 217वीं जयंती पर शत-शत नमन🙏🙏

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